महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 11 श्लोक 1-26

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ग्यारहवाँ अध्‍याय: उद्योगपर्व (सेनोद्योग पर्व)

महाभारत उद्योगपर्व: ग्यारहवाँ अध्याय: श्लोक 1- 26 का हिन्दी अनुवाद

देवताओं तथा ऋिषियों के अनुरोध से राजा नहषु का इन्द्र के पद पर अभिषिक्त होना एवं काम भोग में आसक्त होना और चिन्ता में पड़ी हुई इन्द्राणी को बृहस्पति का आश्वासन

शल्य कहते है-युधिष्ठिर ! इस प्रकार (स्वर्ग में अराजकता हो जाने पर) ऋषियों ये जो श्रीमान् नहुष है, इन्ही को देवराज के पद पर अभिषिक्त किया जाय;क्योंकि ये तेजस्वी ,यशस्वी तथा नित्य निरन्तर धर्म में तत्पर रहने वाले है ऐसा निश्चय करके वे सब लोग राजा नहुष के, पास जाकर बोले-पृथिवीपतें ! आप हमारे राज होइये-राजन् ! तब नहषु पितरोसहित उन देवताओं तथा ऋषियों सं अपने हित की इच्छा से कहा-। मै तो दुर्बल हूँ, मुझमें आप लोगों की रक्षा करने की शक्ति नहीं है । बलवान् पुरूष ही राजा होता है । इन्द्र में ही बल की नित्य सŸाा है। यह सुनकर समपूर्ण देवता तथा ऋषि पुनः उनसे बोले-राजेन्द्र ! आप हमारी तपस्या से संयुक्त हो स्वर्ग के राज्य का पालन किजिये । हम लोगों में प्रत्येक को एक दूसरे से घोर भय बना रहता हे, इसमें संशय नहीं है । अतः आप अपना अभिषेक कराइये स्वर्ग के राजा होइये। देवता दनव, यक्ष ऋषि राक्षस, पितर गन्धर्व और भूत-जो भी आपके नेत्रो के सामने आ जायेगे, उन्हें देखते ही आप उनका तेज हर लेगे और बलवान हो जायेगे । अतः सदा धर्म को सामने रखते हुए आप सम्पूर्ण लोको के अधिपति होइये। स्वर्ग में रहकर ब्रह्मऋषियों तथा देवताओं का पालन कीजिये । युधिष्ठिर ! तरन्तर राजा नहुष स्वर्ग मेें इन्द्र के पद पर अभिषेक हुआ। धर्म को आगे रखकर उस समय राजा नहुष सम्पूर्ण लोको के अधिपति हो गये । वे परम दुर्लभ वर पाकर स्वग-राज्य को हस्तगत करके निरन्तर धर्मपरायण रहते हुए भी काम भोग में आसक्त हो गये। देवराज नहुष सम्पूर्ण देवो़द्यानं में, नन्दनवन के उपवनों में कैलाश में हिमालय के शिखर पर मन्दराचल, श्वेतगिरि, सहा्र महेन्द्र तथा मलय पर्वत पर एवं समुद्रों और सरिताओं में, अप्सराओं तथा देव कन्याओं के साथ भाँति-भाँति क्रीडाये करते थे, कानो और मन को आकर्षित करने वाली नाना प्रकार की दिव्य कथाएँ सुनते थे तथा सब प्रकार के वाद्यो और मधुर से गाये जाने वले गीतो का आनन्द लेते थे। विश्वासु, नारद गन्धर्वो और अप्सराओं के समुदाय तथा छहों ऋतुएँ शरीर धारण करके देवेन्द्र की सेवा में उपस्थित होती थीं। उनके लिये वायु मनोहर, सुखद, शीतल ओर सुगन्धित होकर बहते थे । इस प्रकार क्रीडा करते हुए दुरात्मा राजा नहुष की दृष्टि एक दिन देवराज इन्द्र की प्यारी महारानी शची पर पड़ी। उन्‍हें देखकर दुष्टात्मा नहुषने समस्त सभासदो से कहा-इन्द्र की महारानी शची मेरी सेवा में क्यों नहीं उपस्थित होती [१]मै देवताओं का इन्द्र हूँ और सम्पूर्ण लोगों का अधीश्वर हूँ । इजः शचीदेवी आज मेरे महल में शीघ्र पघारे।यह सुनकर शची देव मन ही मन बहुत दुखी हुई और बृहस्पति से बोली-ब्रह्मनृ ! मै आपकी शरण में आयी हूँ, आप नहुष रक्षा किजिये ! विप्रवर ! आप मुझसे कहा कहते है कि तुम समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न, देवराज इन्द्र प्राणवलभा, अत्यन्त मुखाभागिनी, सौभाग्यती, एक पतनी और पतिवत्रा हो। भगवान ! आपने पहले जौ वेसी बातें कही है, अपनी उन वाणियों को सत्य किजिये । देवगुरो ! आपके मुख से पहले कभी कोई व्यर्थ या असत्य वचन नहीं निकला है, अतः दिजश्रेष्ठ ! आपका यह पूर्वोक्त वचन भी सतय होना चाहिये। यह सुनकर बृहस्पति ने भय से व्याकुल हुई इन्द्राणी से कहा देवि ! मेने तुमसे जो कुछ कहा है, वह सब अवश्य सत्य होगा । तुम शीघ्र ही देवराज इन्द्र को यहात्र आया हुआ देखोगी । नहुष से तुम्हे डरना नहीं चाहिये । मै सच्ची बात कहता हूँ, थोडे ही दिनों में तुम्हे इन्द्र से मिला दूँगा। जब राजा नहुष ने सुना कि इन्द्राणी अगिंराज के पुत्र बहस्पति की शरण में गयी है, तब वे बहुत कुपित हुए।

इस प्रकार श्रीमहाभारत के उद्योगपर्व के अन्तर्गत सेनोद्योगपर्व में पुरोहित प्रस्थान विषयक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. टाइपिंग में रिफरेंस नहीं मिला

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