महाभारत आदि पर्व अध्याय 3 श्लोक 17-32

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तृतीय अध्‍याय: आदिपर्व (पौष्यपर्व)

महाभारत: आदिपर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 28- 51 का हिन्दी अनुवाद

उपाध्याय का यह वचन सुनकर आरूणि पांचाल सहसा उस क्यारी की मेड़ से उठा और उपाध्याय के समीप आकर खड़ा हो गया। फिर उनसे विनय पूर्वक बेाला ‘भगवान ! मैं यहां हूँ। क्यारी की टूटी हुई मेड़ से निकलते हुए अनिवार्य जल को रोकने के लिये स्वयं ही यहाँ लेट गया था। इस समय आपकी आवाज सुनते ही सहसा उस मेड़ को विदीर्ण करके आपके पास आ खड़ा हुआ। ‘मैं आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ, आप आज्ञा दीजिये, मैं कौन सा कार्य करूँ?’ आरूणि के ऐसा करने पर उपाध्याय ने उत्तर दिया-‘तुम क्यारी के मेड़ को विद्रीर्ण करके उठे हो, अतः इस उददलन कर्म के कारण उददालम नाम से ही प्रसिद्ध होओगे।’ ऐसा कहकर उपाध्याय ने आरूणि को अनुगृहीत किया। साथ ही यह भी कहा कि, तुमने मेरी आज्ञा का पालन किया है, इसलिये तुम कल्याण के भागी होओगे। सम्पूर्ण वेद और समस्त धर्मशास्त्र तुम्हारी बुद्धि में स्वयं प्रकाशित हो जायेंगे’। उपाध्याय के इस प्रकार आशीर्वाद देने पर आरूणि कृत- कृत्य हो अपने अभीष्ट देश को चला गया। उन्हीं आयोदधौम्य उपाध्याय का उपमन्यु नामक दूसरा शिष्य था। उसे उपाध्याय ने आदेश दिया, 'वत्स उपमन्यु ! तुम गौओं की रक्षा करो।' उपाध्याय की आज्ञा से उपमन्यु गौओं की रक्षा करने लगा। वह दिन भर गौओं की रक्षा में रहकर संध्या के समय गुरू जी के घर पर आता और उनके सामने खड़ा हो नमस्कार करता। उपाध्याय ने देखा उपमन्यु खूब मोटा- ताजा हो रहा है, तब उन्होंने पूछा-‘बेटा उपमन्यु ! तुम कैसे जीविका चलाते हो, जिससे इतने अधिक हृष्ट पुष्‍ट हो रहे हो ?’ उसने उपाध्याय से कहा- 'गुरूदेव ! मैं भिक्षा से जीवन निर्वाह करता हूँ।' यह सुनकर उपाध्याय उपमन्यु से बोले- ‘मुझे अर्पण किये बिना तुम्हें भिक्षा का अन्न अपने उपयोग में नहीं लाना चाहिये।’ उपमन्यु ने बहुत अच्छा’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली। अब वह भिक्षा लाकर उपध्याय को अर्पण करने लगा। उपाध्याय उपमन्यु से सारी भिक्षा ले लेते थे। उपमन्यु ‘तथास्तु’ कहकर पुनः पूर्ववत गौओं की रक्षा करता रहा। वह दिनभर गौओं की रक्षा में रहता और (संध्या के समय) पुनः गुरू के घर पर आकर गुरू के सामने खड़ा हो नमस्कार करता था। उस दशा में भी उपमन्यु को पूर्ववत हृष्ठ-पुष्ट ही देखकर उपाध्याय ने पूछा- ‘बेटा उपमन्यु ! तुम्हारी सारी भिक्षा तो मैं ले लेता हूँ, फिर तुम इस समय कैसे जीवन निर्वाह करते हो1।' उपाध्याय के ऐसा कहने पर उपमन्यु ने उन्हें उत्तर दिया ‘भगवान ! पहले की लायी हुई भिक्षा आपको अर्पित करके अपने लिये दूसरी भिक्षा लाता हूँ और उसी से अपनी जीविका चलाता हूँ’।यह सुनकर उपाध्याय ने कहां - यह न्यायशुक्त्त एवं श्रेष्ठवृत्ति नहीं है। तुम ऐसा करके दूसरे भिक्षा- जीवी लोगों की जीविका में बाधा डालते हो अतः तुम लोभी हो (तुम्हें दुबारा भिक्षा नहीं लानी चाहिये।)।' उसने ‘तथास्तु’ कहकर गुरू की आज्ञा मान ली और पूर्ववत गौओं की रक्षा करने लगा। एक दिन गायें चराकर वह फिर (सायंकाल को) उपाध्याय के घर आया और उनके सामने खड़े होकर उसने नमस्कार किया। उपाध्याय ने उसे फिर भी मोटा- ताजा ही देखकर पूछ ‘बेटा उपमन्यु ! मैं तुम्हारी सारी भिक्षा ले लेता हूँ और अब तुम दुबारा भिक्षा भी नहीं माँगते, फिर भी बहुत मोटे हो। आजकल कैसे खाना- पीना चलाते हो?’ इस प्रकार पूछने पर उपमन्यु ने उपाध्याय को उत्‍तर दिया-‘भगवन ! मैं इन गौओं के दूध से जीवन निर्वाह करता हूँ।’ (यह सुनकर) उपाध्याय ने उससे कहा- ‘मैंने तुम्हें दूध पीने की आज्ञा नहीं दी है, अतः इन गौओं के दूध का उपयोग करना तुम्हारे लिये अनुचित है।' उपमन्यु ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर दूध न पीने की भी प्रतिाज्ञा कर ली और पूर्ववत गोपालन करता रहा। एक दिन गोचारण के पश्चात वह पुनः उपाध्याय के घर आया और उनके सामने खड़े होकर उसने नमस्कार किया। उपाध्याय ने अब भी उसे हृष्ट- पुष्ट ही देखकर पूछा ‘बेटा उपमन्यु ! तुम भिक्षा का अन्न नहीं खाते, दुबारा भिक्षा ‘नहीं माँगते और गौओं का दूध भी नहीं पिते; फिर भी बहुत मोटे हो। इस समय कैसे निर्वाह करते हो ?’ इस प्रकार पूछने पर उसने उपाध्याय को उत्तर दिया- ‘भगवन ! ये बछड़े अपनी माताओं के स्तनों का दूध पीते समय जो फेन उगल देते हैं, उसी को पी लेता हूँ। यह सुनकर उपाध्याय ने कहा-‘ये बछड़े उत्तम गुणों से युक्त हैं, अतः तुम पर दया करके बहुत- सा फेन उगल देते होंगे। इसलिये तुम फेन पीकर तो इन सभी बछड़ों की जीविका में बाधा उपस्थित करते हो, अतः आज से फेन भी न पिया करो।’ उपमन्यु ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसे न पीने की प्रतिज्ञा कर ली और पूर्ववत गौओं की रक्षा करने लगा। इस प्रकार मना करने पर उपमन्यु न तो भिन्न अन्न खाता, न दुबारा भिक्षा लाता, न गौओं का दूध पीता और न बछड़ों के फेन को ही उपयोग में लाता था (अब वह भूखा रहने लगा) । एक दिन वन में भूख से पीडि़त होकर उसने आक के पत्ते चबा लिये। आक के पत्त खारे, तीखे, कड़वे और रूखे होते हैं। उनका परिणाम तीक्ष्ण होता है (पाचनकाल में वे पेट के अन्दर आग की ज्वाला सी उठा देते हैं )। अतः उनको खाने से उपमन्यु की आँखो की ज्योति नष्ट हो गयी। वह अन्धा हो गय। अन्धा होने पर भी वह इधर‌- उधर घूमता रहा; अतः कुएँ में गिर पड़ा।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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