महाभारत आदि पर्व अध्याय 8 श्लोक 1-19
अष्टम अध्याय: आदिपर्व (पौलोमपर्व)
प्रवद्वराका जन्म, रूरू के साथ उसका वाक्यदान तथा विवाह के पहले ही साँप के काटने से प्रमद्वरा की मृत्यु
उग्रश्रवाजी कहते हैं—ब्रह्मन ! भृगुपुत्र च्यवन ने अपनी पत्नी सुकन्या के गर्भ से एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम प्रमति था। महात्मा प्रमति बड़े तेजस्वी थे। फिर प्रमति ने घृताची अप्सरा से रूरू नामक पुत्र उत्पन्न किया तथा रूरू के द्वारा प्रमद्वरा के गर्भ से शुनका का जन्म हुआ। महाभाग शौनक जी ! आप शुनक के ही पुत्र होने के कारण ‘शौनक’ कहलाते हैं। शुनक महान सत्वगुण से सम्पन्न तथा सम्पूर्ण भृगुवंश का आनन्द बढ़ाने वाले थे। वे जन्म लेते ही तीव्र तपस्या में संलग्न हो गये। इससे उनका अविचल यश सब और फैल गया। ब्रह्मन ! मैं महातेजस्वी रूरू के सम्पूर्ण चरित्र का विस्तारपूर्वक वर्णन करूँगा। वह सब का सब आप सुनिये। पूर्वकाल में स्थूलकेश नाम से विख्यात एक तप और विद्या से सम्पन्न महर्षि थे; जो समस्त प्राणियों के हित में लगे रहते थे। विप्रर्षे ! इन्हीं महर्षि के समय की बात है- गन्धर्वराज विश्वावसुने मेनका के गर्भ से एक सन्तान उत्पन्न की। भृगु नन्दन ! मेनका अप्सरा गन्धर्वराज द्वारा स्थापित किये हुए उस गर्भ को समय पूरा होने पर स्थूलकेश मुनि के आश्रम के निकट जन्म दिया। ब्रह्मन ! निर्दय और निर्लज्ज मेनका अप्सरा उस नवजात गर्भ को वहीं नदी के तट पर छोड़कर चली गयी। तदनन्तर तेजस्वी महर्षि स्थूलकेश ने एकान्त स्थान में त्यागी हुई उस बन्धुहीन कन्या को देखा, जो देवताओं की बालिका के समान दिव्य शोभा से प्रकाशित हो रही थी। उस समय उस कन्या को वैसी दशा में देखकर द्विज श्रेष्ठ मुनिवर स्थूलकेश के मन में बड़ी दया आयी; अतः वे उसे उठा लाये और उसका पालन- पोषण करने लगे। वह सुन्दरी कन्या उनके शुभ आश्रम पर दिनों दिन बढ़ने लगी। महाभाग महर्षि स्थूलकेश ने क्रमशः उस बालिका के जात कर्मादि सब संस्कार विधि पूर्वक सम्पन्न किये। वह बुद्धि, रूप और सब उत्तम गुणों से सुशोभित हो संसार की समस्त प्रमदाओं (सुन्दरी स्त्रियों) से श्रेष्ठ जान पड़ती थी; इसलिये महर्षि ने उसका नाम ‘प्रमद्वरा’ रख दिया। एक दिन धर्मात्मा रूरू ने महर्षि के आश्रम में उस प्रमद्वरा को देखा। उसे देखते ही उनका हृदय तत्काल कामदेव के वशीभूत हो गया। तब उन्होंने मित्रों द्वारा अपने पिता भृगुवंशी प्रमति को अपनी अवस्था कहलायी। तदनन्तर प्रमति ने यशस्वी स्थूलकेश मुनि से (अपने पुत्र के लिये) उनकी वह कन्या माँगी। तब पिता ने अपनी कन्या प्रमद्वरा का रूरू के लिये वाग्दान कर दिया और आगामी उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र में विवाह का मुहूर्त निश्चित किया। तदनन्तर जब विवाह का मुहूर्त निकट आ गया, उसी समय वह सुन्दरी कन्या सखियों के साथ क्रीड़ा करती हुई वन में घूमने लगी। मार्ग में एक साँप चौड़ी जगह घेरकर तिरछा सो रहा था। प्रमद्वरा ने उसे नहीं देखा। वह काल से प्रेरित होकर मरना चाहती थी, इसलिये सर्प को पैर से कुचलती हुई आगे निकल गयी। उस समय कालधर्म से प्रेरित हुए उस सर्प ने उस असावधान कन्या के अंग में बड़े जोर से अपने विष भरे दाँत गड़ा दिये। उस सर्प के डँस लेने पर वह सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ी। उसके शरीर का रंग उड़ गया, शोभा नष्ट हो गयी, आभूषण इधर-उधर बिखर गये और चेतना लुप्त हो गयी। उसके बाल खुले हुए थे। अब वह अपने उन बन्धुजनों के हृदय में विषाद उत्पन्न कर रही थी, जो कुछ ही क्षण पहले अत्यन्त सुन्दरी एंव दर्शनीय थी, वही प्राण शून्य होने के कारण अब देखने योग्य नहीं रह गयी। वह सर्प के विष से पीडि़त होकर गाढ़ निद्रा में सोयी हुई की भाँति भूमि पर पड़ी थी। उसके शरीर का मध्यभाग अत्यन्त कृश था। वह उस अचेतनावस्था में भी अत्यन्त मनोहारिणी जान पड़ती थी। उसके पिता स्थूलकेश ने तथा अन्य तपस्वी महात्माओं ने भी आकर उसे देखा। वह कमल की सी कान्ति वाली किशोरी धरती पर चेष्टा रहित पड़ी थी। तदनन्तर स्वस्त्यात्रेय, महाजानु, कुशिक, शंखमेखल, उद्दालक, कठ, महायशस्वी, श्वेत, भरद्वाज, कौणकुत्स्य, अर्ष्टिषेण, गौतम, अपने पुत्र रूरू सहित प्रमति तथा अन्य सभी वनवासी श्रेष्ठ द्विज दया से द्रवित होकर वहाँ आये। वे सब लोग उस कन्या को सर्प के विष से पीडि़त हो प्राण शून्य हुई देख करूणा वश रोने लगे। रूरू तो अत्यन्त आर्त होकर वहाँ से बाहर चला गया और शेष सभी द्विज उस समय वहीं बैंठे रहे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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