सप्तविंशो अध्याय: आदिपर्व (आस्तीकपर्व)
महाभारत: आदिपर्व: सप्तविंशो अध्याय: श्लोक 1- 16 का हिन्दी अनुवाद
उग्रश्रवाजी कहते हैं—गरूड़ पर सवार होकर यात्रा करने वाले वे नाग उस समय जलधारा से नहाकर अत्यन्त प्रसन्न हो शीघ्र ही रामणीयक द्वीप में जा पहुँचे। विश्वकर्मा जी के बनाये हुए उस द्वीप में, जहाँ अब मगर निवास करते थे, जब पहली बार नाग आये थे तो उन्हें वहां भयंकर लवणासुर का दर्शन हुआ था। सर्प गरूड़ के साथ उस द्वीप के मनोरम वन में आये, जो चारो ओर से समुद्र द्वारा घिरकर उसके जल से अभिषिक्त हो रहा था। वहाँ झुंड के झुंड पक्षी कलरव कर रहे थे। विचित्र फूलों और फलों से भरी हुई वन श्रेणियाँ उस दिव्य वन को घेरे हुए थी। वह वन बहुत से रमणीय भवनों और कमलयुक्त सरोवरों से आवृत था। स्वच्छ जल वाले कितने ही दिव्य सरोवर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। दिव्य सुगन्ध का भार वहन करने वाली पावन वायु मानो वहाँ चँवर डुला रही थी। वहाँ ऊँचे-ऊँचे मलयज वृक्ष ऐसे प्रतीत होते थे, मानों आकाश में उड़े जा रहे हों। वे वायु के वेग से विकम्पित हो फूलों की वर्षा करते हुए उस प्रदेश की शोभा बढ़ा रहे थे। हवा के झोंके दूसरे-दूसरे वृक्षों के भी फूल झड़ रहे थे, मानो वहाँ के वृक्ष समूह वहाँ उपस्थित हुए नागों पर फूलों की वर्षा करते हुए उनके लिये अध्र्य दे रहे हो। वह दिव्य वन हृदय के हर्ष को बढ़ाने वाला था। गन्धर्व और अप्सराएँ उसे अधिक पसंद करती थी। मतवाले भ्रमर वहाँ सब ओर गूँज रहे थे। अपनी मनोहर छटा के द्वारा वह अत्यन्त दर्शनीय जान पड़ता था। वह वन रमणीय, मंगलकारी और पवित्र होने के साथ ही लोगों के मन को मोहने वाले सभी उत्तम गुणों से युक्त था। भाँति-भाँति के पक्षियों के कलरवों से व्याप्त एवं परम सुन्दर होने के कारण वह कद्रू के पुत्रों का आनन्द बढ़ा रहा था। उस वन में पहुँच कर वे सर्प उस समय सब ओर बिहार करने लगे और महापराक्रमी पक्षिराज गरूड़ से इस प्रकार बोले। ‘खेचर ! तुम आकाश में उड़ते समय बहुत से रमणीय प्रदेश देखा करते हो; अतः हमें निर्मल जल वाले किसी दूसरे रमणीय द्वीप में ले चलो’। गरूड़ ने कुछ सोचकर अपनी माता विनता से पूछा--‘मा ! क्या कारण है कि मुझे सर्पों की आज्ञा का पालन करना पड़ता है?’। विनता बोली—बेटा पक्षिराज ! मैं दुर्भाग्यवश सौत की दासी हूँ, इन सर्पों ने छल करके मेरी जीती हुई बाजी को पलट दिया था। माता के यह कारण बताने पर आकाशकारी गरूड़ ने उस दुःख से दुखी होकर सर्पों से कहा--‘जीभ लपलपाने वाले सर्पों ! तुम लोग सच-सच बताओ मैं तुम्हें क्या लाकर दे दूँ। किस विद्या का लाभ करा दूँ अथवा यहाँ कौन सा पुरूषार्थ करके दिखा दूँ; जिससे मुझे तथा मेरी माता को तुम्हारी दासता से छुटकारा मिल जाय। उगश्रवाजी कहते हैं—गरूड़ की बात सुनकर सर्पों ने कहा—‘गरूड़ ! तुम पराक्रम करके हमारे लिये अमृत ला दो। इससे तुम्हें दास्यभाव से छुटकारा मिल जायगा’।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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