एक सौ इकसठवाँ अध्याय: उद्योगपर्व (उलूकदूतागमनपर्व)
महाभारत: उद्योगपर्व: एक सौ इकसठवाँ अध्याय: श्लोक 30-43 का हिन्दी अनुवाद
गदाधारी भीमसेन अथवा गाण्डीवधारी अर्जुनसे भी उस समय सती साध्वी द्रौपदीका सहारा लिये बिना तुमलोगोंका दासभावसे उद्धार न हो सका। तुम सब लोग अनुष्योचित दीन दशाको प्राप्त हो दासभावमें स्थित थे। उस समय द्रुपदकुमारी कृष्णाने ही दासताके संकट में पडे़ हुए तुम सब लोगोंको छुडाया था। मैंने जो उन दिनों तुमलोगोंको हिजडा या नपुंसक कहा था, वह ठीक ही निकला; क्योंकि अज्ञातवासके समय विराटनगरमें अर्जुनको अपने सिरपर स्त्रियोंकी भांति वेणी धारण करनी पडी। कुन्तीकुमार ! तुम्हारे भाई भीमसेनको राजा विराटके रसोईघरमें रसोइये के काममें ही संलग्न रहकर जो भारी श्रम उठाना पडा, वह सब मेरा ही पुरूषार्थ है। इसी प्रकार सदासे ही क्षत्रियोंने अपने विरोधी क्षत्रियको दण्ड दिया है। इसीलिये तुम्हें भी सिरपर वेणी रखाकर और हिजडोंका वेष बनाकर राजा विराट की कन्याको नचाने का काम करना पडा। फाल्गुन ! श्रीकृष्णके या तुम्हारे भयसे मैं राज्य नहीं लौटाऊँगा । तुम श्रीकृष्णके साथ आकर युद्ध करो। माया, इन्द्रजाल अथवा भयानक छलना संग्रामभूमिमें हथियार उठाये हुए वीरके क्रोध और सिंहनाद को ही बढती हैं (उसे भयभीत नहीं कर सकती हैं)। हजारों श्रीकृष्ण और सैंकडों अर्जुन भी अमोघ बाणों वाले मुझ वीरके पास आकर दसों दिशाओंमें भाग जायेंगे। तुम भीष्मके साथ युद्ध करो या सिरसे पहाड़ फोडो या सैनिकोंके अत्यन्त गहरे महासागरको दोनों बाँहोंसे तैरकर पार करो। हमारे सैन्यरूपी महासमुद्रमें कृपाचार्य महामत्स्यके समान हैं, विविंशति उसे भीतर रहने वाला महान सर्प है, वृहद्बल उसके भीतर उठनेवाले महान ज्वारके समान है, भूरिश्रवा तिमिंगल नामक मत्स्यके स्थानमें है।भीष्म उसे असीम वेग है, द्रोणाचार्यरूपी ग्राहके होनेसे इस सैन्यसागर में प्रवेश करना अत्यन्त दुष्कर है, कर्ण और शल्य क्रमश: मत्स्य तथा आवर्त (भंवर) का काम करते हैं और काम्बोजराज सुदक्षिण इसमें बडबानल हैं। दु:शासन उसके तीव्र प्रवाहके समान है, शल और शल्य मत्स्य है, सुषेण और चित्रायुध नाग और मकरके समान हैं, जयद्रथ पर्वत है, पुरूमित्र उसकी गम्भीरता है, दुर्मर्षण जल है और शकुनि प्रपात (झरने) का काम देता है। भांति-भांतिके शस्त्र इस सैन्यसागर के जल प्रवाह है। यह अक्षय होनेके साथ ही खूब बढा हुआ है। इसमें प्रवेश करनेपर अधिक श्रमके कारण जब तुम्हारी चेतना नष्ट हो जायेगी, तुम्हारे समस्त बन्धु मार दिये जायेंगे, उस समय तुम्हारे मनको बढ़ा संताप होगा। पार्थ ! जैसे अपवित्र मनुष्यका मन स्वर्गकी ओरसे निवृत्त हो जाता है (क्योंकि उसके लिये स्वर्गकी प्राप्ति असम्भव है), उसी प्रकार तुम्हारा मन भी उस समय इस पृथ्वीपर राज्यशासन करनेसे निराश होकर निवृत्त जायेगा । अर्जुन! शान्त होकर बैठ जाओ। राज्य तुम्हारे लिये अत्यन्त दुर्लभ है। जिसने तपस्या नहीं की है, वह जैसे स्वर्गपाना चाहे, उसी प्रकार तुमने भी राज्यकी अभिलाषा की है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत उलूकदूतागमनपर्व उलूकवाक्यविषयक एक सौ इकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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