पंचाशत्तमो अध्याय: आदिपर्व (आस्तीकपर्व)
महाभारत: आदिपर्व: पंचाशत्तमो अध्याय: श्लोक 1- 30 का हिन्दी अनुवाद
मन्त्री बोले—राजेन्द्र ! उस समय राजा परीक्षित् भूख से पीडि़त हो शमीक मुनि के कंधे पर मृतक सर्प डालकर पुनः अपनी राजधानी में लौट आये। उन महर्षि के श्रृंगी नामक एक महातेजस्वी पुत्र था, जिसका जन्म गाय के पेट से हुआ था। वह महान् यशस्वी, तीव्र शक्तिशाली और अत्यन्त क्रोध था। एक दिन उसने आचार्य देव के समीप जाकर पूजा की और उनकी आज्ञा ले वह घर को लौटा। उसी समय श्रृंगी ऋषि ने अपने एक सहपाठी मित्र के मुख से तुम्हारे पिता द्वारा अपने पिता के तिरस्कृत होने की बात सुनी। राजसिंह ! श्रृंगी को यह मालूम हुआ कि मेरे पिता काठ की भाँति चुपचाप बैठे थे और उनके कंधे पर मृतक साँप डाल दिया गया। वे अब भी उस सर्प को अपने कंधे पर रखे हुए हैं। यद्यपि उन्होंने कोई अपराध नहीं किया था। वे मुनिश्रेष्ठ तपस्वी, जितेन्द्रिय, विशुद्धात्मा, कर्मनिष्ठ, अद्भुत शक्तिशाली, तपस्या द्वारा कान्तिमान् शरीर वाले, अपने अंगों को संयम में रखने वाले, सदाचारी, शुभवक्ता, निश्चल, भाव से स्थित, लोभरहित, शुद्रता शून्य (गम्भीर), दोषदृष्टि से रहित, वृद्ध, मौन व्रताबलम्बी तथा सम्पूर्ण प्राणियों को आश्रय देने वाले थे, तो भी आपके पिता परीक्षित् ने उनका तिरस्कार किया। यह सब जानकर यह बाल्यवस्था में भी वृद्धोंका-सा तेज धारण करने वाला महातेजस्वी ऋषि कुमार क्रोध से आगवबूला हो उठा और उसने तुम्हारे पिता को शाप दे दिया। श्रृंगी तेज से प्रज्वलित-सा हो रहा था। उसने शीघ्र ही हाथ में जल लेकर तुम्हारे पिता को लक्ष्य करके रोष पूर्वक यह बात कही—‘जिसने मेरे निरपाध पिता पर मरा साँप डाल दिया हैं, उस पापी को आज से सात रात के बाद मेरी वाक् षक्ति से प्रेरित प्रचण्ड तेजस्वी विषधर तक्षक नाग कुपित हो अपनी विषाग्नि से जला देगा। देखो, मेरी तपस्या का बल’। ऐसा कहकर वह बालक उस स्थान पर गया, जहाँ उसके पिता बैठे थे। पिता को देखकर उसने राजा को शाप देने की बात बतायी। तब मुनिश्रेष्ठ शमीक ने तुम्हारे पिता के पास अपने शिष्य गौरमुख को भेजा, जो सुशील और गुणवान् था। उसने विश्राम कर लेने पर राजा से सब बातें बतायी और महर्षि का संदेश इस प्रकार सुनाया—‘भूपाल ! मेरे पुत्र ने तुम्हें शाप दे दिया है; अतः सावधान हो जाओ। ‘महाराज ! (सात दिन के बाद) तक्षक नाग तुम्हें अपने जैसे जला दुंगा।’ जनमेजय ! यह भयंकर बात सुनकर तुम्हारे पिता नागश्रेष्ठ तक्षक से अत्यन्त भयभीत हो सतत सावधान रहने लगे। तदनन्तर जब सातवाँ दिन उपस्थित हुआ, तब उस दिन ब्रह्मर्षि कश्यप ने राजा के समीप जाने का विचार किया। मार्ग में नागराज तक्षक ने उस समय कश्यप को देखा। विप्रवर काश्यप बड़ी उतावली से पैर बढ़ा रहे थे। उन्हें देखकर नागराज ने (ब्राह्मण का वेष धारण करके) इस प्रकार पूछा—द्विजश्रेष्ठ ! आप कहाँ इतनी तीव्र गति से जा रहे हैं और कौन-सा कार्य करना चाहते हैं?’ कश्यप ने कहा—ब्रह्मन् ! मैं वहाँ जाता हूँ जहाँ कुरूकुल के श्रेष्ठ राजा परीक्षित् रहते हैं। कि आज ही तक्षक नाग उन्हें डँसेगा। अतः मैं तत्काल ही उन्हें नीरोग करने के लिये जल्दी-जल्दी वहाँ जा रहा हूँ मेरे द्वारा सुरक्षित नरेश को वह सर्प नष्ट नहीं कर सकेगा। तक्षक ने कहा—ब्रह्मन् ! मेरे डँसे हुए मनुष्य को जिलाने की इच्छा आप कैसे रखते हैं। मैं ही वह तक्षक हूँ ! मेरी अद्भुत शक्ति देखियें। मेरे डँस लेने पर उस राजा को आप जीवित नहीं कर सकते। ऐसा कहकर तक्षक ने एक वृक्ष को डँस लिया। नाग के डँसते ही वह वृक्ष जलकर भस्म हो गया। राजन् ! तदनन्तर कश्यप ने (अपनी मन्त्र विद्या के बल से) उस वृक्ष को पूर्ववत् जीवित (हरा-भरा) कर दिया। अब तक्षक कश्यप को प्रलोभन देने लगा। उसने कहा—‘तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो।’ तक्षक के ऐसा कहने पर कश्यप ने उससे कहा—‘मैं तो वहाँ धन की इच्छा से जा रहा हूँ।’ उनके ऐसा कहने पर तक्षक ने महात्मा कश्यप से मधुर वाणी में कहा—‘अनघ ! तुम राजा से जितना धन पाना चाहते हो, उससे भी अधिक मुझसे ही ले लो और लौट जाओ’। तक्षक नाग की यह बात सुनकर मनुष्यों में श्रेष्ठ कश्यप उससे इच्छानुसार धन लेकर लौट गये।
ब्राह्मण के चले जाने पर तक्षक ने छल से भूपालों में श्रेष्ठ तुम्हारे धर्मात्मा पिता राजा परीक्षित् के पास पहुँच कर, यद्यपि वे महल में सावधानी के साथ रहते थे, तो भी उन्हें अपनी विषाग्नि से भस्म कर दिया। नरश्रेष्ठ ! तदनन्तर विजय की प्राप्ति के लिये तुम्हारा राजा के पद पर अभिषेक किया गया। नृपश्रेष्ठ ! यद्यपि यह प्रसंग बड़ा ही निष्ठुर ओर दुःख दायक है; तथापित तुम्हारे पूछने से हमने सब बातें तुमसे कहीं हैं। यह सब कुछ हमने अपनी आँखों देखा और कानों से भी ठीक-ठीक सुना है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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