महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 12 श्लोक 1-19

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बारहवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (राजधर्मानुशासनपर्व)

महाभारत: शान्तिपर्व : बारहवाँ अध्याय: श्लोक 1- 38 का हिन्दी अनुवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! अर्जुन की बात सुनकर नकुल ने भी सम्पूर्ण धर्मात्माओं में श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिरकी ओर देखकर कुछ कहने को उद्यत हुए। शत्रुओं का दमन करने वाले जनमेजय! महाबाहु नकुल बडे़ मितभाषी थे। उन्होंने भाई के चित्त का अनुसरण करते हुए कहा।

नकुल बोले- महाराज! विशाखयूप नामक क्षेत्र में सम्पूर्ण देवताओं द्वारा की हुई अग्निस्थपना के चिन्ह(ईटों की बनी हुई वेदियां) मौजूद हैं। इससे आपको यह समझना चाहिये कि देवता भी वैदिक कर्मां और उनके फलों पर विश्वास करते हैं।

राजन्। आस्तिकता की बुद्धि से रहित समस्त प्राणियों के प्राणदाता पितर भी शास्त्र के विधिवाक्यों पर दृष्टि रखकर कर्म ही करते हैं। भारत! जो वेदों की आज्ञा के विरूद्ध चलते हैं, उन्हें बड़ा भारी नास्तिक समझिये। वेद की आज्ञा का उल्लंघन करके सब प्रकार के कर्म करने पर भी कोईब्राह्मण देवयान मार्ग के द्वारा स्वर्गलोक की पृष्ठभूमि में पैर नहीं रख सकता। यह गृहस्थ-आश्रम सब आश्रमों में ऊॅचा है। यह बात वेदों के सिद्धान्त को जानने वाले श्रतिसम्पन्न ब्राह्मण कहते है।। नरेश्वर! आप उनकी सेवा में उपस्थित होकर इस बात को समझिये। महाराज! जो धर्म से प्राप्त किये हुए धन का श्रेष्ठ यज्ञों में उपयोग करता है और अपने मन को वश में रखता है, वह मुनष्य त्यागी माना गया है। महाराज! जिसने गृहस्थ- आश्रम के सुखभोगों को कभी नहीं देखा, फिर भी जो ऊपर वाले वानप्रस्थ आदि आश्रमों में प्रतिष्ठित होकर देहत्याग करता है, उसे तामस त्यागी माना गया है। पार्थ! जिसका कोई घरबार नहीं, जो इधर-उधर विचरता और चुपचाप किसी वृक्ष के नीचे उसकी जड़ पर सो जाता है, जो अपने लिये कभी रसोई नहीं बनाता और सदा योग- परायण रहता है, ऐसे त्यागी को भिक्षुक कहते हैं। कुन्तीनन्दन! जेब्राह्मणक्रोध, हर्ष और विशेषतः चुगली की अवहेलना करके सदा वेदों के स्वाध्याय में लगा रहता है, वह त्यागी कहलाता है। राजन्! कहते हें कि एक समय मनीषी पुरूषों ने चारों आश्रमों को (विवेक के) तराजू पर रखकर तौला था। एक ओर तो अन्य तीनों आश्रम थे और दूसरी ओर अकेला गृहस्थ आश्रम था। भरतवंशी नरेश! पार्थ! इस प्रकार विवके की तुल पर रख कर जब देखा गया तो गृहस्थ-आश्रम ही महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ; क्योंकि वहां भोग और स्वर्ग दोनों सुलभ थे। तबसे उन्होने निश्चय किया कि ’यही मुनियों का मार्ग है और यही लोक वेत्ताओं की गति है’। भरतश्रेष्ठ! जो ऐसा भाव रखता है, वही त्यागी है। जो मूर्ख की तरह घर छोड़कर वन में चला जाता है, वह त्यागी नहीं है। वन में रहकर भी यदिह धर्मध्वजी मनुष्य काम-भोगों पर दृष्टिपात (उनका स्मरण) करता है तो यमराज उसके गले में मौत का फंदा डाल देते हैं। महाराज! यही कर्म यदि अभिमानपूर्वक किया जाय तो वह सफल नहीं होता और त्यागपूर्वक किया हुआ सारा कर्म ही महान् फलदायक होता है। शम, दम, धैर्य, सत्य, शौच, सरलता, यज्ञ, धृति तथा धर्म इन सबका ऋषियों के लिये निरन्तर पालन करने का विधान है। महाराज! गृहस्थ- आश्रम में ही देवताओं, पितरों तथा अतिथियों के लिये किये जाने वाले आयोजन की प्रशंसा की जाती है है। केवल यहीं धर्म, अर्थ और काम- ये तीनों सिद्ध होते हैं। यहां रहकर वेद विहित विधिका पालन करने वाले निष्ठावान् त्यागी का कभी विनाश नहीं होता- वह पारलौकिक उन्नति से कभी वंचित नहीं रहता। राजन्! पापरहित धर्मात्मा प्रजापति ने इस उद्रदेश्य से प्रजाओं की सृष्टि की कि’ ये नाना प्रकार की दक्षिणा वाले यज्ञों द्वारा मेरा वनज करेंगी’। इसी उद्देश्य से उन्होनें यशसम्पादन के लिये नाना प्रकार की लता-वेलों, वृक्षों, औषधियों, मेध्य पशुओं, तथा यज्ञार्थक हविष्यों की भी सृष्टि की है। वह यज्ञकर्म गृहस्थाश्रमी पुरूष को एक मर्यादा के भीतर बाध रखने वाला है; इसलिये गार्हस्थ्य धर्म ही इस संसार में दुष्कर और दुर्लभ है। महाराज! जो गृहस्थ उसे पाकर पशु और धन-धान्य से सम्पन्न होते हुए भी यज्ञ नहीं करते हैं, उन्हें सदा ही पाप का भागी होना पड़ता है। कुछ ऋषि वेद-शास्त्रों का स्वाध्याय रूप यज्ञ करने वाले होते हैं, कुछ ज्ञानयज्ञ में तत्पर रहते हैं और कुछ लोग मन में ही ध्यान रूपी महान् यज्ञों का विस्तार करते हैं। नरेश्वर! चित्त को एकाग्र करना रूप जो साधन है, उसका आश्रय लेकर ब्रहमभूत हुए द्विज के दर्शन की अभिलाषा देवता भी रखते हैं। इधर- उधर से जो विचित्र रत्न संग्रह करके लाये गये हैं, उनका यज्ञों में वितरण न करके आप नास्तिकता की बातें कर रहें हैं। नरेश्वर! जिस पर कुटुम्बका भार हो, उसके लिये त्याग का विधान नहीं देखने में आता है। उसे तो राजसूय, अश्वमेघ अथवा सर्वमेघ यज्ञों में प्रवृत्त होना चाहिये। भूपाल! इनके सिवा जो दूसरे भी ब्राह्मंणों द्वारा प्रशंसित यज्ञ हैं, उनके द्वारा देवराज इन्द्र के समान आप भी यज्ञ पुरूष आराधना कीजिये। राजा के प्रमाद दोष से लुटेरे प्रबल होकर प्रजा को लूटने लगते हैं, उस अवस्था में यदि राजा ने प्रजा को शरण नहीं दी तो उसे मूर्तिमान् कलियुग कहा जाता है। प्रजानाथ! यदि हमलोग ईष्यायुग ईष्यायुक्त मनवाले होकर ब्राह्मंणों को घोडे़, गाय, दासी, सजी-सजायी हथिनी, गाव, जनपद, खेत और घर आदि का दान नहीं करते हैं तो राजाओं में कलियुग समझे जायॅंगे। जो दान नहीं देते, शरणागतों की रक्षा नहीं करते, वे राजाओं के पाप के भागी होते हैं। उन्हें दुःख-ही दुःख भोगना पड़ता है, सुख तो कभी नहीं मिलता। प्रभो! बडे़-बडे़ यज्ञों का अनुष्ठान, पितरों का श्राद्ध तथा तीर्था में स्नान किये बिना ही आप संन्यास ले लेंगे तो हवा द्वारा छिन्न-भिन्न हुए बादलों के समान नष्ट हो जायॅगे। लोक और परलोक दोनों से भ्रष्ट होकर (त्रिशंकु के समान) बीच में ही लटके रह जायॅगे। बाहर और भीतर जो कुछ भी मनको फॅसाने वाली चीजें हैं, उन सबको छोड़ने से मनुष्य त्यागी होता है। केवल घर छोड़ देने से त्याग सिद्धि नहीं होती। महाराज! इस गृहस्थ-आश्रमों में ही रहकर वेदविहित कर्म में लगे हुए ब्राह्मंणों का कभी उच्छेद (पतन) नहींहोता। कुन्तीनन्दन! जैसे इन्द्र युद्ध में दैत्यों की सेनाओं का संहार करते हैं, उसी प्रकार जो वेगपूर्वक बढे-चढे़ शत्रुओं का वध करके विजय पा चुका हो और पूर्ववर्ती राजाओं द्वारा सेवति अपने धर्म में तत्पर रहता हो, ऐसा (आपके सिवा) कौन राजा शोक करेगा? नरेन्द्र! कुन्तीकुमार! आप क्षत्रिय धर्म के अनुसार पराक्रम द्वारा इस पृथ्वी पर विजय पाकर मन्त्रवेत्ता ब्राह्मंणों को यश में बहुत सी दक्षिणाएं देकर स्वर्ग से भी ऊपर चले आयेंगे? अतः आज आपको शोक नहीं करना चाहिये। इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्र्तगत राजधर्मानुशासन पर्व में नकुल वाक्य विषयक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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