महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 129 श्लोक 19-35

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एक सौ उन्तीसवाँ अध्‍याय: उद्योगपर्व (सेनोद्योग पर्व)

महाभारत: उद्योगपर्व: एक सौ उन्तीसवाँ अध्याय: श्लोक 30- 54 का हिन्दी अनुवाद

जिसने अपनी इंद्रियों को वश में कर रखा है, मंत्रियों पर विजय पा ली है तथा जो अपराधियों को दण्ड प्रदान करता है, खूब सोच-समझकर कार्य करनेवाले उस धीर पुरुष की लक्ष्मी अत्यंत सेवा करती है। छोटे छिद्रवाले जाल से ढकी हुई दों मछलियों की भाँति ये काम और क्रोध भी शरीर के भीतर ही छिपे हुए है, जो मनुष्य के ज्ञान को नष्ट कर देते हैं। इन्हीं दोनों (काम और क्रोध) के द्वारा देवताओं ने स्वर्ग में जानेवाले पुरुष के लिए उस लोक का दरवाजा बंद कर रखा है । वीतराग पुरुष से डरकर ही देवताओं ने स्वर्गप्राप्ति के प्रतिबंधक काम और क्रोध की वृद्धि की है। ‘जो राजा काम, क्रोध, लोभ, दंभ और दर्प को अच्छी तरह जीतने की काला जानता है, वह इस पृथ्वी का शासन कर सकता है। ‘अत: अर्थ, धर्म तथा शत्रुओं का पराभव चाहनेवाले राजा को सदा अपनी इंद्रियों को काबू में रखने का प्रयत्न करना चाहिए। ‘जो राजा काम अथवा क्रोध से वशीभूत होकर स्वजनों या दूसरों के प्रति मिथ्या बर्ताव (कपट एवं अन्याययुक्त आचरण) करता है, उसके कोई सहायक नहीं होते हैं। ‘तात ! पांडव परस्पर संगठित होने के कारण एकीभूत हो गए हैं । वे परम ज्ञानी, शूरवीर तथा शत्रुसंहार में समर्थ हैं । तुम उनके साथ मिलकर सुखपूर्वक इस पृथ्वी का राज्य भोग सकोगे। ‘तात ! शांतनूनन्दन भीष्म तथा महारथी द्रोणाचार्य जैसा कह रहे हैं, वह सर्वथा सत्य है । वास्तव में श्रीकृष्ण और अर्जुन अजेय हैं। ‘अत: अनायास ही महान् कर्म करनेवाले महाबाहु भगवान् श्रीकृष्ण की शरण लो, क्योंकि भगवान् केशव प्रसन्न होने पर दोनों ही पक्षों को सुखी बना सकते हैं। ‘जो मनुष्य अपना भला चाहनेवाले ज्ञानी एवं विद्वान सुहृदों के शासन में नहीं रेहता – उनके उपदेश के अनुसार नहीं चलता, वह शत्रुओं का आनंद बढ़ानेवाला होता है। ‘तात ! युद्ध करने में कल्याण नहीं है । उससे धर्म और अर्थ की भी प्राप्ति नहीं हो सकती, फिर सुख तो मिल ही कैसे सकता है ? युद्ध में सदा विजय ही हो, यह भी निश्चित नहीं है; अत: उसमें मन न लगाओ। ‘शत्रुदमन ! महाप्राज्ञ ! आपस की फूट के भय से ही पितामाह भीष्म ने, तुम्हारे पिता ने और महाराज बाह्लिक ने भी पांडवों को राज्य का भाग प्रदान किया है। ‘उसी के देने का आज तुम यह प्रत्यक्ष फल देखते हो कि उन शूरवीर पांडवों द्वारा निष्कंटक बनाई हुई इस सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य भोग रहे हो।

शत्रुओं का दमन करनेवाले पुत्र ! यदि तुम अपने मंत्रियों सहित राज्य भोगना चाहते हो तो पांडवों को उनका यथोचित भाग - आधा राज्य दे दो। ‘भारत ! भूमंडल का आधा राज्य मंत्रियों सहित तुम्हारे जीवन निर्वाह के लिए पर्याप्त है । तुम सुहृदों की आज्ञा के अनुसार चलकर सुयश प्राप्त करोगे। ‘तात ! श्रीमान्, मनस्वी, बुद्धिमान तथा जितेंद्रिय पांडवों के साथ होनेवाला कलह तुम्हें महान् सुख से वंचित कर देगा। भरतश्रेष्ठ ! तुम पांडवों को उनका राज्यभाग देकर सुहृदों के बढ़ते हुए क्रोध को शांत कर दो और अपने राज्य का यथोचित रीति से शासन करते रहो। ‘बेटा ! पांडवों को जो तेरह वर्षों के लिए निर्वासित कर दिया गया, यही उनका महान् अपकार हुआ है । महामते ! तुम्हारे काम और क्रोध से इस अपकार की और भी वृद्धि हुई है । अब तुम संधि के द्वारा इसे शांत कर दो। ‘तुम जो कुंती के पुत्रों का धन हड़प लेना चाहते हो, ऐसा करने की तुम्हारी शक्ति नहीं है । क्रोध का दृढ़तापूर्वक धारण करनेवाला सूतपुत्र कर्ण तथा तुम्हारा भाई दु:शासन – ये दोनों भी ऐसा करने में समर्थ नहीं हैं। ‘जिस समय भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण तथा भीमसेन, अर्जुन और धृष्टध्युमन – ये अत्यंत कुपित होकर परस्पर युद्ध करेंगे, उस समय सारी प्रजा का विनाश अवश्यंभावी है। ‘तात ! तुम क्रोध के वशीभूत होकर समस्त कौरवों का वध न कराओ । तुम्हारे लिए इस सम्पूर्ण भूमंडल का विनाश न हो। ‘मूढ़ ! तुम जो यह समझ रहे हो कि भीष्म, द्रोण, और कृपाचार्य आदि अपनी पूरी शक्ति लगाकर मेरी ओर से युद्ध करेंगे, यह इस समय कदापि संभव नहीं है। ‘क्योंकि इन आत्मज्ञानी पुरुषों की दृष्टि में इस राज्य का पांडवों अथवा तुम लोगों के पास रहना समान ही है । इनके हृदय में दोनों के लिए एक-सा ही प्रेम और स्थान है तथा राज्य से भी बढ़कर ये धर्म को महत्व देते हैं। ‘इस राज्य का इन्होनें जो अन्न खाया है, उसके भाय से यद्यपि ये तुम्हारी ओर से लड़कर अपने प्राणों का परित्याग कर देंगे, तथापि राजा युधिष्ठिर की ओर कभी वक्र दृष्टि से नहीं देख सकेंगे। ‘तात भरतश्रेष्ठ ! इस संसार में केवल लोभ करने से किसी को धन की प्राप्ति होती नहीं दिखाई देती, अत: लोभ से कुछ सिद्ध होनेवाला नहीं है । तुम पांडवों के साथ संधि कर लो’।

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में गांधारी वाक्य विषयक एक सौ उन्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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