महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 16 श्लोक 1-20

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सोलहवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (राजधर्मानुशासनपर्व)

महाभारत: शान्तिपर्व : सोलहवाँ अध्याय: श्लोक 1- 28 का हिन्दी अनुवाद


वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! अर्जुन की बात सुनकर अत्यन्त अमर्षशील तेजस्वी भीमसेन धैर्य धारण करके अपने बड़े भाई से कहा-। ’राजन्! आप सब धर्मां के ज्ञाता हैं। आपसे कुछ भी अज्ञात नहीं है। हम लोग आपसे सदा ही सदाचार की शिक्षा पाते हैं। हम आपको शिक्षा दे नहीं सकते। ’जनेश्वर! मैंने कई बार मन में निश्चय किया कि ’अब नहीं बोलूंगा, नहीं बोलूगा; परंतु अधिक दुःख होने के कारण बोलना ही पड़ता है। आप मेरी बात सुनें। ’आपके इस मोह से सब कुछ संशय में पड़ गया है। हमारे तन- मन मे व्याकुलता और निर्बलता प्राप्त हो गयी है। ’आपको सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञाता और इस जगत् के राजा होकर क्यों कायर मनुष्य के समान दीनतावश मोह में पड़े हुए हैं। ’आपको संसार की गति और अगति दोनों का ज्ञान है। प्रभो! आपसे न तो वर्तमान छिपा है और न भविष्य ही। ’महाराज! जनेश्वर! ऐसी स्थिति में आपको राज्य के प्रति आकृष्ट करने का जो कारण है, उसे ही यहां बता रहा हू। आप एकाग्रचित्त होकर सुनें। ’मनुष्य को दो प्रकार की व्याधियां हाती हैं- एक शारीरिक और दूसरी मानसिक। इन दोनों की उत्पत्ति एक दूसरे के आश्रित है। एक के बिना दूसरी का होना सम्भव नहीं है। ’कभी शारीरिक व्याधि से मानसिक व्याधि हाती है, इसमें संशय नहीं है। इसी प्रकार कभी मानसिक व्याधि से शारीरिक व्याधि का होना भी निश्चित ही है। ’जो मनुष्य बीते हुए मानसिक अथवा शारीरिक दुःख के लिये बारंबार शोक करता है, वह एक दुःख से दूसरे दुःख को प्राप्त होता है। उसे दो-दो अनर्थ भोगने पड़ते हैं। ’सर्दी, गर्मी और वाये (कफ,पित्त और वात) ये तीन शारीरिक गुण हैं। इन गुणों का साम्यावस्था में रहना ही स्वस्थता का लक्षण बताया गया है। ’उन तीनों में से यदि किसी एक की वृद्धि हो जाय तो उसकी चिकित्सा बतायी जाती है। उष्ण द्रव्य से और शीत पदार्थ से गर्मी का निवारण होता है। ’सत्व, रज और तम- ये तीन मानसिक गुण हैं। इन तीनों गुणों का सम अवस्था में रहना मानसिक स्वास्थ्य का लक्ष बताया गया है। ’इनमें से किसी एक की वृद्धि होने पर उपचार बताया जाता है। हर्ष (सख)के द्वारा शोक (रजोगुण) का निवारण होता है और शोक के द्वारा हर्ष का। ’कोई सुख में रहकर दुःख की बातें याद करना चाहता है और कोई दुःख में रहकर सुख का स्मरण करना चाहता है। ’कुरूनन्दन! परंतु आप न दुःखी होकर दुःख की, न सुखी होकर सुख की, न दुःख की असस्था में सुख की और न सुख की अवस्था में दुःख की ही बातें याद करना चाहते है; क्यों कि भागय बड़ा प्रबल होता हे अथवा महाराज! आपका स्वभाव ही ऐसा है, जिससे आप क्लेश उठाकर रहते हैं। ’कौरव-सभा में पाण्डु पुत्रों के देखते-देखते जो एक वस्त्र धारिणी रजस्वला कृष्णा को लाया गया था, उसे आपने अपनी आखों देखा था। क्या आपको उस घटना का स्मरण नहीं होना चाहिये? ’आप नगर से निकाले गये, आपको मृगछाला पहनाकर वनवास दे दिया गया और बडे़-बडे़ जंगलों में आपको रहना पड़ा। क्या इन सब बातों का आप याद नहीं कर सकते? ’जटासुर से जो कष्ट प्राप्त हुआ, चित्रसेन के साथ जो युद्ध करना पड़ा और सिंधुरा जयद्रथ के कारण जो अपमानजनक दुःख भोगना पड़ा- ये सारी बातें आप कैसे भूल गये? ’फिर अज्ञातवास के समय कीचकने जो आपके सामने ही राजकुमारी द्रोपदी को लात मारी थी, उस घटना को आपने सहासा कैसे भुला दिया? ’राजन! हम बलवान् हैं, देवताओं के लिये भी हमें परास्त करना कठिन होगा ता भी विराटनगर में हमें कैसे दासता करनी पड़ी थी, इसे याद कीजिये। ’शत्रुदमन नरेश! द्रोणाचार्य और भीष्म के साथ जो आपका युद्ध हुआ था, वैसा ही दूसरा युद्ध आपके सामने उपस्थित है, इस समय आपको एकमात्र अपने मन के साथ युद्ध करना है। ’इस युद्ध में न तो बाणों का काम है, न मित्रों और बन्धुओं की सहायता का। अकेले आपको ही लड़ना है। वह युद्ध आपके सामने उपस्थित है। ’इस युद्ध में विजय पाये बिना यदि आप प्राणों का परित्याग कर देंगे तो दूसरा देह धारण करके पुनः उन्हीं शत्रुओं के साथ आपको युद्ध करना पडे़गा। ’भरतश्रेष्ठ! इसलिये प्रत्यक्ष दिखायी देने वाले साकार शत्रु को छोड़कर अव्यक्त (सूक्ष्म) शत्रु मनके साथ युद्ध करने के लिये आपको अभी चल देना चाहिये; विचार आदि अपनी बौद्धिक क्रियाओं द्वारा उसके साथ आप अवश्य युद्ध करें। ’महाराज! यदि युद्ध में आपने मन को परास्त नहीं किया तो पता नहीं, आप किस अवस्था को पहॅुच जायॅगे? और यदि मन को जीत लिया तो अवश्य कृतकृत्य हो जायॅगे। ’प्राणियों के आवागमन को देखते हुए इस विचार धारा को बुद्धि में स्थिर करके आप पिता-पितामहों के आचार में प्रतिष्ठित हो यथोचित रूप से राज्य का शासन कीजिये। ’सौभाग्य की बात है कि पापी दुर्योधन सेवकों सहित युद्ध में मारा गया और सौभाग्य से ही आप दुःशासन के हाथ से मुक्त हुए द्रोपदी के केशपाश की भाति युद्ध से छुटकारा पा गये। ’कुन्तीनन्दन! आप विधिपूर्वक दक्षिणा देते हुए अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान करें। हम सभी भाई और पराक्रमी श्री कृष्ण आपके आज्ञापालक हैं,।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्र्तगत राजधर्मानुशासन पर्व में भीम वाक्य विषयक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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