सोलहवां अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
महाभारत: अनुशासनपर्व: सोलहवां अध्याय: श्लोक 34-76 का हिन्दी अनुवाद
संसिद्धि (मुक्ति)-की इच्छा रखनेवाले पुरूषों की जो परम गति है, वह ये ईश्वर ही हैं। देवओं सहित भू आदि समस्त लोकों को उत्पन्न करके ये महादेव ही (पृथ्वी,जल,वायु,अग्नि,आकाश,सूर्य,चन्द्र,यजमान- इन) अपनी आठ मूर्तियों द्वारा उनका धारण और पोषण करते हैं। इन्हीं से सबकी उत्पति होती है और इन्हीं में सारा जगत् प्रतिष्ठित है और इन्हीं में सबका लय होता है। ये ही एक सनातन पुरूष हैं। ये ही सत्य की इच्छा रखनेवाले सत्पुरूषों के लिये सर्वोतम सत्यलोक है। ये ही मुक्त पुरूषों के अपवर्ग मोक्ष और आत्मज्ञानियों के कैवल्य हैं। देवता,असुर और मनुष्यों को इनका पता न लगने पाये, मानो इसीलिये ब्रह्माआदि सिद्ध पुरूषों ने इन परमेश्वर को अपनी हृदयगुफा में छिपा रखा है। हृदयमन्दिर में गूढ़भाव से रहकर प्रकाशित न होनेवाले इन परमात्मादेव ने सबको अपनी माया से मोहित कर रखा है। इसीलिये देवता,असुर और मनुष्य आप महादेव को यथार्थ रूपसे नहीं जान पाते हैं। जो लोग भक्तियोगसे भावित होकर उन परमेश्वरकी शरण लेते हैं, उन्हींको यह हृदय-मन्दिरमें शयन करनेवाले भगवान स्वयं अपना दर्शन देते हैं।जिन्हें जान लेनेपर फिर जन्म और मरण का बन्धन नहीं रह जाता तथा जिनका ज्ञान प्राप्त हो जाने पर फिर दूसरे किसी उत्कृष्ट ज्ञेय तत्वका जानना शेष नहीं रहता है, जिन्हें प्राप्त कर लेनेपर विद्वान पुरूष बड़े-से-बड़े लाभको भी उनसे अधिक नहीं मानता है, जिस सूक्ष्म परम पदार्थको पाकर ज्ञानी मनुष्य हास और नाश से रहित परमपदको प्राप्त कर लेता है, सत्व आदि तीन गुणों तथा चौबीस तत्वोंको जाननेवाले सांख्यज्ञानविषारद सांख्ययोगी विद्वान जिस सूक्ष्म तत्व को जानकर उस सूक्ष्मज्ञानरूपी नौकाके द्वारा संसारसमुद्रसे पार होते और सब प्रकार के बन्धनोंसे मुक्त हो जाते हैं, प्राणायामपरायण पुरूष वेदवेताओंके जानने योग्य तथा वेदान्तमें प्रतिष्ठित जिस नित्य तत्वका ध्यान और जप करते हैं और उसीमें प्रवेश कर जाते हैं; वही ये महेशर हैं। उंकाररूपी रथपर आरूढ़ होकर वे सिद्ध पुरूष इन्हींमें प्रवेश करते हैं। ये ही देवयानके द्वाररूप सूर्य कहलाते हैं। ये ही पितृयान-मार्ग के द्वार चन्द्रमा कहलाते हैं। काष्ठा,दिशा,संवत्सर और युग आदि भी ये ही हैं। दिव्य लाभ (देवलोकका सुख), अदिव्य लाभ (इस लोकाका सुख), परम लाभ (मोक्ष), उतरायण और दक्षिणायन भी ये ही हैं। पूर्वकालमें प्रजापतिने नाना प्रकारके स्तोत्रोंद्वारा इन्हीं नीललोहित नामवाले भगवान की आराधना करके प्रजाकी सृष्टिके लिये वर प्राप्त किया था। ऋग्वेदके विद्वान तात्विक यज्ञकर्ममें ऋग्वेदके मंत्रोंद्वारा जिनकी महिमाका गान करते हैं, यजुर्वेदके ज्ञाता द्विज यज्ञमें यजुर्मन्त्रोंद्वारा दक्षिणाग्नि, गार्हपत्य और आहवनीय-इन त्रिविध रूपोंसे जाननेयोग्य जिन महादेवजीके उदेश्यसे आहुति देते हैं तथा शुद्ध बुद्धि से युक्त सामवेदके गानेवाले विद्वान साममन्त्रोंद्वारा जिनकी स्तुति गाते हैं, अथर्ववेदी ब्राह्माणों ऋत,सत्य एवं परब्रह्मानाम से जिनकी स्तुति करते हैं, जो यज्ञके परम कारण हैं, वे ही ये परमेश्वर समस्त यज्ञोंके परमपति माने गये हैं। रात और दिन इनके कान और नेत्र हैं, पक्ष ओर मास इनके मस्तक और भुजाएं हैं, ऋतु वीर्य है, तपस्या धैर्य है तथा वर्ष गुहय-इन्द्रिय, उरू और पैर हैं। मृत्यु,यम,अग्नि, संहारके लिये वेगशाली काल, कालके परम कारण तथा सनातन काल भी-ये महादेव ही हैं। भुवन,मूल प्रकृति,महत्व, विकारोंके सहित विशेषपर्यन्त समस्त तत्व, ब्रह्माजीसे लेकर कीटपर्यन्त सम्पूर्ण जगत्, भूतादि,सत् और असत् आठ प्रकृतियां तथा प्रकृतिसे परे जो पुरूष है, इन सबके रूपमें ये महादेवजी ही विराजमान हैं। इन महादेवजीका अंशभूत जो सम्पूर्ण जगत् चक्रकी भांति निरन्तर चलता रहता है, वह भी ये ही हैं। ये परमानन्दस्वरूप हैं। जो शाश्वत ब्रहा हैं, वह भी ये ही हैं। ये ही विरक्तोंकी गति हैं और ये ही सत्पुरूषोंके परमभाव हैं।ये ही उद्वेगरहित परमपद हैं। ये ही सनातन ब्रह्मा हैं। शास्त्रों और वेदांगोंके ज्ञाता पुरूषोंके लिये यह ही ध्यान करनेके योग्य परमपद हैं।।56।।यह वह पराकाष्ठा, यही वह परम कला, यही वह परम सिद्धि और यही वह परम गति हैं एव यही वह परम शान्ति और वह परम आनन्द भी हैं, जिसको पाकर योगीजन अपनेको कृतकृत्य मानते हैं।।यह तुष्टि, यह सिद्धि, यह श्रुति, यह स्मृति, भक्तोंकी यह अध्यात्मगति तथा ज्ञानी पुरूषोंकी यह अक्षय प्राप्ति (पुनरावृतिरहित मोक्षलाभ) आप ही हैं।।प्रचुर दक्षिणावाले यज्ञोंद्वारा सकाम भावसे यजन करनेवाले यज्ञमानोंकी जो गति होती है, वह गति आप ही हैं। इसमें संशय नहीं है। देव! उत्तम योग-जप तथा शरीरको सुखा देनेवाले नियमोंद्वारा जो शान्ति मिलती है और तपस्या करनेवाले पुरूषोंको जो दिव्य गति प्राप्त होती है, वह परम गति आप ही हैं। स्नातन देव! कर्म-संन्यासियोंको और विरक्तोंको ब्रह्मालोकमें जो उत्तमगति प्राप्य होती है, वह आप ही हैं। सनातन परमेश्वर! जो मोक्षकी इच्छा रखकर वैराग्यके मार्गपर चलते हैं उन्हें, और जो प्रकृतिमें लयको प्राप्त होते हैं उन्हें, जो गति उपलब्ध होती हैं, वह आप ही हैं। देव! ज्ञान और विज्ञानसे युक्त पुरूषोंको जो सारूप्य आदि नामसे रहित, निरंजन एवं कैवल्यरूप परमगति प्राप्त होती है, वह आप ही हैं। प्रभो! वेद-शास्त्र और पुराणोंमें जो ये पांच गतियां बतायी गयी हैं, ये आपकी कृपासे ही प्राप्त होती हैं, अन्यथा नहीं। इस प्रकार तपस्याकी निधिरूप तण्डिने अपने मनसे महादेवजीकी स्तुति की और पूर्वकालमें ब्रह्माजीने जिस परम ब्रह्मास्वरूप स्तोत्रका गान किया था, उसीका स्वयं भी गान किया। उपमन्यु कहते हैं-ब्रह्मावादी तण्डिके इस प्रकार स्तुति करनेपर पार्वतीसहित प्रभावशाली भगवान महादेव उनसे बोले-तण्डिने स्तुति करते हुए यह बात कही थी कि ’ब्रह्मा,विष्णु,इन्द्र,विष्वेदेव और महर्षि भी आपको यथार्थरूपसे नहीं जानते हैं’, इससे भगवानशंकर बहुत संतुष्ट हुए और बोले-भगवान् श्रीशिवने कहा-ब्रह्मान्! तुम अक्षय, अविकारी,दुःखरहित,यशस्वी,तेजस्वी एवं दिव्यज्ञान से सम्पन्न होओगे। द्विजश्रेष्ठ! मेरी कृपासे तुम्हें एक विद्वान पुत्र प्राप्त होगा, जिसके पास ऋषिलोग भी शिक्षाग्रहण करनेके लिये जायेंगे। वह कल्पसूत्रका निर्माण करेगा, इसमें संशय नहीं है। वत्स! बोलो,तुम क्या चाहते हो अब मैं तुम्हें कौन-सा मनोवांछित वर प्रदान करूं? तब तण्डिने हाथ जोड़कर कहा-प्रभो! आपके चरणारविन्दमें मेरी सुदृढ़ भक्ति हो। उपमन्युने कहा-देवर्षियोंद्वारा वन्दित और देवताओंद्वारा प्रशसित होते हुए महादेवजी इन वरोंको देकर वहीं अन्तर्धान हो गये। यादवेश्वर! जब पार्षदोंसहित भगवान अन्तर्धान हो गये, तब ऋषिने मेरे आश्रमपर आकर यहां मुझसे ये सब बातें बतायीं। मानवश्रेष्ठ! तण्डिमुनिने जिन आदिकालके प्रसिद्ध नामोंका मेरे सामने वर्णन किया, उन्हें आप भी सुनिये। वे सिद्धि प्रदान करनेवाले हैं। पितामह ब्रह्माने पूर्वकालमें देवताओंके निकट महादेवजीके दस हजार नाम बताये थे और शास्त्रोंमें भी उनके सहस्त्र नाम वर्णित हैं। अच्चुत! पहले देवेश्वर ब्रह्माजीने महादेवजीकी कृपासे महात्मा तण्डिके निकट जिन नामोंका वर्णन किया था, महर्षि तण्डिने भगवान् महादेवके उन्हीं समस्त गोपनीय नामोंका मेरे समक्ष प्रतिपादन किया था।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्व में मेघवाहनपर्वकी कथविषयक सोलहवां अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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