सत्रहवां अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
महाभारत: अनुशासनपर्व: सत्रहवां अध्याय: श्लोक 32-67 का हिन्दी अनुवाद
’’इस तरह महादेवजीने मुझे और भी सहस्त्रों वर दिये। पूर्वकालमें अन्य अवतारोंके समय मणिमन्थ पर्वतपर मैंने लाखों-करोड़ों वर्षोंतक भगवान् शकरकी आराधना की थी। ’’ इससे प्रसन्न होकर भगवान्ने मुझसे कहा-’कृष्ण! तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारे मनसे जैसी रूचि हो, उसके अनुसार कोई वर मांगो। ’’यह सुनकर मैंने मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और कहा- ’यदि मेरी परम भक्ति से भगवान् महादेव प्रसन्न हों तो ईशान! टापके प्रति नित्य-निरन्तर मेरी स्थिर भक्ति बनी रहे।’तब ’एवमस्तु’ कहकर भगवान् शिव वहीं अन्तर्धान हो गये’’। जैगीशव्य उवाच जैगीशव्य बोले-युधिष्ठिर! पूर्वकालमें भगवान् षिवने काशीपुरीके भीतर अन्य प्रबल प्रयत्नसे संतुष्ट हो मुझे अणिमा आदि आठ सिद्धियां प्रदान की थीं। गर्ग उवाच गर्ग ने कहा- पाण्डुनन्दन! मैंने सरस्वतीके तटपर मानस यज्ञ करके भगवान् शिवको संतुष्ट किया था। इससे प्रसन्न होकर उन्होंने मुझे चौसठ कलाओं का अद्भूत ज्ञान प्रदान किया। मुझे मेरे ही समान एक सहस्त्र ब्रहावादी पुत्र दिये तथा पुत्रोंसहित मेरी दस लाख वर्षकी आयु नियत कर दी। पराशर उवाच पराशरजी ने कहा- नरेश्वर! पूर्वकालमें यहां मैंने महादेवजीको प्रसन्न करके मन-ही-मन उनका चिन्तन आरम्भ किया। मेरी इस तपस्याका उदेश्य यह था कि मुझे महेश्वरकी कृपासे महातपस्वी, महातेजस्वी, महायोगी, महायशस्वी, दयालु, श्रीसम्पन्न एवं ब्रहमानिष्ठ वेदव्यासनामक मनोवांछित पुत्र प्राप्त हो। मेरा ऐसा मनोरथ जानकर सुरश्रेष्ठ षिवने मुझसे कहा-’मुने! तुम्हारी मेरे प्रति जो सम्भावना है अर्थात् जिस वरको पानकी लालसा है, उसीसे तुम्हें कृष्ण नामक पुत्र प्राप्त होगा। ’सावर्णिक मन्वन्तरके समय जो सृष्टि होगी, उसमें तुम्हारा यह पुत्र सप्तर्षिके पदपर प्रतिष्ठित होगा तथा इस वैवस्वत मन्वन्तरमें वह वेदों का वक्ता, कौरव-वंशका प्रवर्तक, इतिहासका निर्माता, जगत्का हितैषी तथा देवराज इन्द्रका परम प्रिय महामुनि होगा। पराषर! तुम्हारा वह पुत्र सदा अजर-अमर रहेगा।’युधिष्ठिर! ऐसा कहकर महायोगी, शक्तिशाली, अविनाशी और निर्विकार भगवान् शिव वहीं अन्तर्धान हो गये।। माण्डव्य उवाच माण्डव्य बोले-नरेश्वर! मैं चोर नहीं था तो भी चोरीके संदेहमें मुझे शूलीपर चढ़ा दिया गया। वहीं से मैंने महादेवजीकी स्तुति की ।तब उन्होंने मुझसे कहा-’विप्रवर! तुम शूलसे छूटकारा पा जाओगे और दस करोड़ वर्षोंतक जीवित रहोगे। तुम्हारे शरीरमें इस शूलके धंसनेसे कोई पीड़ा नहीं होगी। तुम आधिव्याधिसे मुक्त हो जाओगे। ’मुने! तुम्हारा यह शरीर धर्मके चौथे पाद सत्यसे उत्पन्न हुआ है। अतः तुम अनुपम सत्यवादी होओगे। जाओ, अपना जन्म सफल करो। ’ब्रहान्! तुम्हें बिना किसी विध्न-बाधाके सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नानका सौभाग्य प्राप्त होगा। मैं तुम्हारे लिये अक्षय एवं तेजस्वी स्वर्गलोक प्रदान करता हूं’। महाराज! ऐसा कहकर कृतिवास, महातेजस्वी, वृषभवाहन तथा वरणीय सुरश्रेष्ठ भगवान् महेश्वर अपने गणोंके साथ वहीं अन्तर्धान हो गये। गालवजीने कहा-राजन्! विश्वामित्र मुनिकी आज्ञा पाकर मैं अपने पिताजीका दर्शन करनेके लिये घरपर आया। उस समय मेरी माता वैधव्यके दुःखसे दुःखी हो जोर-जोरसे रोती हुई मुझसे बोली-’तात! अनघ! कौशिक मुनिकी आज्ञा लेकर घरपर आये हुए वेदविद्यासे विभूशित तुझ तरूण एवं जितेन्द्रिय पुत्रको तुम्हारे पिता नहीं देख सके’। माताकी बात सुनकर मैं पिता के दर्शनसे निराश हो गया और मन को संयममें रखकर महादेवजीकी आराधना करके उनका दर्शन किया। उस समय वे मुझसे बोले- ’वत्स’! तुम्हारे पिता, माता और तुम तीनों ही मृत्युसे रहित हो जाओगे। अब तुम अपने घरमें शीघ्र प्रवेश करो। वहां तुम्हें पिताका दर्शन प्राप्त होगा’। तात युधिष्ठिर! भगवान् शिवकी आज्ञासे मैंने पुनः घर जाकर वहां यज्ञ करके यज्ञशालासे निकले हुए पिताका दर्शन किया। वे उस समय समिधा, कुश और वृक्षोंसे अपने-आप गिरे हुए पके फल आदि हव्य पदार्थ लिये हुए थे। पाण्डुनन्दन! उन्हें देखते ही मैं उनके चरणोंमें पड़ गया; फिर पिताजीने भी उन समिधा आदि वस्तुओंको अलग रखकर मुझे हदयसे लगा लिया और मेरा मस्तक सूंघकर नेत्रोंके आंसू बहाते हुए मुझसे कहा-’बेटा! बड़े सौभाग्यकी बात है कि तुम विद्वान् होकर घर आ गये और मैंने तुम्हें भर आंख देख लिया’। वैषम्पायनजी कहते है।-जनमेजय! मुनियोंके कहे हुए महादेवजीके ये अद्भूत चरित्र सुनकर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरको बड़ा विस्मय हुआ। फिर बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ श्रीकृष्णने धर्मनिधि युधिष्ठिर उसी प्रकार कहा जैसे श्रीविष्णु देवराज इन्द्रसे कोई बात कहा करते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण बोले- राजन्! सूर्यके समान तपते हुए-से तेजस्वी उपमन्युने मेरे समीप कहा था कि ’जो पापकर्मी मनुष्य अपने अशुभ आचरणोंसे कलुशित हो गये हैं, वे तमोगुणी या रजोगुणी वृतिके लोग भगवान् शिवकी शरण नहीं लेते हैं। ’जिनका अन्तःकरण पवित्र है, वे ही द्विज महादेवजीकी शरण लेते हैं जो परमेश्वर शिवका भक्त है, वह सब प्रकारसे बर्तता हुआ भी पवित्र अन्तःकरणवाले वनवासी मुनियोंके समान है। ’भगवान् रूद्र संतुष्ट हो जायं तो वे ब्रहापद, विष्णुपद, देवताओंसहित देवेन्द्रपद अथवा तीनों लोकोंका आधिपत्य प्रदान कर सकते है। ’तात! जो मनुष्य मनसे भी भगवान् शिवकी शरण लेते हैं, वे सब पापोंका नाश करके देवताओं साथ निवास करते हैं। ’बारंबार तालाब के तटभूमिको खोद-खोदकर उन्हें चौपट कर देनेवाला और इस सारे जगत् को जलती आगमें झोंक देनेवाला पुरूष भी यदि महादेवजीकी आराधना करता है तो वह पापसे लिप्त नहीं होता है।। ’समस्त लक्षणोंसे हीन अथवा सब पापोंसे युक्त मनुष्य भी यदि अपने हदयसे भगवान् शिवका ध्यान करता है तो वह अपने सारे पापों को नष्ट कर देता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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