महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 23 श्लोक 1-15

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १२:०७, २ जुलाई २०१५ का अवतरण ('== तेईसवां अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)== <div style="text...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

तेईसवां अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: तेईसवां अध्याय: श्लोक 1-27 का हिन्दी अनुवाद

देवता और पितरोंके कार्यमें निमंत्रण देने योग्य पात्रों तथा नरकगामी और स्वर्गगामी मनुष्योंके लक्षणोंका वर्णन युधिष्ठिरने पूछा-पितामह! देवता और ऋषियोंने श्राद्धके समय देवकार्य तथा पितृकार्यमें जिस-जिस कर्मका विधान किया है, उसका वर्णन मे आपके मुखसे सुनना चाहता हूं। भीष्मजीने कहा- राजन्! मनुष्यको चाहिये किवह स्नान आदिसे शुद्ध हो, मांगलिक कृत्य सम्पन्न करके प्रयत्नशील हो पूर्वाहनमें देव-सम्बन्धी दान, अपराहणमें पैतृक दान और मध्याहनकालमें मनुष्यसम्बन्धी दान आदरपूर्वक करे। असमयमें किया हुआ दान राक्षसोंका भाग माना गया है। जिस भोज्य पदार्थको किसीने लांघ दिया हो, चाट लिया हो, जो लडाई-झगड़ा करके तैयार किया गया हो तथा जिसपर रजस्वला स्त्रीकी दृष्टि पड़ी हो, उसे भी राक्षसोंका ही भाग माना गया है। भरतनन्दन! जिसके लिये लोगोंमें घोषणा की गयी हो, जिसे व्रतहीन मनुष्यने भोजन किया हो अथवा जो कुतेसे छू गया हो, वह अन्न भी राक्षसोंका ही भाग समझा गया है। जिसमें केश या कीड़े पड़ गये हों, जो छींकसे दूषित हो गया हो, जिसपर कुतोंकी दृष्टि पड़ गयी हो तथा जो रोकर और तिरस्कारपूर्वक दिया गया हो, वह अन्न भी राक्षसोंका ही भाग माना गया है। भरतनन्दन! जिस अन्नोंसे पहले ऐसे व्यक्तिने खा लिया हो, जिसे खानेकी अनुमति नहीं दी गयी है अथवा जिसमें से पहले प्रणव आदि वेदमंत्रोंके अनधिकारी शूद्र आदिने भोजन कर लिया हो अथवा किसी शस्त्रधारी या दुराचारी पुरूषने जिसका उपयोग कर लिया हो, उस अन्नको भी राक्षसोंका ही भाग बताया गया है। जिसे दूसरोंने उच्छिष्ट कर दिया हो, जिसमेंसे किसीने भोजन कर लिया हो तथा जो देवता, पितर, अतिथि एवं बालक आदिको दिये बिना ही अपने उपभोगमें लाया गया हो, वह अन्न देवकर्म तथा पितृकर्ममें सदा राक्षसोंका ही भाग माना गया है। नरश्रेष्ठ! तीनों वर्णोके लोग वैदिक मंत्र एवं उसके विधि-विधानसे रहित जो श्राद्धका अन्न परोसते हैं, उसे राक्षसोंका ही भाग माना गया हैं। घीकी आहुति दिये बिना ही जो कुछ परोसा जाता है तथा जिसमेंसे पहले कुछ दुराचारी मनुष्योंको भोजन करा दिया गया हो, वह राक्षसोंका भाग माना गया है। भरतश्रेष्ठ! अन्नके जो भाग राक्षसोंको प्राप्त होते है, उनका वर्णन यहां किया गया। अब दान और भोजनके लिये ब्राहामणकी परीक्षा करनेके विषयमें जो बात बतायी जाती है, उसे सुनो। राजन्। जो ब्राहामण पतित, जड या उन्मत हो गये हों वे देवकार्य या पितृकार्यमें निमंत्रण पानके योग्य नही है। राजन्! जिसके शरीरमें सफेद दाग हो, जो कोढ़ी, नपुंसक, राजयक्ष्मासे पीड़ित, मृगीका रोगी और अन्धा हो, ऐसे लोग श्राद्धमें निमंत्रण पानेके अधिकारी नहीं है। नरेश्वर! चिकित्सक या वैद्य, देवालयके पुजारी, पाखण्डी और सोमरस बेचनेवाले ब्राहामण निमंत्रण देने योग्य नहीं है। राजन्! जो गाते-बजाते, नाचते,खेल-कूदकर तमाशा दिखाते, व्यर्थकी बातें बनाते और पहलवानी करते है, वे भी निमंत्रण पानेके अधिकारी नहीं है। नरेश्वर! जो शूद्रों का यज्ञ कराते, उनको पढ़ाते अथवा स्वयं उनके शिष्य बनकर उनसे शिक्षा लेते या उनकी दासता करते हैं, वे भी निमंत्रण देने योग्य नहीं है। भरतनन्दन! जो ब्राहामण वेतन लेकर पढ़ता है और वेतन देकर पढ़ता है, वे दोनों ही वेदको बेचनेवाले है; अतः वे श्राद्धमें सम्मिलित करनेयोग्य नहीं है। राजन्! जो ब्राहामण पहले समाजका अगुआ रहा हो और पीछे उसने शूद्र-स्त्रीसे विवाह कर लिया हो, वह ब्राहामण सम्पूर्ण विद्याओंका ज्ञाता होनेपर भी श्राद्धमें बुलाने योग्य नहीं है। नरेश्वर! जो ब्राहामण अग्निहोत्र नहीं करते, जो मुर्दा ढोते, चारी करते और जो पापोंके कारण पतित हो गये हैं, वे भी श्राद्धमें बुलाने योग्य नहीं है। भारत! जिनके विषयमें पहलेसे कुछ ज्ञात न हो, जो गांवके अगुआ हों तथा पुत्रिका[१]-धर्मके अनुसार व्याही गयी स्त्रीके गर्भसे उत्पन्न होकर नानाके घरमें निवास करते हों, ऐसे ब्राहामण भी श्राद्धमें निमंत्रण पानेके अधिकारी नहीं हैं। राजन्! जो ब्राह्माण रूपया-पैसा बढ़ानेके लिये लोगोंको ब्याजपर ऋण देता हो अथवा जो सस्ता अन्न खरीदकर उसे महंगे भावपर बेचता और उसका मुनाफा खाता हो अथवा प्राणियोंके क्रय-विक्रयसे जीविका चलाता हो, ऐसे ब्राह्माण श्राद्धमें बुलाने योग्य नहीं है। जो स्त्रीकी कमाई खाते हों, वेश्याके पति हों और गायत्री-जप एवं संध्या-वन्दनसे हीन हों, ऐसे ब्राह्माण भी श्राद्धमे सम्मिलित होने योग्य नहीं है। भरतश्रेष्ठ! देवयज्ञ और श्राद्धकर्ममें वर्जित ब्राह्माणका निर्देश किया गया। अब दान देने और लेनेवाले ऐसे पुरूषोंका वर्णन करता हूं जो श्राद्धमें निषिद्ध होनेपर भी किसी विशेष गुणके कारण अनुग्रहपूर्वक ग्राहय माने गये हैं। उनके विषयमें सुनो। राजन्! जो ब्राह्माण व्रतका पालन करनेवाले, सद्गुण-सम्पन्न, क्रियानिष्ठ और गायत्रीमंत्रके ज्ञाता हों, वे खेती करनेवाले होनेपर भी उन्हें श्राद्धमें निमंत्रण दिया जा सकता है। तात! जो कुलीन ब्राह्मण युद्धमें क्षत्रियधर्मका पालन करता हो, उसे भी श्राद्धमें निमंत्रित करना चाहिये; परंतु जो वाणिज्य करता हो उसे कभी श्राद्धमें सम्मिलित न करें। राजन्! जो ब्राह्मण अग्निहोत्री हो, अपने ही गावंका निवासी हो, चोरी न करता हो और अतिथिसत्कारमें प्रवीण हों, उसे भी निमंत्रण दिया जा सकता है। भरतभूषण नरेश! जो तीनों समय गायत्री-मंत्रका जप करता है, भिक्षासे जीविका चलाता है और क्रियानिष्ठ है, वह श्राद्धमें निमंत्रण पाने का अधिकारी है।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. * जब कोई अपनी कन्याको इस शर्तपर ब्याहता है कि ’इससे जो पहला पुत्र होगा, उसे मैं गोद ले लूंगा और अपना पुत्र मानूंगा’ तो उसे ’पुत्रिकाधर्मके’ अनुसार विवाह’ कहते है। इस नियमसे प्राप्त होनेवाले पुत्र श्राद्धका अधिकारी नहीं है।

संबंधित लेख