महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 7 श्लोक 1-20
सप्तम अध्याय: उद्योगपर्व (सेनोद्योग पर्व)
श्रीकृष्ण का दुर्योधन तथा अर्जुन दोनों को सहायता देना
वैशमपायनजी कहते है-जनमेजय ! पुरोहितो को हस्तिनापुर भेजकर पाण्डव लोग यत्र यत्र राजाओं के यहाँ अपने दूतो को भेजने लगे। अन्य सब स्थानों में दूत भेजकर कुरूकुलनन्दन कुन्ती पुत्र नरश्रेष्ठ धनंजय स्वयं द्वारकापुरी को गये। अब मधूकुल नन्दन श्रीकृष्ण और बलभद्र सैकडों वृष्णि अन्धक और भोज्यवंशी यादवों को साथ ले द्वारकापुरी की ओर चले थे धृतराष्ट्रपुत्र राजा दुर्योधन ने अपने नियुक्त किये हुये गुप्तचरो से पाण्डवों की सारी चेष्टाओं का पता लगा लिया था। अब उसने सुना कि श्रीकृष्ण विराट नगर से द्वारका को जा रहे है, तब वह वायू के समान वेगवान् उत्तम अश्वों तथा एक छोटी सी सेना के साथ द्वारकापुरी की ओर चल दिया। कुन्ती कुमार पाण्डुनन्दन अर्जुन ने भी उसी दिन शीघ्रता पूर्वक रमणीय द्वारकापुरी की ओर प्रस्थान किया। कुरूवंश का आनन्द बढ़ाने वाले उन दोनों नरवीरों ने द्वारका में पहँुच कर देखा, श्रीकृष्ण शयन कर रहे है। तब वे दोनों साये हुये श्रीकृष्ण के पास गये। श्रीकृष्ण के शयनकाल में पहले दुर्योधन ने उनके भवन में प्रवेश किया और उनके सिराहने के ओर रक्खे हुए एक श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठ गया। तत्पश्चात महामना किरीटधारी अर्जुन ने श्रीकृष्ण के शयनागार में प्रवेश किया । वे बड़ी नम्रता से हाथ जोडे हुए श्रीकृष्ण के चरणों की ओर खड़े रहे। जागने पर वृष्णिकुलभूषण श्रीकृष्ण ने पहले अर्जुन को ही देखा । मधुसूदन ने उना दोनों का यथायोग्य आद्र-सत्कार करके उनसे आगमन का कारण पूछा । तब दुर्योधन ने भगवान श्रीकृष्ण से हँसते हुए से-कहा। माधव ! ( पाण्डवों के साथ हमारा ) जो युद्ध होने वाला है, उसमें आप मुझे सहायता दें आपकी मेरे तथा अर्जुन के साथ एक सी मित्रता है एवं हम लोगों का आपके साथ सम्बन्ध भी समान ही है और मधुसूदन ! आज मै ही आपके पास पहले आया हूं । पूर्वपूरूषो के सदाचार अनुसरण करने वाले श्रेष्ठ पुरूष पहले आये हुए प्रार्थी की सहायता करते है । जर्नादन ! आप इस समय संसार के सत्यपुरुषों में सबसे श्रेष्ठ है और सभी सर्वदा आपको सम्मान दष्टि से देखते है । अतः आप सत्यपुरुषों कें ही आचार का पालन करें।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-राजन ! इसमें संदेह नहि कि आप ही मेरे यहाँ पहले आये है, परंतु मैने पहले कुन्तीनन्दन अर्जुन को ही देखा। सुयोधन ! आप पहले आये है और अर्जुन को मैन पहले देखा है;इसलिये मै दोनों की सहायता करूँगा। शास्त्र की आज्ञा है कि पहले बालकों ही उनकी अभीष्ठ वस्तु देनी चाहिये;अतः अवस्था मेे छोटे होने के कारण पहले कुन्ती पुत्र अर्जुन ही अपनी अभीष्ट वस्तु पाने के अधिकारी है। मेरे पास दस करोड़ गोपो की विशाल सेना है जो सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीरवाले है । उन सबकी ‘ नारायण ‘ संज्ञा है । वे सभी युद्ध में डटकर लोहा लेने वाले है। एक और तो वे दुर्घर्ष सैनिक युद्ध के लिये उद्यत रहेंगे और दूसरी ओर से अकेला मै रहूँगा;परंतु मै ना तो युद्ध करूँगा और न कोई शस्त्र ही धारण करूँगा। अर्जुन ! इन दोनों में से कोई वस्तु, जो तुम्हारे मन को अधिक प्रिय ज्ञान पडे, तुम पहले चुन लो;क्योंकि धर्म के अनुसार पहले तुम्हे ही अपनी मनचाही वस्तु चुनने का अधिकार है ॥२॰॥ वैशमपायनजी कहते है--राजन ! श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर कुन्तीकुमार धंनजयने संग्राम भूमि में युद्ध न करने वाले उन भगवान श्रीकृष्ण को ही ( अपना सहायक ) चुना, जो साक्षात् शत्रुहन्ता नारायण है अजन्मा होते हुए भी स्वेच्छा से देवता, दानव तथा समस्त क्षत्रियों के सम्मुख मनुष्यों अवतीर्ण हुए है। जनमेजय ! तब दुर्योधन वह सारी सेना माँग ली, जो अनेक सह्स्त्र टोलियों में संगठित थी । उन योद्धाओं को पाकर और श्रीकृष्ण को ठगा गया समझकर राजा दुर्योधन बड़ी प्रसन्नता हुई। उसका बल भयंकर था । वह सारी सेनो लेकर महाबली राहिणी नन्दन बलरामजी के पास गया और उसने उन्हें अपने आने का सरा कारण बताया। तब शूरवंशी बलरामजी धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन को इस प्रकार उत्तर दिया।
बलदेवजी बोले-पुरूषसिंह ! पहले राजा विराट के यहाँ विवाहोत्सव के अवसर पर मैने जो कुछ कहा था, वह सब तुम्हे माळूम हो गया होगा। कुरूनन्दन ! तुम्हारे लिये मैने श्रीकृष्ण को बाध्य करके कहा था कि हमारे साथ दोनों पक्षो का समान रूप से सम्बन्ध है ! राजन् ! मैने यह बात बार-बार दुहरायी, परंतु श्रीकृष्ण-को जँची नहीं और मै श्रीकृष्ण को छोड़कर एक छड़ भी अन्यत्र कहीं ठहर नहीं सकता। अतः मै श्रीकृष्ण की ओर देखकर म नहीं मन इस निश्चय पर पहुँचा हूँ कि मै न तो अर्जुन की सहायता करूँगा और न दुर्योधन की ही। पुरूषत्न ! तुम समस्त राजाओंद्वारा सम्मानित भरत वंश में उत्पन्न हुए हो । जाओ, क्षत्रिय-धर्म के अनुसार युद्ध करो।
वैशम्पायनजी कहते है--जनमेजय ! बलभद्र जी के ऐसा कहने पर दुर्योधन उन्हें हृदय और श्रीकृष्ण को ठगा गया जानकर युद्ध से अपनी निश्चित विजय समझ ली। तदन्र धृतराष्ट्र राजा दुर्योधन कृतवर्मा के पास गया कृतवर्मा नें एक उसे अक्षोहिणी सेना दी। उस सारी भंयकर सेना के द्वारा घिरा हुआ कुरूनन्दन दुर्योधन अपने सुहृदो का हर्ष बढ़ता हुआ बड़ी प्रसन्नता के साथ हस्तिनापुर को लौट गया। दुर्योधन चले जाने पर पीताम्बरी जगत्सृष्टा जर्नादन
श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा--भवार्थ ! मै तो युद्ध करूँगा नहीं; फिर तुमने क्या सोच-समझकर मुझे चुना है।
अर्जुन वोले-भगवन ! आप अकेले ही उन सबको नष्ट करने समर्थ है, इसमें तनिक भी संशय नहीं है । पुरुषोंम ! (आपकी ही कृपा से) मै भी अकेला ही उन सब शत्रुओं क संघार करने में समर्थ हूँ। परंतु आप संसारो में यशस्वी हैं । आप जहाँ भी रहेगे, यह यश आपका ही अनुसरण करेगा। मुझे भी यश की इच्छा है ही, इसीलिये मैने आपका वरण किय है। मेरे मन में बहुत दिनों से वह अभिलाषा थी कि आपको अपना सारथि बनाऊँ अपने जीवन भर की बागडोर आपके हाथों सौप दूँ । मेरी इसचिरकालिक अभिलाषाको आप पूर्ण करे। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-पार्थ ! तुम जो ( शत्रुओ- पर विजय पाने में ) मेरे साथ स्पर्धा रखते हो, तुम्हारे लिये ठीक ही है । तुम्हारा सारध्य करूँगा । तुम्हारा यह मनोरथ पूर्ण हो।
वैशम्पायनजी कहते है--जनमेजय ! इस प्रकार ( अपनी इच्छा पूर्ण होने से ) प्रसन्न हुए अर्जुन श्रीकृष्ण के सहित मुख्य-मुख्य दशार्हवंशी यादवों से घिरे हुए पुनः युधिष्ठिर के पास आये।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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