द्वितीय अध्याय: उद्योगपर्व (सेनोद्योग पर्व)
महाभारत उद्योगपर्व: द्वितीय अध्याय: 2 श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
बलदेवजी बोले-सज्जनो ! गदाग्रज श्रीकृष्ण ने जो कुछ धर्मानुकूल तथा अर्थशास्त्रसम्मत सम्भाषण किया है, उसे आप सब लोगों ने सुना है । इसी में अजातशत्रु युधिष्ठर का भी हित है तथा ऐसा करने से ही राजा दुर्योधन की भलाई है। वीर कुन्तीकुमार आधा राज्य छोडकर केवल आधे के लिये ही प्रयत्नशील है। दुर्योधन भी पाण्डवो को आधा राज्य देकर हमारे साथ स्वयं भी सुखी और प्रसन्न होगा।पुरूषों में श्रेष्ठ वीर पाण्डव आधा राज्य पाकर दूसरे पक्ष की ओर से अच्छा वर्ताव होने पर अवश्य ही शान्त ( लडाई-झगडे़ से दूर ) रहकर कही सुख पूर्वक निवास करेंगे। इससे कौरवों को शान्ति मिलेगी और प्रजावर्ग का भी हित होगा। यदि दुर्योधन का विचार जानने के लिये, युधिष्ठर के संदेश को उसके कानो तक पहुँचाने के लिए तथा कौरवो-पाण्डवों शान्ति स्थापित करने के लिये को दूत जाये, तो यह मेरे लिये बडी प्रसन्नता की बात होगी। वह दूत वहाँ जाकर करूवंश के श्रेष्ठ वीर भीष्म, महानु-भाव धृतराष्ट्र, द्रोण, अश्वत्थामा, विदुर, कृपाचार्य, शकूनि, तथा कर्ण दूसरे सब धृतराष्ट्र पुत्र, जो शक्तिशाली, वेदश, स्वधर्मनिष्ठ, लोकप्रसिद्ध वीर, विद्यावृद्ध है उन सबको आमन्त्रित करे ओर इन सबके आ जाने एवं नागरिकों तथा बडे़ बूढो के सम्मिलित होने पर वह दूत विनयपूर्वक प्रणाम करके ऐसी बात कहे, जिससे युधिष्ठिर के प्रयोजन की सिद्ध हो। किसी भी दशा में कौरवों को उत्तेजित या कुपित नहीं करना चाहियें, क्योंकि उनहोंने बळवान् होकर ही पाण्डवों के राज्य पर अधिकार जमाया है । (युधिष्ठर भी सर्वथा निर्दोष नहीं है, क्योंकि) ये जुए को प्रिय मानकर उसमें आसक्त हो गये थे । तभी इनको राज्य का अपहरण हुआ है। अजीमढवंशी कुरूक्षेत्र युधिष्ठिर जुए का खेल नहीं जानते थे। इसीलिये समस्त सुहृदोंने इन्हें मना किया था, (परंतु इन्होंने किसी कीबात नहीं मानी) दूसरी ओर गान्धारराज का पुत्र शकुनि जुएं के खेल में निपुण था। यह जानते हुए भी ये उसी के साथ बारंबार खेलते रहे । इन्होंने कर्ण और दुर्योधन को छोड़कर शकुनि को ही अपने साथ जुआ खेलने के लिये ललकारा था उस सभा में दूसरे भी हजारो जुआरी मौजूद थे, जिन्हें युधिष्ठर जीत सकते थे। परंतु उन सब को छोड़कर इन्होंने सुबळ पुत्र को ही बुळाया। इसीलिये उस जुएं में इनकी हार हुई। जब ये खेलने लगे और प्रतिपक्षी की ओर से फेंके हुए पासे जब बराबर इनके प्रतिकूल पड़ने लगे, तब ये और भी रोषावेश में आकर खेलने लगे । इन्होंने हठपूर्वक खेल जारी रखा और अपने को हराया, इसमें शकुनि का कोई अपराध नहीं है।इसलिये जो दूत यहाँसे भेजा जाये, वह धृतराष्ट्र को प्रणाम करके अत्यन्त विनय के साथ सामनीतियुक्त वचन कहे । ऐसा करने से धृतराष्ट्र दुर्योधन को वह पुरूष अपने प्रयोजन की सिद्धी में लगा सकता है। कौरवो पाण्डवों में परस्पर युद्ध हो,ऐसी आकाक्षा न भावना से ही दुर्योधन को आमन्त्रित करो । मेल-मिलाप से समझा-बुझाकर जो प्रयोजन सिद्ध किया जाता है, वही परिणाम में हितकारी होता है। युद्ध में दोनो पक्ष की ओर से अन्याय अर्थात् अनीति का ही बर्ताव किया जाता है और अन्याय से इस जगत् में किसी प्रयोजन की सिद्ध नहीं हो सकती। वैशम्पायनजी कहते है-जनमेजय ! मधुवंश के प्रमुख वीर बलदेव जी इस प्रकार कह ही रहे थे कि शिनि-वंश के श्रेष्ठ शूरमा सात्यकि सहसा उछलकर खडे हो गये । उन्होंने कुपित होकर बलभद्र जी के भाषण की कडी आलोचना करते हुए इस प्रकार कहना आरम् किया।
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत सेनोद्योगपर्व बलदेव वाक्य विषय दूसरा अध्याय पूरा हूआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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