अड़त्तीसवाँ अध्याय: उद्योगपर्व (सेनोद्योग पर्व)
महाभारत उद्योगपर्व: अड़त्तीसवाँ अध्याय: श्लोक 1- 36 का हिन्दी अनुवाद
द्रोणाचार्य, विदुर तथा गान्धारी के युक्तियुक्त एवं महत्तवपूर्ण वचनों का भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा कथन
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—राजन ! तुम्हारा कल्याण हो। भीष्मजी की बात समाप्त होने पर प्रवचन करने में समर्थ द्रोणाचार्य ने राजाओं के बीच में दुर्योधन से इस प्रकार कहा-तात ! जैसे प्रतीपपुत्र शान्तनु इस कुलकी भलाई में ही लगे रहे, जैसे देवव्रत भीष्म इस कुलकी वृद्धि के लिए ही यहां स्थित हैं, उसी प्रकार सत्यप्रतिज्ञ एवं जितेन्द्रिय राजा पाण्डु भी रहे हैं। वे कुरूकुलके राजा होते हुए भी सदा धर्म में ही मन लगाये रहते थे। वे उत्तम व्रत के पालक तथा चित्त को एकाग्र रखने वाले थे। कुरूवंश की वृद्धि करनेवाले पाण्डु ने अपने बडे़ भाई बुद्धिमान धृतराष्ट्र को तथा छोटे भाई विदुर को अपना राज्य धरोहर रूप से दिया। राजन ! कुरूकुलरत्न पाण्डु ने अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होनेवाले धृतराष्ट्र को सिंहासन पर बिठाकर स्वयं अपनी दोनों स्त्रियों के साथ वनको प्रस्थान किया था। तदन्तर पुरूषसिंह विदुर सेवक की भांति नीचे खडे़ होकर चंवर डुलाते हुए विनीतभाव से धृतराष्ट्र की सेवा में रहने लगे। तात ! तदनन्तर सारी प्रजा जैसे राजा पाण्डु के अनुगत रहती थी, उसी प्रकार विधिपूर्वक राजा धृतराष्ट्र के अधीन रहने लगी। इस प्रकार शत्रुओं की राजधानी पर विजय पानेवाले पाण्डु विदुरसहित धृतराष्ट्र को अपना राज्य सौंपकर सारी पृथ्वी पर विचरने लगे। सत्यप्रतिज्ञ विदुर कोष को संभालने, दान देने, भृत्यवर्ग की देख-भाल करने तथा सबके भरण-पोषण के कार्य में संलग्न रहते थे। शत्रु नगरी को जीतनेवाले महातेजस्वी भीष्म संधि-विग्रह के कार्य में संयुक्त हो राजाओं से सेवा और कर आदि लेने का काम संभालते थे। महाबली राजा धृतराष्ट्र केवल सिंहासन पर बैठे रहते और महात्मा विदुर सदा उनकी सेवा में उपस्थित रहते थे। उन्हीं के वंश में उत्पन्न होकर तुम इस कुल में फूट क्यों डालते हो १ राजन् ! भाइयों के साथ मिलकर मनोवांच्छित भोगों का उपभोग करो। नृपश्रेष्ठ मैं दीनता से या धन पाने के लिये किसी प्रकार कोई बात नहीं कहता हूं। मैं भीष्म का दिया हुआ पाना चाहता हूं, तुम्हारा दिया नही। जनेश्वर ! मैं तुमसे कोई जिविका का साधन प्राप्त करने की इच्छा नहीं करूंगा। जहां भीष्म हैं, वहीं द्रोण हैं। जो भीष्म कहते हैं, उसका पालन करो। शत्रुसूदन ! तुम पाण्डवों का आधा राज्य दे दो। तात ! मेरा यह आचार्यत्व तुम्हारे और पाण्डवों के लिये सदा समान है। मेरे लिये जैसा अश्वत्थामा है वैसा ही श्वेत घोडोंवाला अर्जुन भी है । अधिक बकवाद करने से क्या लाभ? जहां धर्म है, उसी पक्षकी विजय निश्चित है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- महाराज ! अमित-तेजस्वी द्रोणाचार्यके इस प्रकार कहनेपर सत्यप्रतिज्ञ धर्मज्ञ विदुरने ज्येष्ठ पिता भीष्म की ओर घूमकर उनके मुँहकी ओर देखते हुए इस प्रकार कहा। विदुर बोले—देवव्रतजी ! मेरी यह बात सुनिये । यह कौरववंश नष्ट हो चला था, जिसका आपने पुन: उद्धार किया था। मैं भी उसी वंशकी रक्षा के लिये विलाप कर रहा हूँ; परंतु न जाने क्यों आप मेरे कथनकी उपेक्षा कर रहा हैं; मैं पूछता हूँ, यह कुलांगार दुर्योधन इस कुलका कौन है? जिसके लोभके वशीभूत होनेपर भी आप उसकी बुद्धिका अनुसरण कर रहे हैं। लोभने इसकी विवेकशक्ति हर ली है। इसकी बुद्धि दूषित हो गयी है तथा यह पूरा अनार्य बन गया है। यह शास्त्र की आज्ञा का तो उल्लंघन करता ही है। धर्म और अर्थपर दृष्टि रखनेवाले अपने पिताकी भी बात नहीं मानता है। निश्चय ही एकमात्र दुर्योधन के कारण ये समस्त कौरव नष्ट हो रहे हैं । महाराज ! ऐसा कोई उपाय कीजिये, जिससे इनका नाश न हो । महामते ! जैसे चित्रकार किसी चित्रको बनाकर एक जगह रख देता है, उसी प्रकार आपने मुझको और धृतराष्ट्र को पहले से ही निकम्मा बनाकर रख दिया है। महाबाहो ! जैसे प्रजापति प्रजा की सृष्टि करके पुन: उसका संहार करते हैं, उसी प्रकार आप भी अपने कुलका विनाश देखकर उसकी उपेक्षा न कीजिये। यदि इन दिनों विनाशकाल उपस्थित होनेके कारण आपकी बुद्धि नष्ट हो गयी हो तो मेरे और धृतराष्ट्र के साथ वन में पधारिये। अथवा जिसकी बुद्धि सदा छल-कपट में लगी रहती है उस परम दुर्बद्धि धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन को शीघ्र ही बाँधकर पाण्डवोंद्वारा सुरक्षित इस राज्य का शासन कीजिये। नृपश्रेष्ठ ! प्रसन्न होइये । पाण्डव,कौरवों तथा अमित-तेजस्वी राजाओं का महान विनाश दृष्टिगोचर हो रहा है। ऐसा कहकर दीनचित्त विदुरजी चुप हो गये और विशेष चिन्ता में मग्न होकर उस समय बार-बार लंबी साँसें खींचने लगे। तदनन्तर राजा सुबलकी पुत्री गान्धारी अपने कुलके विनाशसे भयभीत हो क्रूरस्वभाववाले पापबुद्धि पुत्र दुर्योधन के समस्त राजाओं के समक्ष क्रोधपूर्वक यह धर्म और अर्थसे युक्त बचन बोली-जो-जो राजा, महर्षि तथा अन्य सभासद इस राजसभा के भीतर आये हैं, वे सब लोग मन्त्री और सेवकोंसहित तुझ पापी दुर्योधन के अपराधोंको सुनें । मैं वर्णन करती हूँ।’हमारे यहाँ परम्परा से चला आनेवाला कुलधर्म यही है कि यह कुरूराज्य पूर्व-पूर्व अधिकारी के क्रम से उपभोगमें आवे (अर्थात पहले पिताके अधिकार में रहे, फिर पुत्रके, पिताके जीते-जी पुत्र का राज्यका अधिकारी नहीं हो सकता); परन्तु अत्यन्त क्रूर कर्म करनेवाले पापबुद्धि दुर्योधन ! तू अपने अन्याय से इस कौरवराज्यका विनाश कर रहा है। इस राज्यपर अधिकारी के रूप में परम बुद्धिमान धृतराष्ट्र और उनके छोटे भाई दूरदर्शी विदुर स्थापित किये गये थे । दुर्योधन ! इन दोनों का उल्लघंन करके तू आज मोहवंश अपना प्रभुत्व कैसे जमाना चाहता है। राजा धृतराष्ट्र और विदुर- ये दोनों महानुभाव भी भीष्म के जीते-जी पराधीन ही रहेंगे(भीष्म के रहते इन्हें राज्य लेने का कोई अधिकार नहीं है); परंतु धर्मज्ञ होने के कारण ये नरश्रेष्ठ महात्मा गंगानन्दन राज्य लेनेकी इच्छा ही नहीं रखते हैं। वास्तव में यह दुर्धर्ष राज्य महाराज पाण्डुका है। उन्हीं के पुत्र इसके अधिकारी हो सकते हैं, दूसरे नहीं। अत: यह सारा राज्य पाण्डवों का है ; क्योंकि बाप-दादों का राज्य पुत्र-पोत्रों के पास ही जाता है। कुरूकुल के श्रेष्ठ पुरूष सत्यप्रतिज्ञ एवं बुद्धिमान महात्मा देवव्रत जो कुछ कहते हैं, उसे राज्य और स्वधर्म का पालन करनेवाले हम सब लोगों को बिना काट-छांट किये पूर्णरूप से मान लेना चाहिये। अथवा इन महान् व्रतधारी भीष्मजी की आज्ञासे यह राजा धृतराष्ट्र तथा विदुर भी इस विष्य में कुछ कह सकते हैं सुदीर्घ्कालतक पालन करना चाहिये। ’कौरवों के इस न्यायत: प्राप्त राज्य का धर्मपुत्र तथा शान्तनुनन्दन भीष्मसे कर्तव्यकी शिक्षा लेते युधिष्ठिर ही शासन करें और वे राजा धृतराष्ट्र रहें।
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत भगवाद्यानपर्व में श्रीकृष्णवाक्यविषयक एक सौ अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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