पंचविंशो अध्याय: आदिपर्व (आस्तीकपर्व)
महाभारत: आदिपर्व: पंचविंशो अध्याय: श्लोक 1- 17 का हिन्दी अनुवाद
उग्रश्रवाजी कहते हैं—शौनकादि महर्षियों ! तदनन्तर इच्छानुसार गमन करने वाले महान् पराक्रमी तथा महाबली गरूड़ समुद्र के दूसरे पार अपनी माता के समीप आये। जहाँ उनकी माता विनता वाजी हार जाने से दासी भाव को प्राप्त हो अत्यन्त दुःख से संतप्त रहती थी। एक दिन अपने पुत्र के समीप बैठी हुई विनयशील विनता को किस समय बुलाकर कद्रू ने यह बात कही—। ‘कल्याणी विनते ! समुद्र के भीतर निर्जन प्रदेश में एक बहुत रमणीय तथा देखने में अत्यन्त मनोहर नागों का निवास स्थान है। तू वहाँ मुझे ले चल’। तब गरूड़ की माता विनता सर्पों की माता कद्रू को अपनी पीठ पर ढ़ोने लगी। इधर माता की आज्ञा से गरूड़ भी सर्पों को अपनी पीठ पर चढ़ाकर ले चले।।5।।
पक्षिराज गरूड़ आकाश में सूर्य के निकट होकर चलने लगे। अतः सर्प सूर्य की किरणों से संतप्त हो मूर्छित हो गये। अपने पुत्रों को इस दशा में देखकर कद्रू इन्द्र की स्तुति करने लगी—‘सम्पूर्ण देवताओं के ईश्वर ! तुम्हें नमस्कार है। बलसूदन ! तुम्हें नमस्कार है। ‘सहस्त्र नेत्रों वाले नमुचिनाशन ! शचीपते ! तुम्हें नमस्कार है। तुम सूर्य के ताप से संतप्त हुए सर्पों को जल से नहलाकर नौका की भाँति उनके रक्षक हो जाओ। ‘अमरोत्तम ! तुम्हीं हमारे सबसे बड़े रक्षक हो। पुरन्दर ! तुम अधिक से अधिक जल बरसाने की शक्ति रखते हो। ‘तुम्हीं मेघ हो, तुम्हीं वायु हो और तुम्हीं आकाश में बिजली बनकर प्रकाशित होते हो। तुम्हीं बादलों को छिन्न-भिन्न करने वाले हो और विद्वान् पुरूष तुम्हें ही महामेघ कहते हैं। ‘संसार में जिसकी कहीं तुलना नहीं है, वह भयानक वज्र तुम्हीं हो, तुम्हीं भयंकर गर्जना करने वाले बलाहक (प्रलयकालीन मेघ) हो। तुम्हीं सम्पूर्ण लोकों की सृष्टि और संहार करने वाले हो। तुम कभी परास्त नहीं होते। ‘तुम्हीं समस्त प्राणियों की ज्योति हो। सूर्य और अग्नि भी तुम्हीं हो। तुम आश्चर्य मय महान् भूत हो, तुम राजा हो और तुम देवताओं में सबसे श्रेष्ठ हो। ‘तुम्हीं सर्वव्यापी विष्णु, सहस्त्रलोचन इन्द्र, द्युतिमान् देवता और सबके परम आश्रय हो। देव ! तुम्हीं सब कुछ हो। तुम्हीं अमृत हो और परमपूजित सोम हो। ‘तुम मुहूर्त हो, तुम्हीं तिथि हो, तुम्हीं लव तथा तुम्हीं क्षण हो। शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष भी तुमसे भिन्न नहीं हैं। कला, काष्ठा और त्रुटि सब तुम्हारे ही स्परूप हैं। संवत्सर, ऋतु, मास, रात्रि तथा दिन भी तुम्हीं हो। ‘तुम्हीं पर्वत और वनों सहित उत्तम वसुन्धरा हो और तुम्हीं अन्धकार रहित एवं सूर्य सहित आकाश हो। तिमि और तिमिंगिलों से भरपूर, बहुतेरे मगरों और मत्स्यों से व्याप्त तथा उत्ताल तरंगों से सुशोभित महासागर भी तुम्हीं हो। ‘तुम महान् यशस्वी हो। ऐसा समझाकर मनीषी पुरूष सदा तुम्हारी पूजा करते हैं। महर्षिगण निरन्तर तुम्हारा स्तवन करते हैं। तुम यजमान की अभीष्ट सिद्धि करने के लिये यज्ञ में मुदित मन से सोम रस पीते हो और वषट्कार पूर्वक समर्पित किये हुए हविष्य भी ग्रहण करते हो। ‘इस जगत् में अभीष्ट फल की प्राप्ति के लिये विप्रगण तुम्हारी पूजा करते हैं। अतुलित बल के भण्डार इन्द्र ! वेदांगों में भी तुम्हारी ही महिमा का गान किया गया है। यज्ञपरायण श्रेष्ठ द्विज तुम्हारी प्राप्ति के लिये ही सर्वथा प्रयत्न करके वेदांगों का ज्ञान प्राप्त करते है (यहाँ कद्रू के द्वारा ईश्वर रूप से इन्द्र की स्तुति की गयी है)’।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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