महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 15 श्लोक 1-20

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १०:४०, १ जुलाई २०१५ का अवतरण
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

पंद्रहवाँ अध्‍याय: उद्योगपर्व (सेनोद्योग पर्व)

महाभारत उद्योगपर्व: पंद्रहवाँ अध्याय: श्लोक 1- 33 का हिन्दी अनुवाद


शल्य कहते है-युधिष्ठिर ! शचीदेवी के ऐसा कहने पर भगवान इन्द्र ने पुनः उनसे कहा-देवि ! यह पराक्रम करने का समय नहीं है । आजकल नहुष बहुत बलवान् हो गया है। भामिनि ! ऋषियो ने हव्य और कव्य देकर उसकी शक्ति बहुत बढ़ा दिया है । अतः मै यहाँ नीति से काम लूँगा ! देवि तुम उसी नीति का पालन करो। शुभे ! तुम्हे गुप्तरूप से यह कार्य करना है । कहीं ( भी इसे ) प्रकट न करना । सुमध्य ! तुम एकान्त में नहुष के पास जाकर कहांे, जगतपत्ये ! आप दिव्य ऋषियानपर बैठकर मेरे पास आइये । ऐसा होने पर मै प्रसन्नता पूर्वक आपके वश में हो जाऊँगी। देवराज के इस प्रकार आदेश देने पर कमल नयनी पत्नी शची एवमवस्तु कहकर नहुष के पास गयी। उन्हें देखकर नहुष मुसकाया और इस प्रकार बोला-वरारोहे ! तुम्हारा स्वागत है । शुचिस्म्तिे ! कहो तुम्हारी क्या सेवा करूँ ॥६॥कल्याणि ! मै तुम्हारा भक्त हूँ, मुझे स्वीकार करो । मनस्विनि ! तुम क्या चाहती हो? सुमध्य ! तुम्हारा जो भी कार्य होगा, उसे मै सिद्ध करूँगा। सुश्रोणि ! तुम्हे मुझसे लज्जा नहीं करनी चाहिये । मुझ पर विश्वास करो । देवि ! मै सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ, तुम्हारी प्रत्येक आज्ञा का पालन करूँगा।

इन्द्राणी बोली-जगत्पते ! आपके साथ जो मेरी शर्त हो चुकी है, उसे मै पूर्ण करना चाहती हूँ । सूरेश्वर ! फिर तो आप ही मेरे पति होगें। देवराज ! मेरे हृदय में एक कार्य की अभिलाषा है, उसे बताती हूँ सुनिये राजन ! यदि आप मेरे इस प्रिय कार्य को पूर्ण कर देगे, प्रेमपूर्वक कही हुई मेरी यह बात मान लेगे तो मै आपके अधीन हो जाऊँगी सुरेश्वर ! पहले जो इन्द्र थे, उनके वाहन हाथी, घोडे़ तथा रथ आदि रहे है, परंतु आपका वाहन उनसे सर्वथा विलक्षण-अपूर्व हो, ऐसी मेरी इच्छा है । वह वाहन ऐसा होना चाहिये, जो भगवान विष्णु, रूद्र, असुर तथा राक्षसों के भी उपयोग में न आया हो। प्रभो महाभाग सप्तर्षि एकत्र होकर शिविका द्वारा आपका वहन करे । राजन् ! यही मुझे अच्छा लगता है। आप अपने पराक्रम से तथा दृष्टिपात करने मात्र से सबका तेज हर लेते है । देवताओं तथा असुरो में कोई भी आपकी समानता करने वाला नहीं है । कोई कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, आपके सामने ठहर नहीं सकता है।

शल्य कहते है-युधिष्ठिर ! इन्द्राणि ऐसा करने पर देवराज नहुष बड़े प्रसन्न हुए और उस सती साध्वी देवी से इस प्रकार बोले ॥१५॥नहषु ने कहा-सुन्दरि ! तुमने तो यह अपूर्व वाहन बताया । देवि ! मुझे भी वही सवारी अधिक पसंद है । सुमुखि ! मै तुम्हारे वश में हूँ। जो ऋषियों को भी अपना वाहन बना सके उस पुरूष में थोड़ी शक्ति नहीं होती है । मै तपस्वी, बलवान् तथा भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों का स्वामी हूँ। मेरे कुपित होने पर यह संसार मिट जायेगा ! मुझ पर ही सब कुछ टिका हुआ है । शचिस्मिते ! यदि मै क्रोध में भर जाऊँ तो यह देवता, दानव, गन्धर्व, किन्नर, नाग राक्षस और सम्पूर्ण लोक मेरा सामना नहीं कर सकते है । मै अपनी आँख से जिसको देख लेता हूँ, उसका तेज हर लेता हूँ। अतः देवि ! मै तुम्हारी आज्ञा का पालन करूँगा, इसमें संशय नहीं है । सम्पूर्ण सप्तर्षि और ब्रह्मर्षि मेरी पालकी ढोयेगे । वरर्णिनि ! मेरे महात्मा तथा समृद्धि को तुम प्रत्यक्ष देख लो।

शल्य कहते है-राजन ! सुन्दर मुखवाली शची देवी से ऐसा कहकर नहुष ने उन्‍हें विदा कर दिया और यम नियम का पालन करने वाले बडे़-बडे ऋषि-मुनियो का अपमान करके अपनी पालकी में जोत दिया । वह ब्राह्मण द्रोही नरेश बल पाकर उन्मत हो गया था । मद और बल से गर्वित हो स्वेच्छाचारी नहुष ने उन महर्षियों को अपना वाहन बनाया। उधर नहुष से विदा लेकर इन्द्राणी बृहस्पिति के यहाँ गयी और इस प्रकार बोली-देवगुररू ! नहुष ने मेरे लिये जो समय निश्चित किया है, उसमें थोडा ही शेष रह गया है। देवि ! तुम दुष्टात्मा नहुष से डरो मत ! यह नराधम अब अधिक समय तक यहाँ ठहर नहीं सकेगा । इसे गया हुआ ही समझो। शुभे ! यह पापी धर्म को नहीं जानता । अतः महर्षियों को अपना वाहन बनाने के कारण शीघ्र नीचे गीरेगा । इसके सिवा मै भी इस दर्बुधि नहुष के विनाश के लिये एक यज्ञ करूँगा । साथ ही इन्द्र का भी पता लगाऊँगा । तुम डरो मत तुम्हारा कल्याण होगा। तदन्तर महातेजस्वी बहस्पति ने देवराज की प्राप्ति के लिये विधि पूर्वक अग्नि को प्रज्वलित करके उसमें उत्‍तम हविष्य आहुति दी । राजन ! अग्नि में आहुति देकर उन्होंने अग्निदेव से कहा-आप इन्द्रदेव का पता लगाइये। उस हवन कुण्ड से साक्षात भगवान अग्निदेव प्रकट होकर अ˜ुत स्त्रीवेष धारण करके वहीं अन्तर्धान हो। गयेमन के समान तीव्र गतिवाले अग्निदेव सम्पूर्ण दिशाओं, विदिशाओं, पर्वतो और वनों तथा भूतल और अकाश में भी इन्द्र की खोज करके पलभर में बहस्पिति के पास लौट आये।

अग्निदेव बोले-वृहस्पते ! मे देवराज को तो इस संसार में कहीं नहीं देख रहा हूँ, केवल जल शेष रह गया है, जहाँ उनकी खोज नहीं की है । परन्तु मै कभी भी जल में प्रवेश करने का साहस नहीं कर सकता। ब्रह्मन् ! जल में मेरी गति नहीं है । इसके सिवा तुम्हारा दूसरा कौन कार्य मै कार्य मै करूँ १ तब देवगुरू ने कहा-महाद्युते ! आप जल में भी प्रवेश कीजिये। अग्निदेव बोले-मै जल में नहीं प्रवेश कर सकूँगा;क्योंकि उसमें मेरा विनास हो जायेगा ! महातेजस्वी बृहस्पते ! मै तुम्हारी शरण में आया हूँ । तुम्हारा कल्याण हो । ( मुझे जल में जाने लिये न कहो )

इस प्रकार श्रीमहाभारत के उद्योगपर्व के अन्तर्गत सेनोद्योगपर्व में पुरोहित प्रस्थान विषयक पंन्द्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख