तेतालीसवाँ अध्याय: उद्योगपर्व (सेनोद्योग पर्व)
महाभारत उद्योगपर्व: तेतालीसवाँ अध्याय: श्लोक 1- 33 का हिन्दी अनुवाद
कर्ण के द्वारा पाण्डवों की विजय और कौरवों की पराजय सूचित करने वाले लक्षणों एवं अपने स्वपन का वर्णन
संजय कहते हैं- राजन् ! भगवान् केशव का वह हितकर एवं कल्याणकारी वचन सुनकर कर्ण मधुसूदन श्रीकृष्ण के प्रति सम्मान का भाव प्रदर्शित करते हुए इस प्रकार बोला। महाबाहो ! आप सब कुछ जानते हुए, भी मुझे मोहमें क्यों डालना चाहते है ? यह जो इस भूतलका पूर्णरूपसे विनाश उपस्थित हुआ है, उसमें मैं, शकुनि, दु:शासन तथा धृतराष्ट्र पुत्र राजा दुर्योधन निमितमात्र हुए हैं। ‘श्रीकृष्ण ! इसमें संदेह नहीं कि कौरवों और पाण्डवों का यह बड़ा भयंकर युद्ध उपस्थित हुआ है, जो रक्त की कीच मचा देनेवाला है। दुर्योधनकेवशमें रहनेवाले जो राजा और राजकुमार है, वे रणभूमिमें अस्त्र-शस्त्रों की आग से जलकर निश्चय ही यमलोकमें जा पहुँचेंगे। मधुसूदन ! मुझे बहुत से भयंकर स्वप्न दिखायी देते है । घोर अपशकुन तथा अत्यन्त दारूण उत्पात दृष्टिगोचर होते है। वृष्णिनन्दन ! वे रोंगटे खड़े कर देनेवाले विविध उत्पात मानो दुर्योधन की पराजय और युधिष्ठिरकी विजय घोषित करते है। महातेजस्वी एवं तीक्ष्ण ग्रह शनैश्रर प्रजापति सम्बन्धी रोहिणी नक्षत्र को पीड़ित करते हुए जगत के प्राणियों को अधिक से अधिक पीड़ा दे रहे हैं। मधुसूदन ! मंगल ग्रह ज्येष्ठाके निकट से वक्रगतिका आश्रय ले अनुराधा नक्षत्रपर आना चाहते हैं । जो राज्यस्थ राजा के मित्रमण्डलका विनाश-सा सूचित कर रहें हैं। वृष्णिनन्दन श्रीकृष्ण ! निश्चय ही कौरवों पर महान भय उपस्थित हुआ हैं । विशेषत: ‘महापात’ नामक ग्रह चित्राको पीड़ा दे रहा है (जो राजाओं के विनाश का सूचक है)। चन्द्रमाका कलंक (काला चिह्र) मिट-सा गया है, राहु सूर्यके समीप जा रहा है । आकाशसे ये उल्काएँगिर रही हैं,वज्रपातके-से शब्द हो रहे हैं और धरती डोलती सी जान पड़ती है। ‘माधव ! गजराज परस्पर टकराते और विकृत शब्द करते हैं ।घोड़े नेत्रोंसे आंसू बहा रहे हैं । वे घास और पानी भी प्रसन्नतापूर्वक नहीं ग्रहण करते हैं। महाबाहों ! कहते हैं, इन निर्मितों (उत्पातसूचक लक्षणों) के प्रकट होनेपर प्राणियोंके विनाश करने वाले दारूण भयकी उपस्थिति होती हैं। केशव ! हाथी, घोड़े तथा मनुष्य भोजन तो थोड़ा ही करते है; परंतु उनके पेट से मल अधिक निकलता देखा जाता है। मधुसूदन ! दुर्योधनकी समस्त सेनाओंमें ये बातें पायी जाती है । मनीषी पुरूष इन्हें पराजयका लक्षण कहते है। श्रीकृष्ण ! पाण्डवोंके वाहन प्रसन्न बताये जाते हैं और मृग उनके दाहिनेसे जाते देखे जाते हैं; यह लक्षण उनकी विजय का सूचक है। केशव ! सभी मृग दुर्योधन के बाँयेंसे निकलते हैं और उसे प्राय: ऐसी वाणी सुनायी देती हैं, जिसके बोलनेवाले का शरीर नही दिखायी देता । यह उसकी पराजय का चिह्र है। ‘मोर’शुभ शकुन सूचित करनेवाले मुर्गे, हंस, सारस, चातक तथा चकोरों के समुदाय पाण्डवोंका अनुसरण करते है। इसी प्रकार गीध, कक, बक, श्येन (बाज), राक्षस,भेड़िये तथा मक्खियोंके समूह कौरवों के पीछे दौड़ते हैं। दुर्योधन की सेनाओंमें बजानेपर भी भेरियोंके शब्द प्रकट नही होते हैं और पाण्डवोंके डंके बिना बजाये ही बज उठते है। दुर्योधनकी सेनाओं मे कुएँ आदि जलाशय गाय-बैलोंके समान शब्द करते है । यह उसकी पराजयका लक्षण है। माधव ! बादल आकाश से मांस और रक्त की वर्षा करते हैं । अन्तरिक्ष में चहारदिवारी,खाई, वप्र और सुन्दर फाटकोंसहित सूर्ययुक्त गन्धर्वनगर प्रकट दिखायी देता है । वहाँ सूर्य को चारों ओरसे घेरकर एक काला परिघ प्रकट होता है। सूर्योदय और सूर्यास्त दोनों संध्याओंके समय एक गीदड़ी महान भय की सूचना देती हुई भयंकर आवाज में रोती है । यह भी कौरवोंकी पराजय का लक्षण है। मधुसूदन ! एक पाँख, एक आँख और एक पैर वाले पक्षी अत्यन्त भयंकर शब्द करते है । यह भी कौरवपक्ष की पराजय का ही लक्षण है। संध्याकालमें काली ग्रीवा और लाल पैरवाले भयानक पक्षी सामने आ जाते हैं, वह भी पराजय का ही चिह्र है। मधुसूदन ! दुर्योधन पहले ब्राह्राणोंसे द्वेष करता है;फिर गुरूजनोंसे तथा अपने प्रति भक्ति रखनेवाले भृत्योंसे भी द्रोह करने लगता है, यह उसकी पराजय का ही लक्षण है। श्रीकृष्ण ! पूर्व दिशा लाल,दिशा शस्त्रों के समान रंगवाली (काली), पश्चिम दिशा मिटटी के कच्चे बर्तनोंकी भाँति मटमैली तथा उत्तर दिशा शंख के समान श्वेत दिखायी देती है । इस प्रकार ये दिशाओं के पृथक-पृथक वर्ण बताये गये हैं। माधव !दुर्योधन को इन उत्पातों का दर्शन तो होता ही है । उसके लिये सारी दिशाएँ भी प्रज्वलित-सी होकर महान भयकी सूचना दे रही हैं। अच्युत ! मैंने स्वप्नके अन्तिम भाग में युधिष्ठिरको एक हजार खंभों वाले महल पर भाइयों सहित चढ़ते देखा हैं। उन सबके सिरपर सफेद पगड़ी और अंगोंमे श्वेत वस्त्र शोभित दिखायी दिये हैं । मैंने उन सबके आसनों को भी श्वेत वर्ण का ही देखा है। जनार्दन ! श्रीकृष्ण ! मैंने स्वप्न के अन्त में आपकी इस पृथ्वी को भी रक्त से मलिन और आंतसे लिपटी हुई देखा है। ‘मैंने स्वप्न मे देखा, अमित तेजस्वी युधिष्ठिर सफेद हड्डियों के ढेर पर बैठे हुए हैं और सोने के पात्र में रक्खी हुई घृतमिश्रित खीर को बड़ी प्रसन्नता के साथ खा रहे हैं।
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के एक सौ तेतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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