महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 137 श्लोक 1-19
सैत्तीसवाँ अध्याय: उद्योगपर्व (सेनोद्योग पर्व)
कुंती का पांडवों के लिए संदेश देना और श्रीकृष्ण का उनसे विदा लेकर उप्पलव्य नगर में जाना कुंती बोली – केशव ! तुम अर्जुन से जाकर कहना, तुम्हारे जनम के समय जब मैं नारियों से घिरी हुई आश्रम के सूतिकागार में बैठी थी, उसी समय आकाश में यह दिव्यरूपा मनोरम वाणी सुनाई दी – कुंती ! तेरा यह पुत्र इन्द्र के समान पराक्रमी होगा। यह भीमसेन के साथ रहकर युद्ध में आए हुए समस्त कौरवों को जीत लेगा और शत्रु-समुदाय को व्याकुल कर देगा। तेरा यह पुत्र भगवान् श्रीकृष्ण के साथ रहकर इस भूमंडल को जीत लेगा, इसका यश स्वर्गलोक तक फैल जाएगा और यह संग्राम में विपक्षी कौरवों को मारकर अपने पैतृक राज्य-भाग का पुनरुद्धार करेगा । यह शोभासंपन्न बालक अपने भाइयों के साथ तीन अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान करेगा'। अच्युत ! सव्यसाची अर्जुन जैसा सत्यप्रतिज्ञ है तथा उसमें जितना बल एवं दुर्जेय शक्ति है, उसे तुम्ही जानते हो। दशार्हकुलनंदन श्रीकृष्ण ! आकाशवाणी ने जैसा कहा है, वैसा ही हो, यही मेरी भी इच्छा है । वृष्णिनन्दन ! यदि धर्म की सत्ता है तो वह सब उसी रूप में सत्य होगा। श्रीकृष्ण ! तुम स्वयं भी वह सब कुछ उसी रूप में पूर्ण करोगे । आकाशवाणी ने जैसा कहा है, उसमें मैं किसी दोष की उद्भावना नहीं करती हूँ। मैं तो उस महान धर्म को नमस्कार करती हूँ, क्योंकि धर्म ही समस्त प्रजा को धारण करता है । तुम अर्जुन से तथा युद्ध के लिए सदा उद्यत रहनेवाले भीमसेन से भी जाकर कहना – क्षत्राणी जिसके लिए पुत्र को जन्म देती है, उसका यह उपयुक्त अवसर आ गया है । श्रेष्ठ मनुष्य किसी से वैर ठन जाने पर उत्साहहीन नहीं होते। शत्रुदमन श्रीकृष्ण ! तुम्हें भीमसेन का विचार तो सदा से ज्ञात ही है, वह जब तक शत्रुओं का अंत नहीं कर लेगा, तब तक शांत नहीं होग। माधव ! श्रीकृष्ण ! तुम सब धर्मों को विशेष रूप से जानने वाली महात्मा पांडु की पुत्रवधू कल्याणमयी, यशस्विनी द्रौपदी से कहना– बेटी ! तू परम सौभाग्यशाली यशस्वी कुल में उत्पन्न हुई है । तूने मेरे सभी पुत्रों के साथ जो धर्मानुसार यथोचित बर्ताव किया है, वह तेरे ही योग्य है'। पुरुषोत्तम ! तदनंतर क्षत्रिय धर्म में तत्पर रहने वाले दोनों माद्रीकुमारों से भी मेरा यह संदेश कहना – वीरों ! तुम प्राणों की बाजी लगाकर भी अपने पराक्रम से प्राप्त हुए भोगों का ही उपभोग करो । क्षत्रिय धर्म से निर्वाह करनेवाले मनुष्य के मन को पराक्रम द्वारा प्राप्त किए हुए पदार्थ ही सदा संतुष्ट रखते हैं। पांडवों ! सब प्रकार से धर्म की वृद्धि करने वाले तुम सब लोगों के देखते-देखते पाञ्चाल राजकुमारी द्रौपदी को जो कटुवचन सुनाये गए हैं, उन्हें कौन वीर क्षमा कर सकता है ? श्रीकृष्ण ! मुझे राज्य छिन जाने का उतना दु:ख नहीं है । जुए में हारने और पुत्रों के वनवास होने का भी मेरे मन में उतना महान दु:ख नहीं है, परंतु भरी सभा में मेरी सुंदरी युवती पुत्रवधू द्रौपदी ने रोते हुए जो दुर्योधन के कटुवचन सुने थे, वही मेरे लिए महान दु:ख का कारण बन गया है। क्षत्रियधर्म में सदा तत्पर रहने वाली मेरी सर्वांगसुंदरी सती-साध्वी बहू कृष्णा उन दिनों राजस्वलावस्था में थी । वह सब प्रकार से सनाथ थी, तो भी उस दिन कौरवासभा में उसे कोई रक्षक नहीं मिला ( वह अनाथ सी रोती हुई अपमान सह रही थी )। महाबहो ! समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ पुरुषसिंह अर्जुन से कहना कि तुम द्रौपदी के इच्छित पथ पर चलो। श्रीकृष्ण ! तुम तो अच्छी तरह जानते ही हो कि भीमसेन और अर्जुन कुपित हो जाएँ तो वे यमराज तथा अंत के समान भयंकर हो जाते हैं और देवताओं को भी यमलोक पहुंचा सकते हैं। जुए के समय द्रौपदी को जो सभा में जाना पड़ा और कौरव वीरों के सामने ही दुर्योधन और दु:शासन ने जो उसे गालियां दीं , वह सब भीमसेन और अर्जुन का ही तिरस्कार है । मैं पुन: उसकी याद दिला देती हूँ। जनार्दन ! तुम मेरी ओर से द्रौपदी और पुत्रों सहित पांडवों से कुशल पूछना और फिर मुझे भी सकुशल बताना । जाओ, तुम्हारा मार्ग मंगलमय हो, मेरे पुत्रों की रक्षा करना। वैशम्पायनजी कहते हैं– जनमजेय ! तदनंतर महाबाहु श्रीकृष्ण ने कुंती देवी को प्रणाम करके उनकी परिक्रमा भी की और फिर सिंह के समान मस्तानी चाल से वहाँ से निकल गए। फिर भीष्म आदि प्रधान कुरुवंशियों को उन्होनें विदा कर दिया और कर्ण को रथ पर बैठाकर सात्यकि के साथ वहाँ से प्रस्थान किया। दशार्हकुलभूषण श्रीकृष्ण के चले जाने पर सब कौरव आपस में मिलें और उनके अत्यंत अद्भुत एवं महान आश्चर्यजनक बल-वैभव की चर्चा करने लगे। वे बोले– यह सारी पृथ्वी मृत्युपाश में आबद्ध हो मोहाच्छ्न्न हो गई है । जान पड़ता है, दुर्योधन की मूर्खता से इसका विनाश हो जाएगा। उधर पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण जब नगर से निकलकर उपप्ल्व्य की ओर चले, तब उन्होनें दीर्घकाल तक कर्ण के साथ मंत्रणा की। फिर राधानन्दन कर्ण को विदा करके सम्पूर्ण यदुकुल को आनंदित करनेवाले श्रीकृष्ण ने तुरंत ही बड़े वेग से अपने रथ के घोड़े हँकवाये। दारुक के हाँकने पर वे महान् वेगशाली अश्व मन और वायु के समान तीव्र गति से आकाश को पीते हुए से चले। उन्होनें शीघ्रगामी बाज पक्षी की भांति उस विशाल पथ को तुरंत ही तय कर लिया और शाद्ङ्गधनुष धारण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण को उपप्ल्व्य नगर में पहुंचा दिया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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