एकोनत्रिंशो अध्याय: आदिपर्व (आस्तीकपर्व)
महाभारत: आदिपर्व: एकोनत्रिंशो अध्याय: श्लोक 25- 44 का हिन्दी अनुवाद
रोष और लोभरूपी दोष के सम्बन्ध से उन दोनों को तिर्यक योनि में जाना पड़ा है। वे दोनों विशालकाय जन्तु पूर्व जन्म के वैर का अनुसरण करके अपनी विशालता और बल के घमण्ड में चूर हो एक दूसरे से द्वेष रखते हुए इस सरोवर में रहते हैं। इन दोनों में एक जो सुन्दर महान गजराज है, वह जब सरोवर के तट पर आता है, तब उसके चिंघाड़ने की आवाज सुनकर जल के भीतर शयन करने वाला विशालकाय कछुआ भी पानी से ऊपर आता है। उस समय वह सारे सरोवर को मथ डालता है। उसे देखते ही यह पराक्रमी हाथी अपनी सूँड़ लपेटे हुए जल में टूट पड़ता है तथा दाँत, सूँड़, पूँछ और पैरों के वेग से असंख्य मछलियों से भरे हुए समूचे सरोवर में हलचल मचा देता है। उस समय पराक्रमी कच्छप भी सिर उठाकर युद्ध के लिये निकट आ जाता है। हाथी का शरीर छः योजन ऊँचा और बारह योजना लंबा है। कछुआ तीन योजन ऊँचा और दस योजना गोल है। वे दोनों एक दूसरे को मारने की इच्छा से युद्ध के लिये मतवाले बने रहते हैं। तुम शीघ्र जाकर उन दोनों को भोजन के उपयोग में लाओ और अपने इस अभीष्ट कार्य का साधन करो। कछुआ महान मेघ-खण्ड के समान है और हार्थी भी महान पर्वत के समान भयंकर है। उन्हीं दोनों को खाकर अमृत ले आओ।
उग्रश्रवाजी कहते हैं—शौनकजी ! कश्यपजी गरूड़ से ऐसा कहकर उस समय उनके लिये मंगल मनाते हुए बोले-‘गरूड़ ! युद्ध में देवताओं के साथ लड़ते हुए तुम्हारा मंगल हो। ‘पक्षिप्रवर ! भरा हुआ कलश, ब्राह्मण, गौएँ तथा और जो कुछ भी मागंलिक वस्तुएँ हैं, वे तुम्हारे लिये कल्याणकारी होगी।' ‘महाबली पक्षिराज ! संग्राम में देवताओं के साथ युद्ध करते समय ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, पवित्र हविष्य, सम्पूर्ण रहस्य तथा सभी वेद तुम्हें बल प्रदान करें।’ पिता के ऐसा कहने पर गरूड़ उस सरोवर के निकट गये। उन्होंने देखा, सरोवर का जल अत्यन्त निर्मल है और नाना प्रकार के पक्षी इसमें सब ओर चहचहा रहे हैं। तदनन्तर भयंकर वेगशाली अन्तरिक्षगामी गरूड़ ने पिता के वचन का स्मरण करके एक पंजे से हाथी को और दूसरे से कछुए को पकड़ लिया। फिर वे पक्षिराज आकाश में ऊँचे उड़ गये। उड़कर वे फिर उलम्बतीर्थ में जा पहुँचे। वहाँ (मेरू गिरिपर) बहुत से दिव्यवृ़क्ष अपनी सुवर्णमय शाखा प्रशाखाओं के साथ लहलहा रहे थे। जब गरूड़ उनके पास गये, तब उनके पंखों की वायु से आहत होकर वे सभी दिव्यवृ़क्ष इस भय से कम्पित हो उठे कि कहीं ये हमें तोड़ न डालें। गरूड़ रूचि के अनुसार फल देने वाले उन कल्य वृक्षों को काँपते देख अनुपम रूप-रंग तथा अंगों वाले दूसरे-दूसरे महावृक्षों की ओर चल दिये। उनकी शाखाएँ वैदूर्य मणि की थीं और वे सुवर्ण तथा रजतमय फलों से सुशोभित हो रहे थे। वे सभी महावृक्ष समुद्र के जल से अभिषिक्त होते रहते थे। वहीं एक बहुत बड़ा विशाल वट वृक्ष था। उसने मन के समान तीव्र वेग से आते हुए पक्षियों के सरदार गरूड़ से कहा। वटवृक्ष बोला—पक्षिराज ! यह जो मेरी सौ योजन तक फैली हुई सबसे बड़ी शाखा है, इसी पर बैठकर तुम इस हाथी और कछुए को खा लो। तब पर्वत के समान विशाल, शरीर वाले, पक्षियों में श्रेष्ठ, वेगशाली गरूड़ सहस्त्रों विहंगमों से सेवित उस महान वृक्ष को कम्पित करते हुए तुरन्त उस पर जा बैठे। बैठते ही अपने असह्म वेग से उन्होंने सघन पल्लवों से सुशोभित उस विशाल शाखा को तोड़ डाला।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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