महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 33 श्लोक 1-17

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तैतीसवॉं अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: तैतीसवॉं अध्याय: श्लोक 1-27 का हिन्दी अनुवाद

ब्राहामणके महत्‍व का वर्णन युधिष्ठिरने पूछा- पितामह ! राजाके सम्‍पर्ण कृत्‍योंमें किसका महत्‍व सबसे अधिक है? किस कर्मका अनुष्‍ठान करनेवाला राजा इहलोक और परलोक दोनोंमें सुखी होता है? भीष्‍मजीने कहा- भारत! राजसिंहासनपर अभिषिक्‍त होकर राज्‍यशासन करनेवाला राजाका सबसे प्रधान कर्त‍व्‍य यही हैं कि वह ब्राहामणोंकी सेवा-पूजा करे। भरतश्रेष्‍ठ! अक्षय सुखकी इच्‍छा रखनेवाले नरेशको ऐसा ही करना चाहिये। राजा वेदज्ञ ब्राहामणों तथा बड़े-बूढ़ोंका सदा ही आदर करे। नगर और जनपद में रहनेवाले बहुश्रुत ब्राहाणोंको मधुर वचन बोलकर, उतम भोग प्रदानकर तथा सादर शीश झुकाकर सम्‍मानित करे। राजा जिस प्रकार अपनी तथा अपने पुत्रोंकी रक्षा करता है। उसी प्रकार इन बा्रहामणों की भी रक्षा करे।। यही राजा का प्रधान कर्तव्‍य हैं, जिसपर उसे सदा ही दृष्टि रखनी चाहिये। जो इन ब्राहामणोंके भी पूजनीय हों उन पुरुषोंका भी सुस्थिर चितसे पूजन करे; क्‍योंकि उनके शान्‍त रहनेपर ही सारा राष्‍ट्र शान्‍त एवं सुखी रह सकता है।। राजाके लिये ब्राहामण ही पिताकी भॉंती पूजनीय, वन्‍दनीय और माननीय हैं। जैसे प्र‍ाणियोंका जीवन वर्षा करनेवाले इन्‍द्रपर निर्भर हैं उसी प्रकार जगत् की जीवन-यात्रा ब्राहमणों पर ही अवलम्बित हैं। ये सत्‍य–पराक्रमी ब्राहमण जब कुपित होकर उग्ररुप धारण कर लेते हैं उस समय अभिचार या अन्‍य उपायोंद्वारा संकल्‍पमात्रसे अपने विरोधियोंको भस्‍म कर सकते हैं और उनके सर्वनाश कर डालते हैं। मुझे इनका अन्‍त दिखायीं नहीं देता। इनके लिये किसी भी दिशाका द्वार बंद नहीं है। ये जिस समय क्रोधमें भर जाते हैं उस समय दावानलकी लपटोंके समान हो जाते है। और वैसी ही दाहक दृष्टिसे देखने लगते हैं। बड़े-बड़े साहसी भी इनसे भय मानते हैं, क्‍योंकि इनके भीतर गुण ही अधिक होते हैं। इन ब्राहामणोंसे कुछ तो घास-फूससे ढके हुए कृपकी तरह अपने तेजको छिपाए रखते हैं और कुछ निर्मल आकाशकी भांति प्रकाशित होते रहते हैं। कुछ हठी होते हैं और कुछ रुईकी तरह कोमल। इनमें जो श्रेष्‍ठ पुरुष हों, उनका सम्‍मान करना चाहिये; परंतु जो श्रेष्‍ठ न हों, उनकी भी निन्‍दा नहीं करनी चाहिये। इन ब्राहमणोंमें कुछ तो अत्‍यन्‍त शठ होते हैं और दूसरे महान् तपस्‍वी। भरतश्रेष्‍ठ ! कितने ही ब्राहमण राजाओं तथा अन्‍य लोगोंके यहॉं सब प्रकारके करनेमें समर्थ होते हैं और अनेक ब्राहामण नाना प्रकारके आकार धारण करते हैं। नाना प्रकारके कर्मोंमें संलग्‍न तथा अनेक कर्मोंसे जीविका चलानेवाले उन धर्मज्ञ एवं सत्‍पुरुष ब्राहामणोंका सदा ही गुण गाना चाहिये।नरेश्‍वर! प्राचीनकालसे ही ये महाभाग ब्राहामण-लोग देवता, पितर, मनुष्‍य, नाग और राक्षसोंके पूजनीय हैं। ये द्विज न तो देवताओं, न पितरों, न गन्‍धर्वों, न राक्षसों, न असुरों और न पिशाचोंद्वारा ही जीते जा सकते हैं। ये चाहें तो जो देवता नहीं है उसे देवता बना दें और जो देवता हैं उन्‍हें भी देवत्‍वसे गिरा दें। ये जिसे राजा बनाना चाहें वही राजा रह सकता हैं। जिसे राजा के रुपमें ये न देखना चा‍हें उसका पराभव हो जाता हैं। राजन्! मैं तुमसे यह सच्‍ची बात बता रहा हूँ कि जो मूढ़ मानव ब्राहामणोंकी निन्‍दा करते हैं वे नष्‍ट हो जाते हैं- इसमें संशय नहीं है। निन्‍दा और प्रशंसामें निपुण तथा लोगोंके यश और अपयश बढ़ानेमें तत्‍पर रहनेवाले द्विज अपने प्रति सदा द्वेष रखनेवालोंपर कुपित हो उठते हैं। ब्राहामण जिसकी प्रशंसा करते हैं, उस पुरुषका अभ्‍युदय होता है और जिसको वे शाप देते हैं, उसका एक क्षणमें पराभव हो जाता हैं। शक, यवन और काम्‍बोज आदि जातियॉं पहले क्षत्रिय ही थीं, किंतु ब्राहाणोंकी कृपादृष्टिसे वञ्चित होनेके कारण उन्‍हें वृषल (शुद्र और म्‍लेच्‍छ) होना पड़ा। विजयी वीरोंमें श्रेष्‍ठ! द्राविड़, कलिंग, पुलिन्‍द, उशीनर, कोलिसर्प और माहिषक आदि क्षत्रिय जातियाँ भी ब्राहाणोंकी कृपादृष्टि ने मिलनेसे ही शुद्र शुद्रहो गयी। ब्राहामणोंसे हार मान लेनेमें ही कल्‍याण है, उन्‍हें हराना अच्‍छा नहीं है। जो इस सम्‍पूर्ण जगत् को मार डाले तथा जो ब्राहामण वध करे, उन दोनोंका पाप समान नहीं है। महर्षियोंका कहना है कि ब्रम्‍हाहत्‍या महान् दोष हैं। ब्राहामणोंकी निन्‍दा किसी तरह नहीं सुननी चाहिये। जहॉं उनकी निन्‍दा होती हो, वहाँ नीचे मुँह करके चुपचाप बैठे रहना या वहॉंसे उठकर चल देना चाहिये। इस पृथ्‍वीपर ऐसा कोई मनुष्‍य न तो पैदा हुआ है और न आगे पैदा होगा ही जो ब्राहामण के साथ विरोध करके सुखपूर्वक जीवित रहनेका साहस करें। राजन् ! हवाको मुट्ठीमें पकड़ना, चन्‍द्रमाको हाथसे छूना और पृथ्‍वीको उठा लेना जैसे अत्‍यन्‍त कठिन काम है, उसी तरह इस पृथ्‍वीपर ब्राहामणोंको जीतना दुष्‍कर हैं। इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि ब्राहामणप्रशंसा नाम त्रयस्त्रिंशोअध्‍याय।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें ब्राहामणकी प्रशंसा नामक तैतीसवॉं अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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