पच्चीसवां अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
महाभारत: अनुशासनपर्व: पच्चीसवां अध्याय: श्लोक 41-71 का हिन्दी अनुवाद
उत्पातक तीर्थमें स्नान और अष्टावक्र तीर्थमें तर्पण करके बारह दिनोंतक निराहर रहनेसे नरमेधयज्ञका फल प्राप्त होता है। गयामें अश्मपृष्ठ (प्रेतशिला)-पर पितरोंको पिण्ड देनेसे पहली, निरविन्द पर्वतपर पिण्डदान करनेसे दूसरी तथा क्रौंचपदी नामक तीर्थमें पिण्ड अर्पित करनेसे तीसरी ब्रह्महत्याको दूर करके मनुष्य सर्वथा शुद्ध हो जाता है। कलविंग तीर्थमें स्नान करनेसे अनेक तीर्थोंमें गोते लगानेका फल मिलता है। अग्निपुर तीर्थमें स्नान करनेसे अग्निकन्यापुरका निवास प्राप्त होता है। करवीरपुरमें स्नान, विशालामें तर्पण और देवहदमें मज्जन करनेसे मनुष्य ब्रह्मरूप हो जाता है। जो सब प्रकार की हिंसाका त्याग करके जितेन्द्रिय-भावसे आवर्तनन्दा और महानन्दा तीर्थका सेवन करता है उसकी स्वर्गस्थ नन्दनवनमें अप्सराएं सेवा करती हैं। जो कार्तिकाकी पूर्णिमाको कृतिकाका योग होनेपर एकाग्रचित हो उर्वशी तीर्थ और लौहित्य तीर्थमें विधिपूर्वक स्नान करता है उसे पुण्डरीक यज्ञका फल मिलता है। रामहद (परशुराम-कुण्ड)-में स्नान और विपाशा नदीमें तर्पण करके बारह दिनोंतक उपवास करने वाला पुरूष सब छूट जाता है। महाहदमें स्नान करके यदि मनुष्य शुद्ध चितसे वहां एक मासतक निराहार रहे तो उसे जमदग्निके समान सद्गति प्राप्त होती है। जो हिंसाका त्याग करके सत्यप्रतिज्ञ होकर विन्ध्याचलमें अपने शरीरको कष्ट दे विनीतभावसे तपस्या का आश्रय लेकर रहता है उसे एक महीनेमें सिद्धि प्राप्त हो जाती है। नर्मदा नदी और शूर्पारक क्षेत्रके जलमें स्नान करके एक पक्षतक निराहार रहनेवाला मनुष्य दूसरे जन्ममें राजकुमार होता है। साधारण भावसे तीन महीनेतक जम्बूमार्गमें स्नान करनेसे तथा इन्द्रिय-संयमापूर्वक एकाग्रचित हो वहां एक ही दिन स्नान करनेसे भी मनुष्य सिद्धि प्राप्त कर लेता है। जो कोकामुख तीर्थमें स्नान करके अंजलिकाश्रमतीर्थमें जाकर सागका भोजन करता हुआ चीरवस्त्र धारण करके कुछ कालतक निवास करता है उसे दस बार कन्याकुमारी तीर्थके सेवनका फल प्राप्त होता है तथा उसे कभी यमराजके घर नहीं जाना पड़ता। जो कन्याकुमारी तीर्थमें निवास करता है वह मृत्युके पश्चात् देवलोकमें जाता है। महाबाहो! जो एकाग्रचित होकर अमावस्याको प्रभास-तीर्थका सेवन करता है उसे एक ही रातमें सिद्धि मिल जाती है तथा वह मृत्युके पश्चात् देवता होता है। उज्जानकतीर्थमें स्नान करके आष्टिषेणके आश्रम तथा पिंगाके आश्रममें गोता लगानेसे मनुष्य सब पापोंसे छुटकारा पा जाता है। जो मनुष्य कुल्यामें स्नान करके अघमर्षण मंत्रका जप करता है तथा तीन राततक वहां उपवासपूर्वक रहता है उसे अश्वमेधयज्ञका फल मिलता है। जो मानव पिण्डारक तीर्थ में स्नान करके वहां एक रात निवास करता है वह प्रातःकाल होते ही पवित्र होकर अग्निष्टोमयज्ञका फल प्राप्त कर लेता है। धर्मारण्यसे सुशोभित ब्रह्मसर तीर्थमें जाकर वहां स्नान करके पवित्र हुआ मनुष्य पुण्डरीकयज्ञका फल पाता है। मैनाका पर्वतपर एक महीनेतक स्नान और संध्योपासन करनेसे मनुष्य कामको जीतकर समस्त यज्ञोंको फल पा लेता है। सौ योजन दूरसे आकर कालोदक, नन्दिकुण्ढ तथा उतरमानस तीर्थमें स्नान करने वाला मनुष्य यदि भ्रूणहत्यारा भी हो तो वह उस पापसे मुक्त हो जाता है। वहां नन्दीश्वरकी मूर्तिका दर्शन करके मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। स्वर्गमार्गमें स्नान करनेसे वह ब्रह्मालोकमें जाता है। भगवान् काश्वशुर हिमवान् पर्वत परम पवित्र और संसारमें विख्यात है। वह सब रत्नोंकी खान तथा सिद्ध और चारणोंसे सेवित है। जो वेदान्तका ज्ञाता द्विज इस जीवनको नाशवान् समझकर उस पर्वतपर रहता और देवताओंका पूजन तथा मुनियोंको प्रणाम करके विधिपूर्वक अनशनके द्वारा अपने प्राणोंको त्याग देता है वह सिद्ध होकर सनातन ब्रह्मलोकको प्राप्त हो जाता है। जो काम, क्रोध, और लोभको जीतकर तीर्थोंमें स्नान करता है उसे उस तीर्थयात्राके पुण्यये कोई वस्तु दुर्लभ नहीं रहती । जो समस्त तीर्थोंके दर्शनकी इच्छा रखता हो, वह दुर्गम और विषम होनेके कारण जिन तीर्थोंमें शरीरसे न जा सके, वहां मनसे यात्रा करे। यह तीर्थ-सेवनका कार्य परम पवित्र, पुण्यप्रद, स्वर्गकी प्राप्तिका सर्वोतम साधन और वेदोंका गुप्त रहस्य है। प्रत्येक तीर्थ पावन और स्नानके योग्य होता है। तीर्थोंका यह माहात्म्य द्विजातियोंके, अपने हितैशी श्रेष्ठ पुरूषके, सुहदोंके तथा अनुगत शिष्यके ही कानमें डालना चाहिये। सबसे पहल महातपस्वी अंगिराने गौतमको इसका उपदेश दिया। अंगिराको बुद्धिमान् कश्यपजीसे इसका ज्ञान प्राप्त हुआ था। यह कथा महर्षियोंके पढ़ने योग्य और पावन वस्तुओंमें परम पवित्र है। जो सावधान एवं उत्साहयुक्त होकर सदा इसका पाठ करता है वह सब पापोंसे मुक्त होकर स्वर्गलोकमें जाता है। जो अंगिरामुनिके इस रहस्यमय मतको सुनता है, वह उत्तम कुलमें जन्म पाता और पूर्वजन्म की बातोंकी स्मरण करता है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें आगिंरसतीर्थयात्राविषयक पच्चीसवां अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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