महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 134 श्लोक 18-33

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एक सौ चौंतीसवाँ अध्‍याय: उद्योगपर्व (सेनोद्योग पर्व)

महाभारत: उद्योगपर्व: एक सौ चौंतीसवाँ अध्याय: श्लोक 23- 41 का हिन्दी अनुवाद
एक शत्रु का वध करने से ही शूरवीर पुरुष सम्पूर्ण विश्व में विख्यात हो जाता है । देवराज इन्द्र केवल वृत्रासुर का वध करके ही ‘महेंद्र’ नाम से प्रसिद्ध हो गए । उन्हें रहने के लिए इन्द्र भवन प्राप्त हुआ और वे तीनों लोकों के अधीश्वर हो गए। वीर पुरुष युद्ध में अपना नाम सुनाकर, कवचधारी शत्रुओं को ललकारकर, सेना के अग्रभाग को खदेड़कर अथवा शत्रुपक्ष के किसी श्रेष्ठ पुरुष का वध करके जभी उत्तम युद्ध के द्वारा महान् यश को प्राप्त कर लेता है, तभी उसके शत्रु व्यथित होते और उसके सामने मस्तक झुकाते हैं। कायर मनुष्य विवश हो युद्ध में अपने शरीर का त्याग करके युद्धकुशल शूरवीर को सम्पूर्ण मनोरथों की पूर्ति करनेवाली अपनी समृद्धियों के द्वारा तृप्त करते हैं। जिसका भयानक रूप से पतन हुआ है, वह राज्य प्राप्त हो जाय या जीवन ही संकट में पड़ जाये, किसी भी दशा में अपने हाथ में आए हुए शत्रु को श्रेष्ठ पुरुष शेष नहीं रहने देते हैं ॥ युद्ध को स्वर्गद्वार के सदृश उत्तम गति अथवा अमृत के सदृश राज्य की प्राप्ति का एकमात्र मार्ग मानकर तू जलते हुए काठ की भांति शत्रुओं पर टूट पड़। राजन् ! तू युद्ध में शत्रुओं को मार और अपने धर्म का पालन कर । शत्रुओं का भय बढ़ानेवाले तुझ वीर पुत्र को मैं अत्यंत दीन और कायर के रूप में न देखूँ। मैं तुझे दीन से भी दीन के समान दयनीय अवस्था में पड़ा हुआ तथा शोकमग्न हुए अपने पक्ष के और गर्जन-तर्जन करते हुए शत्रुपक्ष के लोगों से घिरा हुआ नहीं देखना चाहती। तू सौवीर देश की कन्याओं (अपनी पत्नियों) के साथ हर्ष का अनुभव कर । पहले की भांति अपने धन की अधिकता के लिए गर्व कर । विपत्ति में पड़कर सिंधुदेशीय (शत्रु देश की) कन्याओं के वश में न हो जा।  तू रूप, यौवन, विद्या और कुलीनता से सम्पन्न है, यशस्वी तथा लोक में विख्यात है । तुझ जैसा वीर पुरुष यदि पराक्रम के अवसर पर डर जाय, भार ढोने के समय बिना नथे हुए बैल के समान बैठ रहे या भाग जाय तो मैं इसे तेरा मरण ही समझती हूँ। यदि मैं यह देखूँ कि तू शत्रु से मीठी-मीठी बातें करता तथा उसके पीछे-पीछे जाता है तो मेरे हृदय में क्या शांति मिलेगी ? इस कुल में कभी कोई ऐसा पुरुष नहीं उत्पन्न हुआ, जो दूसरे के पीछे-पीछे चला हो । तात ! तू दूसरे का सेवक होकर जीवित रहने के योग्य नहीं है। स्वयं विधाता ने जिसकी सृष्टि की है, प्राचीन और अत्यंत प्राचीन पुरुषों ने जिसका वर्णन किया है, परवर्ती और अतिपरवर्ती सत्पुरुष जिसका वर्णन करेंगे तथा जो चिरंतन एवं अविनाशी है, उस सनातन और उत्तम क्षत्रिय-हृदय को मैं जानती हूँ। इस जगत में जो कोई भी क्षत्रिय उत्पन्न हुआ है और क्षत्रिय धर्म को जानने वाला है, वह भय से अथवा आजीविका की ओर दृष्टि रखकर भी किसी के सामने नतमस्तक नहीं हो सकता। सदा उद्यम करे, किसी के आगे सिर न झुकावे । उद्यम ही पुरुषार्थ है । असमय में नष्ट भले ही हो जाये, परंतु किसी के आगे नतमस्तक न हो। संजय ! महामनस्वी क्षत्रिय मदमत्त हाथी के समान सर्वत्र निर्भय विचरण करे और सदा ब्राह्मणों को तथा धर्म को ही नमस्कार करे। क्षत्रिय ससहाय हो अथवा असहाय, वह अन्य वर्ण के लोगों को काबू में रखता और समस्त पापियों को दंड देता हुआ जीवनभर वैसा ही उद्यमशील बना रहे।
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में विदुला का अपने पुत्र को उपदेश विषयक एक सौ चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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