उन्तीसवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (राजधर्मानुशासनपर्व)
महाभारत: शान्तिपर्व : उन्तीसवाँ अध्याय: श्लोक 105- 129 का हिन्दी अनुवाद
’सृंजय! हम सुनते हैं कि चित्र रथ के पुत्र शशबिन्दु भी मृत्यु से अपनी रक्षा न कर सके। उन महामना नरेश के एक लाख रानियाँ थी और उनके गर्भ से राजा के दस लाख पुत्र उत्पन्न हुए थे। ’ वे सभी राजकुमार सुवर्णमय कवच धारण करने वाले और उत्तम धनुर्धर थे। एक-एक राजकुमार को अलग-अलग सौ-सौ कन्याएँ व्याही गयी थीं। प्रत्येक कन्या के साथ सौ-सौ हाथी प्राप्त हुए थे। हर एक हाथी के पीछे सौ-सौ रथ मिले थे। ’प्रत्येक रथ के साथ सुवर्ण मालाधारी सौ-सौ घोडे़ थे। हर एक अश्व के साथ सौ गायें और एक-एक गाय के साथ सौ-सौ भेड़-बकरियाँ प्राप्त हुई थीं। ’महाराज! राजा शशबिन्दु ने यह अनन्त धनराशि अश्वमेध नामक महायज्ञ में ब्राह्मणों को दान कर दी थी। ’सृंजय! वे चारों कल्याणकारी गुणों में तुमसे बढे़-चढे़ थे और तुम्हारे पुत्र से बहुत अधिक पुण्यात्मा भी थे। जब वे भी मृत्यु से बच न सके, तब तुम्हारे पुत्र के लिये क्या कहा जाय? अतः तुम्हें अपने मरे हुए पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये। ’सृंजय! सुनने में आया है कि अमूर्तरया के पुत्र राजा गय की भी मृत्यु हुई थी। उन्होंने सौ वर्षां तक होम से अवशिष्ट अन्न का ही भोजन किया। ’एक समय अग्निदेव ने उन्हें वर माँगने के लिये कहा, तब राजा गयने ये वर माँगे, ’अग्निेदव! आपकी कृपा से दान करते हुए मेरे पास अक्षय धन का भंडार भरा रहे। धर्म में मेरी श्रद्धा वढ़ती रहे और मेरा मन सदा सत्य में ही अनुरक्त रहे’। ’सुना है कि उन्हें अग्नि देव से वे सभी मनोवाच्छित फल प्राप्त हो गये थे। उन्होंने एक हजार वर्षां तक बारंबार दर्श, पौर्णमास, चातुर्मास्य तथा अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान किया था। ’वे हजार वर्षों तक प्रतिदिन सबेरे उठ-उठ कर एक-एक लाख गौओं और सौ-सौ खच्चरों का दान करते थे। ’पुरुष प्रवर! इन्होंने सोमरस के द्वारा देवताओं को, धन के द्वारा ब्राह्मणों को, श्राद्ध कर्म से पितरों को और कामभोग द्वारा स्त्रियों को तृप्त किया था। ’राजा गयने महायज्ञ अश्वमेध में दस व्याम (पचास हाथ) चैड़ी ओर इससे दूनी लंबी सोने की पृथ्वी बनवाकर दक्षिणा रूप से दान की थी। ’पुरुष प्रवर नरेश! गंगा जी में जितने बालू के कण हैं, अमूर्तरया के पुत्र गयने उतनी ही गौओं का दान किया था। ’सृंजय! वे चारों कल्याण कारी गुणों में तुमसे बढे़-चढे़ थे और तुम्हारे पुत्र से बहुत अधिक पुण्यात्मा भी थे। जब वे भी गये तो तुम्हारे पुत्र से बहुत अधिक पुण्यात्मा भी थे। जब वे भी मर गये तो तुम्हारे पुत्र की क्या बात है? अतः तुम उसके लिये शोक न करो। ’सृजय! संस्कृति के पुत्र राजा रन्तिदेव भी काल के गाल में चले गये, यह हमारे सुनने में आया है। उन महातपस्वी नरेश ने इन्द्र की अच्छी तरह आराधना करके उनसे यह बर माँगा कि ’हमारे पास अन्न बहुत हो’ हम सदा अतिथियों की सेवा अवसर प्राप्त करें, हमारी श्रद्धा दूर न हो और हम किसी से कुछ भी न माँगें,। ’कठोर व्रत का पालन करने वाले, यशस्वी महात्मा राजा रन्तिदेव के पास गाँवों और जंगलों के पशु अपने-आप यज्ञ के लिये उपस्थित हो जाते थे। वहाँ भीगी चर्म राशि से जो जल बहता था, उससे एक विशाल नदी प्रकट हो गयी, जो चर्मण्वती (चम्बल) के नाम से विख्यात हुई। ’राजा अपने विशाल यज्ञ में ब्राह्मणों को सोने के निष्क दिया करते थे। वहाँ द्व्जिलोग पुकार-पुकार कहते कि ’ब्राह्मणों! यह तुम्हारे लिये निष्क है, यह तुम्हारे लिये निष्क है’ परंतु कोई लेने वाला आगे नहीं बढ़ता था। फिर वे यह कहरक कि ’तुम्हारे लिये एक सहस्त्र निष्क है’, लेने वाले ब्राह्मणों को उपलब्ध कर पाते थे। ’बुद्धिमान् राजा रन्तिदेव के उस यज्ञ में अन्वाहार्य अग्नि में आहुति देने के लिये जो उपकरण थे तथा द्रव्य-संग्रह के लिये जो उपकरण-घड़े, पात्र कड़ाहे, बटलोई और कठौते आदि समान थे, उनमें से कोई भी ऐसा नहीं था, जो सोने का बना हुआ न हो। संस्कृति के पुत्र राजा रन्ति देव के घर में जिस रात को अतिथियों का समुदाय निवास करता था, उस समय उन्हें बीस हजार एक सौ गौएँ छूकर दी जीती थीं। ’वहाँ विशुद्ध मणिमय कुण्डल धारण किये रसोइये पुकार पुकार कर कहते थे कि ’आप लोग खूब दाल-भात खाइये। आज का भोजन पहले जैसा-नहीं है, अर्थात् पहले की अपेक्षा बहुत अच्छा है’। सृंजय! रन्ति देव तुम से पूर्वोंक्त चारों गुणों में बढे़-चढे़ थे और तुम्हारे पुत्र से बहुत अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये तो तुम्हारे पुत्र की क्या बात है? अतः तुम उसके लिये शोक न करो।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख