एक सौ चौवालिसवाँ अध्याय: उद्योगपर्व (सेनोद्योग पर्व)
महाभारत उद्योगपर्व: एक सौ चौवालिसवाँ अध्याय: श्लोक 1- 31 का हिन्दी अनुवाद
विदुर की बात सुनकर युद्ध के भावी दुष्परिणाम से व्यथित हुई कुन्ती का बहु सोच विचार के बाद कर्ण के पास जाना
वैशम्पायनजी कहते हैं – जनमेजय! जब श्रीकृष्ण का अनुभव असफल हो गया और वे कौरवों के यहाँ से पाण्डवों के पास चले गये, तब विदुरजी कुन्तीके पास जाकर शोकमग्न से हो धीरे-धीरे इस प्रकार बोले-चिरंजीवी पुत्रों को जन्म देनेवाली देवि ! तुम तो जानती ही हो कि मेरी इच्छा सदा से यही रही है कि कौरवों और पाण्डवों में युद्ध न हो । इसके लिये मैं पुकार-पुकारकर कहता रह गया; परंतु दुर्योधन मेरी बात मानता ही नहीं है। राजा युधिष्ठिर चेदि, पांचाल तथा केकयदेश के वीर सैनिकगण, भीमसेन, अर्जुन, श्रीकृष्ण, सात्यकि तथा नकुल-सहदेव आदि श्रेष्ठ सहायकों से सम्पन्न हैं। वे युद्धके लिये उद्यत हो उपप्लव्य नगर में छावनी डालकर बैठे हुए हैं, तथापि भाई-बन्धुओं के सौहार्दवश धर्म ही आकांक्षा रखते हैं। बलवान होकर भी दुर्बल की भाँति संधि करना चाहते हैं। यह राजा धृतराष्ट्र बूढे हो जानेपर भी शान्त नहीं हो रहे हैं । पुत्रोंके मद से उन्मत्त् हो अधर्म के मार्ग पर ही चलते हैं। जयद्रथ, कर्ण, दु:शासन तथा शकुनि की खोटी बुद्धि से कौरव-पाण्डवों में परस्पर फूट ही रहेगी। (कौरवों ने चौदहवें वर्ष में पाण्डवों को राज्य लौटा देने की प्रतिज्ञा करके भी उसका पालन नहीं किया।) जिन्हें ऐसा अधर्मजनित कार्य भी, जो परस्पर बिगाड़ करनेवाला है, धर्मसंगत प्रतीत होता है, उनका यह विकृत धर्म सफल होकर ही रहेगा ( अधर्मका फल है दु:ख और विनाश। वह उन्हें प्राप्त होगा ही)। कौरवों द्वारा धर्म मानकर किये जानेवाले इस बलात्कार से किसको चिन्ता नहीं होगी। भगवान श्रीकृष्ण संधि के प्रयत्न में असफल होकर गये हैं अत: पाण्डव भी अब युद्ध के लिये महान उद्योग करेंगे। इस प्रकार यह कौरवों का अन्याय समस्त वीरों का विनाश करनेवाला होगा इन सब बातों को सोचते हुए मुझे न तो दिन में नींद आती है और न रातमें ही। विदुरजी ने उभय पक्षके हितकी इच्छा से ही यह बात कही थी । इसे सुनकर कुन्ती दु:ख से आतुर हो उठी और लम्बी साँस खींचती हुई मन-ही-मन इस प्रकार विचार करने लगी-अहो ! इस धन को धिक्कार है, जिसके लिये परस्पर बन्धु-बान्धवों का यह महान संहार किया जानेवाला है।इस युद्ध में अपने सगे-सम्बन्धियों का भी पराभव होगा ही। पाण्डव, चेदि, पांचाल और चादव एकत्र होकर भरतवंशियों साथ युद्ध करेंगे, इससे बढ़कर दु:ख की बात और क्या हो सकती है। युद्ध निश्चय ही मुझे बडा भारी दोष दिखायी देता है; परंतु युद्ध न होने पर भी पाण्डवों का पराभव स्पष्ट है। निर्धन होकर मृत्यु को वरण कर लेना अच्छा है। परंतु बन्धु-बान्धवों का विनाश करके विजय पाना कदापि अच्छा नहीं है। 'यह सब सोकर मेरे हृदय में बडा दु:ख हो रहा है। शान्तनुनन्दन पितामह भीष्म, योद्धाओं में श्रेष्ठ आचार्य द्रोण तथा कर्ण भी दुर्योधन के लिये ही युद्धभूमि में उतरेंगे; अत: ये मेरे भयकी ही वृद्धि कर रहे हैं। आचार्य द्रोण तो सदा हमारे हित की इच्छा रखने वाले हैं वे अपने शिष्यों के साथ कभी युद्ध नहीं कर सकते । इसी प्रकार पितामह भीष्म भी पाण्डवों के प्रति हार्दिक स्नेह कैसे नहीं रखेंगें। परंतु यह एक साथ मिथ्यादर्शी कर्ण मोहवश सदा दुर्बद्धि दुर्योधन का ही अनुसरण करनेवाला है। इसीलिये यह पापात्मा सर्वदा पाण्डवों से द्वेषही रखता है। परंतुयह एक मात्र मिथ्यादर्शी कर्ण मोहवश सदा दुर्बुद्धि दुर्योधन का ही अनुसरण करनेवाला है। इसीलिये यह पापात्मा सर्वदा पाण्डवों से द्वेष ही रखता है। इसने सदा पाण्डवों का बडा भारी अनर्थ करने के लिये हठ ठान लिया है। साथ ही कर्ण अत्यन्त बलवान भी है। यह बात इस समय मेरे हृदय को दग्ध किये देती है। अच्छा, आज मैं कर्णके मन को पाण्डवों के प्रति प्रसन्न करने के लिये उसके पास जाऊँगी और यथार्थ सम्बन्ध परिचय देती हुई उससे बातचीत करूँगी। जब मैं पिता के घर रहती थी, उन्हीं दिनों अपनी सेवाओं द्वारा मैंने भगवान दुर्वासा को संतुष्ट किया और उन्होंने मुझे यह वर दिया कि मन्त्रोच्चारणपूर्वक आवाहन करनेपर मैं किसी भी देवता को अपने पास बुला सकती हूँ । मेरे पिता कुन्तिभोज मेरा बडा आदर करते थे। मैं राजा के अन्त:पुर में रहकर व्यथित ह्रदय मन्त्रों के बलाबल और ब्राह्माण की वाक्शक्ति के विषय में अनेक प्रकार का विचार करने लगी। स्त्री–स्वभाव और वाल्यावस्था के कारण मैं बार-बार इस प्रश्न को लेकर चिन्तामग्न रहने लगी। उन दिनों एक विश्वस्त धाय मेरी रक्षा करती थी और सखियाँ मुझे सदा घेरे रहती थी। मैं अपने ऊपर आनेवाले सब प्रकार के दोषों का निवारण करती हुई पिताकी दृष्टि में अपने सदाचार की रक्षा करती रहती थी। मैंने सोचा, क्या करूँ, जिससे मुझे पुण्य हो और मैं अपराधिनी न होऊँ। यह सोचकर मैंने मन-ही-मन उन ब्राह्मण देवता को नमस्कार किया और उस मन्त्र को पाकर कौतूहल तथा अविवेक के कारण मैंने उसका प्रयोग आरम्भ कर दिया। उसका परिणाम यह हुआ कि कन्यावस्था में ही मुझे भगवान सूर्यदेव का संयोग प्राप्त हुआ। जो मेरा कानीन गर्भ है, इसे मैंने पुत्र की भाँति अपने उदर में पाला है। वह कर्ण अपने भाईयों के हित के लिये कही हुई बात मेरी लाभदायक बात क्यों नहीं मानेगा। इस प्रकार उत्तम कर्तव्य का निश्चय करके अभीष्ट प्रयोजन की सिद्धि के लिये एक निर्णयपर पहुँचकर कुन्तीभागीरथी गंगा के तटपर गयी।वहाँ गंगा किनारे पहुँचकर कुन्ती अपने दयालु और सत्यपरायण पुत्र कर्ण के मुख से वेदपाठ की गम्भीर ध्वनि सुनी। वह अपनी दोनों वाँहे ऊपर उठाकर पूर्वाभिमुख हो जप कर रहा था और तपस्विनी कुन्ती उसके जपकी समाप्ति की प्रतीक्षा करती हुई कार्यवश उसके पीछे ओर खड़ी रही। व्रष्णिकुलनन्दिनी पाण्डुपत्नी कुन्ती वहाँ सूर्यदेव के तापसे पीड़ित हो कुम्हलाती हुई कमलमाला के समान कर्ण के उत्तरीय वस्त्र की छाया में खडी हो गयी। जबतक सूर्यदेव पीठ की ओर ताप न देने लगे (जब तक वे पूर्व से पश्चिम की ओर चले नहीं गये); तब तक जप करके नियमपूर्वक व्रत का पालन करनेवाला कर्ण जब पीछे की ओर घूमा, तब तक कुन्ती को सामने पाकर उसने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और उनके पास खड़ा हो गया। धर्मात्माओं में श्रेष्ठ, अभिमानी और महातेजस्वी सूर्यपुत्र कर्ण जिसका दूसरा नाम वृष भी था, कुन्ती को यथाचित रीति से प्रणाम करके मुस्कराता हुआ बोला।
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत भगवाधान पर्व में कुन्ती और कर्ण की भेंट विषयक एक सौ चौवालिसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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