महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 11 श्लोक 1-12
ग्यारहवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (राजधर्मानुशासनपर्व)
अर्जुन ने कहा-- भरतश्रेष्ठ! इसी विषय में जानकार लोग तापसों के साथ जो इन्द्रका संवाद हुआ था, उस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं।
एक समय कुछ मन्दबुद्धि कुलीनब्राह्मणबालक घर को छोड़कर वन में चले जाये। अभी उन्हें मॅंछ-दाढ़ी तक नहीं आयी थी, उसी अवस्था में उन्होंने घर त्याग दिया। यद्यपि वे सब-के-सब धनी थे, तथापि भाई-बन्धु और माता-पिता को छोड़कर इसी को धर्म मानते हुए वनमें आकर ब्रहमचर्य का पालन करने लगे। एक दिन इन्द्रदेव ने उन पर कृपा की। भगवान् इन्द्र सुवर्णमय पक्षी का रूप धारण करके वहां आये और उनसे इस प्रकार कहने लगे-’यज्ञशिष्ट अन्न भोजन करने वाले क्षेत्र पुरूषों ने जो कर्म किया है, वह दूसरों से होना अत्यन्त कठिन है। उनका यह कर्म बड़ा पवित्र और जीवन बहुत उत्तम कठिन है। उनका यह कर्म बड़ा पवित्र और जीवन बहुत उत्तम है। वे धर्मपरायण पुरूष सफल मनोरथ हो श्रेष्ठ गति को प्राप्त हुए हैं’।
ऋषि बोले- अहो! यह पक्षी तो विघसाशी (यज्ञशेष अन्न भोजन करने वाले) पुरूषों की प्रशंसा करता है। निश्चय ही यह हम लोगों की बड़ाई करता है; क्यों कि यहां हम लोग ही विघसाशी हैं।
उस पक्षी ने कहा-- अरे! देह में कीचड़ लपेटे और धूल पोते हुए जूठन खाने वाले तुम- जैसे मूर्खों मैं प्रशंसा नहीं कर रहा हॅू। विघसाशी तो दूसरे ही होते हैं।
ऋषि बोले-- पक्षी!यही श्रेष्ठ एवं कल्याणकारी साधन है, ऐसा समझकर ही हम इस मार्ग पर चल रहे हैं। तुम्हारी दृष्टि में जो श्रेष्ठ धर्म हो, उसे तुम्हीं बताओ। हम तुम्हारी बात पर अधिक श्रद्धा करते हैं।
पक्षी ने कहा-- यदि आप लोग मुझ पर संदेह न करें तो में स्वयं ही अपने आपको वक्ता के रूप में विभक्त करके आप लोगों को यथावत् रूप से हित की बात बताऊॅगा।
ऋषि बोले- तात! हम तुम्हारी बात सुनेंगे। तुम्हें सब मार्ग विदित हैं। धर्मात्मन्। हम तुम्हारी आज्ञा के अधीन रहना चाहते हैं। तुम हमें उपदेश दो।
पक्षी ने कहा- चैपायों में गौ श्रेष्ठ हैं, धातुओं में सोना उत्तम है, शब्दों में मन्त्र उत्कृष्ट है और मनुष्यों मेंब्राह्मणप्रधान है। यद्यपि वे सब-के-सब धनी थे, तथापि भाई-बन्धु और माता-पिता को छोड़कर इसी को धर्म मानते हुए वनमें आकर ब्रहमचर्य का पालन करने लगे। एक दिन इन्द्रदेव ने उन पर कृपा की। भगवान् इन्द्र सुवर्णमय पक्षी का रूप धारण करके वहां आये और उनसे इस प्रकार कहने लगे-’यज्ञशिष्ट अन्न भोजन करने वाले क्षेत्र पुरूषों ने जो कर्म किया है, वह दूसरों से होना अत्यन्त कठिन है। उनका यह कर्म बड़ा पवित्र और जीवन बहुत उत्तम कठिन है। उनका यह कर्म बड़ा पवित्र और जीवन बहुत उत्तम है। वे धर्मपरायण पुरूष सफल मनोरथ हो श्रेष्ठ गति को प्राप्त हुए हैं’।
ऋषि बोले- अहो! यह पक्षी तो विघसाशी (यज्ञशेष अन्न भोजन करने वाले) पुरूषों की प्रशंसा करता है। निश्चय ही यह हम लोगों की बड़ाई करता है; क्यों ब्राह्मंणों के लिये मन्त्रयुक्त जातकर्म आदि संस्कार का विधान है। वह जब तक जीवित रहे, समय-समय पर उसके आवश्यक संस्कार होते रहने चाहिये, मरने पर भी यथासमय श्मशान भूमि में अन्त्येष्टि संकार तथा घर पर श्राद्ध आदि वैदिक विधि के अनुसार सम्पन्न होने चाहिये। वैदिक कर्म ही ब्राह्मण के लिये स्वर्ग लोक की प्राप्ति कराने वाले उत्तम मार्ग हैं। इसके सिवा, मुनियों ने समस्त कर्मों को वैदिक मंत्रों द्वारा ही सिद्ध होने वाला बताया है। वेद में इन कर्मां का प्रतिपादन दृढतापूर्वक किया गया है; इसलिये उन कर्मां के अनुष्ठान से ही यहां अभीष्ट-सिद्ध होती है। मास, पक्ष,ऋतु, सूर्य, चन्द्रमा और तारों से उपलक्षित जो यज्ञ होते हैं, उन्हें यथा सम्भव सम्पन्न करने की चेष्टा प्रायः सभी प्राणी करते हैं। रूज्ञों का सम्पादन ही कर्म कहलाता है। जहां ये क्षेत्र है और यही सबसे महान् आश्रम है। जो मनुष्य कर्म की निन्दा करते हुए कुमार्ग का ’आश्रय लेते हैं, उन पुरूषार्थहीन मूढ़ पुरूषों को पाप लगता है। देव समूह और पितृसमूहों का यजन तथा ब्रहमवंश (वेद शास्त्र आदि के स्वाध्याय द्वारा ऋषि-मुनियों) की तृप्ति-ये तीन ही सनातन मार्ग हैं। जो मूर्ख इनका परित्याग करके और किसी मार्ग और किसी मार्ग से चलते हैं, वे वेदविरूद्ध पथ का आश्रय लेते हैं। मन्त्र द्रष्टा ऋषि ने एक मन्त्र में कहा है कि ’यह यज्ञरूप कर्म तुम सब यजमानों द्वारा सम्पादित हो, परंतु यह होना चाहिये तपस्या से युक्त। तुम इसका अनुष्ठान करोगे तो मैं तुम्हें मनोवाच्छित फल प्रदान करूंगा।’ अतः उन-उन वैदिक कर्मा में पूर्णतः संलग्न हो जाना ही तपस्वी का ’तप’ कहलाता है। हवन-कर्म के द्वारा देवताओं को, स्वाध्याय द्वारा ब्रहमर्षियों को तथा श्राद्ध द्वारा सनातन पितरेां को उनका भाग समर्पित करके गुरू जी परिचर्या करना दुष्कर व्रत कहलाता है। इस दुष्कर व्रता का अनुष्ठान करके देवताओं ने उत्तम वैभव प्राप्त किया है। यह गृहस्थ धर्म का पालन ही दुष्कर व्रत है। मैं तुम लोगों से इसी दुष्कर व्रत का भार उठाने के लिये कह रहा हॅू। तपस्या श्रेष्ठ कर्म है। इसमें संदेह नहीं कि यही प्रजावर्ग का मूल कारण है। परंतु गार्हस्थ्यविधायक शास्त्र के अनुसार इस गार्हस्थ्य- धर्म में ही सारी तपस्या प्रतिष्ठित है। जिनके मन में किसी के प्रति ईष्या नहीं है, जो सब प्रकार के द्वन्द्वों से रहित हैं, वेब्राह्मणइसी को तप मानते हैं। यद्यपि लोक में व्रत को भी तप कहा जाता है, किंतु वह पंचयज्ञ के अनुष्ठान की अपेक्षा मध्यम श्रेणी का है। क्योंकि विघसाशी पुरूष प्रातः-सांयकाल विधि- विधान पद को अपने कुटुम्ब में अन्न का विभाग करके दुर्जय अविनाशी पद को प्राप्त कर लेते हैं। देवताओं, पितरों, अतिथियों तथा अपने परिवार के अन्य सब लोगां को अन्न देकर जो सबसे पीछे अवशिष्ट अन्न खाते हैं, उन्हें विघसाशी कहा गया है। इस लिये अपने धर्म पर आरूढ़ हो उत्तम व्रत का पालन और सत्यभाषण करते हुये वे जागदु्ररू होकर सर्वथा संदेह-रहित हो जाते हैं। वे ईर्ष्या रहित दुष्कर व्रत का पालन करने वाले पुण्यात्मा पुरूष इन्द्र के स्वर्ग लोक में पहुଁचकर अनन्त वर्षों तक वहां निवास करते हैं।
अर्जुन कहते हैं- महाराज! वेब्राह्मणकुमार पक्षि रूपधारी इन्द्र की धर्म और अर्थयुक्त हितकर वाते सुनकर इस निश्रय पर पहॅुचे कि हम लोग जिस मार्ग पर चल रहे हैं, वह हमारे लिये हितकर नहीं है; अतः वे उसे छोड़कर घर लौट गये और गृहस्थ-धर्म का पालन करते हुए वहां रहने लगे। सर्वज्ञ नरश्रेष्ठ! अतः आप भी सदा के लिये धैर्य धारण करके शत्रुहीन हुई इस सम्पूर्ण पृथ्वी का शासन कीजिये।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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