महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 136 श्लोक 1-14

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छत्तीसवाँ अध्‍याय: उद्योगपर्व (सेनोद्योग पर्व)

महाभारत उद्योगपर्व: छत्तीसवाँ अध्याय: श्लोक 1- 22 का हिन्दी अनुवाद

विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध के लिए उद्यत होना माता बोली – पुत्र ! कैसी भी आपत्ति क्यूँ न आ जाए, राजा को कभी भयभीत होना या घबराना नहीं चाहिए । यदि वह डरा हुआ हो तो भी डरे हुए के समान कोई बर्ताव न करे। राजा को भयभीत देखकर उसके पाक्स के सभी लोग भयभीत हो जाते हैं । राज्य कि प्रजा, सेना और मंत्री भी उससे भिन्न विचार रखने लगते हैं। उनमें से कुछ लोग तो उस राजा के शत्रुओं कि शरण में चले जाते हैं, दूसरे लोग उसका त्यागमात्र कर देते हैं और कुछ लोग जो पहले राजा द्वारा अपमानित हुए होते हैं, वे उस अवस्था में उसके ऊपर प्रहार करने की भी इच्छा कर लेते हैं। जो लोग अत्यंत सुहृद होते हैं, वे ही उस संकट के समय उस राजा के पास रह जाते हैं, परंतु वे भी असमर्थ होने के कारण बंधे हुए बछड़ेवाली गाय की भाँति कुछ कर नहीं पाते, केवल मन-ही-मन उसकी मंगलकामना करते रहते हैं। जो विपत्ति की अवस्था में शोक करते हुए राजा के साथ-साथ स्वयं भी वैसे ही शोकमग्न हो जाते हैं, मानो उनके कोई सगे भाई-बंधु विपन्न हो गए हैं, क्या ऐसे ही लोगों को तूने सुहृद माना है ? क्या तूने भी पहले ऐसे सुहृदो का सम्मान किया है ? जो संकट में पड़े राजा के राज्य को अपना ही मानकर उसकी तथा राजा के राज्य को अपना ही मानकर उसकी तथा राज्य की रक्षा के लिए कृतसंकल्प होते हैं, ऐसे सुहृदों को तू कभी अपने से विलग न कर और वे भी भयभीत अवस्था में तेरा परित्याग न करें। मैं तेरे प्रभाव, पुरुषार्थ और बुद्धि-बल को जानना चाहती थी, अत: तुझे आश्वासन देते हुए तेरे तेज (उत्साह) की वृद्धि के लिए मैंने उपर्युक्त बातें कही है। संजय ! यदि मैं यह सब ठीक कह रही हूँ और यदि तू भी मेरी इन बातों को ठीक समझ रहा है तो अपने आप को उग्र सा बनाकर विजय के लिए उठ खड़ा हो। अभी हम लोगों के पास बड़ा भारी खजाना है जिसका तुझे पता नहीं है, उसे मैं ही जानती हूँ, दूसरा नहीं । वह खजाना मैं तुझे सौंपती हूँ। वीर संजय ! अभी तो तेरे सैकड़ों सुहृद हैं । वे सभी सुख-दु:ख को सहन करनेवाले तथा युद्ध से पीछे न हटनेवाले हैं। शत्रुसूदन ! जो पुरुष अपनी उन्नति चाहता है और शत्रु के हाथ से अपनी अभीष्ट संपत्ति को हर लाना चाहता है उसके सहायक और मंत्री पूर्वोक्त गुणों से युक्त सुहृद हुआ करते हैं। कुंती बोली - श्रीकृष्ण ! संजय का हृदय यद्यपि बहुत दुर्बल था तो भी विदुला का वह विचित्र अर्थ, पद और अक्षरों से युक्त वचन सुनकर उसका तमोगुण जनित भाय और विषाद भाग गया। पुत्र बोला – माँ ! मेरा यह राज्य शत्रुरूपी जल में डूब गया, है अब मुझे इसका उद्धार करना है, नहीं तो युद्ध में शत्रुओं का सामना करते हुए अपने प्राणों का विसर्जन कर देना है, जब मुझे भावी वैभव का दर्शन कराने वाली तुझ जैसी संचालिका प्राप्त है, तब मुझ में ऐसा साहस होना ही चाहिए। मैं बराबर तेरी नयी-नयी बातें सुनना चाहता था । इसलिए बारबार बीच-बीच में कुछ-कुछ बोलकर फिर मौन हो जाता था। तेरे ये अमृत के समान वचन बड़ी कठिनाई से सुनने को मिले थे । उन्हें सुनकर मैं तृप्त नहीं होता था । यह देखो, अब में शत्रुओं का दमन और विजय की प्राप्ति करने के लिए बंधु-बांधवों के साथ उद्योग कर रहा हूँ। कुंती कहती है - श्रीकृष्ण ! माता के वाग्बाणों से बिंधकर और तिरस्कृत होकर चाबुक की मार खाये हुए अच्छे घोड़ों के समान संजय ने माता के उस समस्त उपदेश को यथावत रूप से पालन किया। यह उत्तम उपाख्यान वीरों के लिए अत्यंत उत्साहवर्धक और कायरों के लिए भयंकर है । यदि कोई राजा शत्रु से पीड़ित होकर दुखी एवं हताश हो रहा हो तो मंत्री को चाहिए कि उसे यह प्रसंग सुनाए। यह जय नामक इतिहास है । विजय की इच्छा रखने वाले पुरुष को इसका श्रवण करना चाहिए । इसे सुनकर युद्ध में जाने वाला राजा शीघ्र ही पृथ्वी पर विजय पाता और शत्रुओं को रौंद डालता है। यह आख्यान पुत्र की प्राप्ति कराने वाला है तथा साधारण पुरुष में वीर भाव उत्पन्न करने वाला है । यदि गर्भवती स्त्री इसे बारंबार सुने तो वह निश्चय ही वीर पुत्र को जन्म देती है। इसे सुनकर प्रत्येक क्षत्राणी विद्याशूर, तप:शूर, दानशूर, तपस्वी, ब्राह्मी शोभा से सम्पन्न, साधुवाद के योग्य, तेजस्वी, बलवान्, परम सौभाग्यशाली, महारथी, धैर्यवान, दुर्धर्ष विजयी, किसी से भी पराजित न होने वाला, दुष्टों का दमन करने वाला, धर्मात्माओं के रक्षक तथा सत्या-पराक्रमी वीर पुत्र को उत्पन्न करती है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में विदुला के द्वारा पुत्र को दिये जानेवाले उपदेश की समाप्ति विषयक एक सौ छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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