छ्ब्बीसवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (राजधर्मानुशासनपर्व)
महाभारत: शान्तिपर्व : छ्ब्बीसवाँ अध्याय: श्लोक 1- 31 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय। इसी प्रसंग में उदारबुद्धि राजा युधिष्ठिर ने अर्जुन से यह युक्ति युक्त बात कही--। ’पार्थ! तुम जो यह समझते हो कि धन से बढ़कर कोई वस्तु नहीं है तथा निर्धन को स्वर्ग, सुख और अर्थ की भी प्राप्ति नहीं हो सकती, यह ठीक नहीं है। ’बहुत से मनुष्य केवल स्वाध्याय यज्ञ करके सिद्धि को प्राप्त हुए देखे जाते हैं। तपस्या में लगे हुए बहुतेरे मुनि ऐसे हो गये हैं, जिन्हें सनातन लोकों की प्राप्ति हुई है। ’धनंजय! सम्पूर्ण धर्मां को जानने वाले जो लोग ब्रह्मचर्य आश्रम में स्थित हो ऋषियों की स्वाध्याय-परम्परा की सदैव रक्षा करते हैं, देवता उन्हें ही ब्राह्मण मानते हैं। अर्जुन! तुम्हें सदा यह समझना चाहिये कि ऋषियों में से कुछ लोग वेद-शास्त्रों के स्वाध्याय में ही तत्पर रहते हैं, कुछ ज्ञानोपार्जन में संलग्न होते हैं और कुछ लोग धर्म पालन में ही निष्ठा रखते हैं। ’पाण्डुनन्दन! प्रभो! वानप्रस्थों के वचन को जैसा हमने समझा है, उसके अनुसार ज्ञाननिष्ठ महातमओं को ही राज्य के सारे कार्य सौंपने चाहिये। ’भारत! अज, पृश्नि, सिकत,अरूण और केतु नाम वाले ऋषि गणों ने तो स्वाध्याय के द्वारा ही स्वर्ग प्राप्त कर लिया था। ’धनंजय! दान,अध्ययन, यज्ञ और निग्रह - ये सभी कर्म बहुत कठिन हैं । इन बेदोक्त कर्मों का (सकाम भाव से) आश्रय लेकर कलिोग सूर्य के दक्षिण मार्ग से स्वर्ग में जाते हैं। इन कर्मयोगी पुरुषों के लोकों की चर्चा मैं पहले भी कर चुका हूँ। ’कुन्ती नन्दन! सूर्य के उत्तर में स्थित जो मार्ग है, जिसे तुम नियम के प्रभाव से देख रहे हो, वहाँ जो ये सनातन लोक प्रकाशित होते हैं, वे निष्काम यज्ञ करने वालों को प्राप्त होते हैं। ’पार्थ! प्राचीन इतिहास को जानने वाले लोग इन दोनों मार्गों में से उत्तर मार्ग की प्रशंसा करते हैं। वास्तव में संतोष ही सबसे बढ़कर स्वर्ग है और संतोष ही सबसे बड़ा सुख है। ’संतोष से बढ़कर कुछ नहीं है। जिसने क्रोध और हर्ष को जीत लिया है, उसी के हृदय में उस परम वैराग्यरूप संतोष की सम्यक् प्रतिष्ठा होती है और उसे ही सदा उत्तम सिद्धि प्राप्त होती है। ’इस प्रसंग में लोग राजा ययाति की गायी हुई इन गाथाओं को उदाहरण के तौर पर कहा करते हैं। जिनके द्वारा मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओं को उसी प्रकार समेट लिया करता है। ’ राजा ययाति ने कहा था- ’जब यह पुरुष किसी से नहीं डरता, जब इससे भी किसी को भय नहीं रहता तथा जब यह न तो किसी को चाहता है और न उससे द्वेष ही रखता है, तब ब्रह्म भाव को प्राप्त हो जाता है। ‘जब यह मन, वाणी और क्रिया द्वारा सम्पूर्ण भूतों के प्रति पाप- बुद्धि का परित्याग कर देता है, तब परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। ’’ जिसके मान और मोह दूर हो गये हैं, जो नाना प्रकार की आसक्तियों से रहित है तथा जिसे आत्मा का ज्ञान प्राप्त हो गया है, उस साधु पुरुष को मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है,। ’कुती नन्दन! मैं जो बात कह रहा हूँ, उसे अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों को संयम में रखकर सुनो! कुछ लोग धर्म की, कोई सदाचार की और दूसरे कितने ही मनुष्य धन की प्राप्ति के लिये सचेष्ट रहते हैं। ’जो धन के लिये चेष्टा करता है, उसका निष्चेष्ट होकर बैठ रहना ही ठीक है, क्यों कि धन और उसके आश्रित धर्म में महान् दोष दिखायी देता है। ’मैं प्रत्यक्ष देख रहा हूँ और तुम भी देख सकते हो, जो लोग धनोपार्जन के प्रयत्न में लगे हुए हैं, उनके लिये राज्य कर्मों को छोड़ना अत्यन्त कठिन हो रहा है। ’ जो धन के पीछे पड़े हुए हैं, उनमें साधुता दुर्लभ है; क्यों कि जो लोग दूसरों से द्रोह करते हैं, उन्हीं को धन प्राप्त होता है, ऐसा कहा जाता है तथा वह मिला हुआ धन प्रकारान्तर से प्रतिकूल ही होता है। ’शोक और भय से रहित होने पर भी जो मनुष्य सदाचार से भ्रष्ट है,उसे यदि धन की थोड़ी-सी तृष्णा हो तो वह दूसरों से ऐसा द्रोह करता है कि भ्रण-हत्या जैसे पाप का भी ध्यान नहीं रखता। ’अपना वेतन यथासमय पाते हुए भी जब भृत्यों को संतोष नहीं होता, तब वे स्वामी से अप्रसन्न रहते हैं और वह धनी दुर्लभ धन को पाकर यदि सेवकों को अधिक देता है तो उसे उतना ही अधिक संताप होता है, जितना चोर-डाकुओं से भय के कारण हुआ करता है। ’निर्धन को कौन क्या कह सकता है? वह सब प्रकार के भय से मुक्त हो सुखी रहता है। देवताओं की सम्पत्ति लेकर भी कोई धन से सुखी नहीं हो सकता। ’इस विषय में यज्ञ में ऋत्विजों द्वारा गायी हुई एक गाथा है जो तीनों वेदेां के आश्रित है, वह गाथा लोक में यज्ञ की प्रतिष्ठा करने वाली है। पुरानी बातों को जानने वाले लोग उसे ऐसे अवसरों पर दुहराया करते हैं। ’विधाता ने यज्ञ के लिये ही धन की सृष्टि की है और यज्ञ के लिये उसकी रक्षा करने के निमित्त पुरुष को उत्पन्न किया है; इस लिये सारे धन का यज्ञ कार्य में ही उपयोग करना चाहिये। भोग के लिये धन का उपयोग तो हितकर है और न उत्तम ही। ’धनवानों में श्रेष्ठ कुन्ती कुमार धनंजय! विधाता मनुष्यों को स्वार्थ के लिये भी जो धन देते हैं उसे यज्ञार्थ ही समझो। ’इसीलिये बुद्धिमान पुरुष यह समझते हैं कि धन कमी किसी एक के पास स्थिर नहीं रहता; अतः श्रद्धालु मनुष्य को चाहिये कि वह उस धन का दान कर और उसे यज्ञ में लगावे। ’प्राप्त किये हुए धन का दान करना ही उचित बताया है। उसे भोग में लगाना या संग्रह करके रखना ठीक नहीं है। जिसके सामने बहुत बड़ा कार्य यज्ञ आदि मौजूद है, उसे धन को संग्रह करके रखने की क्या आवश्यकता है? ’जो मन्दबुद्धि मानव अपने धर्म से गिरे हुए मनुष्यों को धन देते हैं, वे मरने के बाद सौ वर्षों तक विष्ठा भोजन करते हैं। ’लोग अधिकारी को धन नहीं देते और अनाधिकारी को दे डालते हैं, योग्य-अयोग्य पात्र का ज्ञान न होने से दानधर्म का सम्पादन भी कठिन है।’प्राप्त हुए धन का उपयोग करने में दो प्रकार की भूलें हुआ करती हैं, जिनहें ध्यान में रखना चाहिये। पहली भूल है अपात्र को धन देना और दूसरी है सुपात्र को धन न देना,।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में युधिष्ठिर का वाक्य विषयक छ्ब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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