महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 29 श्लोक 122-138
उन्तीसवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (राजधर्मानुशासनपर्व)
’सृजंन! इक्ष्वा कुवंशी पुरुष सिंह महामना सगर भी मरे थे, ऐसा सुनने में आया है। उनका पराक्रम अलौकिक था। ’जैसे वर्षा के अन्त (शरद्) में बादलों से रहित आकाश के भीतर तारे नक्षत्र राज चन्द्रमा का अनुसरण करते हैं, उसी प्रकार राजा सगर जब युद्ध आदि के लिये कहीं यात्रा करते थे, तब उनके साठ हजार पुत्र उन नरेश के पीछे-पीछे चलते थे। ’पूर्वकाल में राजा के प्रताप से एकछत्र पृथ्वी उनके अधिकार में आ गयी थी। उन्होंने एक सहस्त्र अश्वमेध यज्ञ करके देवताओं को तृप्त किया था। ’राजा ने सोने के खंभों से युक्त पूर्णतः सोने का बना हुआ महल, जो कमल के समान नेत्रोंवाली सुन्दरी स्त्रियों की शय्याओं से सुशोभित था, तैयार कराकर योग्य ब्राह्मणों को दान किया। साथ ही नाना प्रकार की भोग सामग्रियाँ भी प्रचुरमात्रा में उन्हें दी थीं। उनके आदेश से ब्राह्मणों ने उनका सारा धन आपस में बाँट लिया था। ’एक समय क्रोध में आकर उन्होंने समुद्र से चिन्हित सारी पृथ्वी खुदवा डाली थी। उन्हीं के नाम पर समुद्र की ’सागर’ संज्ञा हो गयी। ’सृजय! वे चारों कल्याणकारी गुणों में तुमसे बढे़ हुए थे। तुम्हारे पुत्र से बहुत अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये, तब तुम्हारे पुत्र की क्या बात है? अतः तुम उसके लिये शोक न करो। ’सृंजय! बेन के पुत्र महाराज पृथु को भी अपने शरीर का त्याग करना पड़ा था, ऐसा हमने सुना है। महर्षियों ने महान् वन में एकत्र होकर उनका राज्याभिषेक किया था। ’ऋषियों ने यह सोचकर कि सब लोगों में धर्म की मर्यादा के प्रथित (स्थापित) करेंगे, उनका नाम पृथु रक्खा था। वे क्षत अर्थात् दुःख से सबका त्राण करते थे, इसलिये क्षत्रिय कहलाये। ’वेन नन्दन पृथु को देखकर समस्त प्रजाओं ने एक साथ कहा कि ’हम इनमें अनुरक्त हैं’ इस प्रकार प्रजा का रंजन करने के कारण ही उनका नाम ’राजा’ हुआ। ’पृथृ के शासन काल में पृथ्वी बिना जोते ही धान्य उत्पन्न करती थी, वृक्षों के पुट-पुट में मधु(रस) भरा था और सारी गौएँ, एक-एक दोन दूध देती थीं। ’मनुष्य नीरोग थे। उनकी सारी कामनाएँ सर्वथा परिपूर्ण थीं और उन्हें कभी किसी चीज से भय नहीं होता था। सब लोग इच्छानुसार घरों या खेतों में रह लेते थे। ’जब वे समुद्र की ओर यात्रा करते, उस समय उसका जल स्थिर हो जाता था। नदियों की बाढ़ शान्त हो जाती थी। उनके रथ की ध्वजा कभी मग्न नहीं होती थी। ’राजा पृथु ने अश्वमेध नामक महायज्ञ में चार सौ हाथ ऊँचे इक्कीस सुवर्णमय पर्वत ब्राह्मणों को दान किये थे। ’सृजय! वे चारों कल्याणकारी गुणों में तुमसे बढे-चढे़ थे और तुम्हारे पुत्र की अपेक्षा बहुत अधिक पुण्यात्मा भी थे। जब वे भी मर गये तो तुम्हारे पुत्र की क्या बात है? अतः तुम अपने मरे हुए पुत्र के लिये शोक न करो। ’सृंजय! तुम चुपचाप क्या सोच रहे हो। राजन्! मेरी इस बात को क्यों नहीं सुनते हो? जैसे मरणासन्न पुरुष के ऊपर अच्छी तरह प्रयोग में लायी हुई औषधि व्यर्थ जाती है, उसी प्रकार मेरा यह सारा प्रवचन निष्फल तो नहीं हो गया?,
सृंजय ने कहा - नारद्! पवित्र गन्धवाली माला के समान विचित्र अर्थ से भरी हुई आपकी इस वाणी को मैं सुन रहा हूँ। पुण्यात्मा महामनस्वी और कीर्तिशाली राजर्षियों के चरित्र से युक्त आपका यह वचन सम्पूर्ण शोकों का विनाश करने वाला है। महर्षि नारद! आपने जो कुछ कहा है, आपका वह उपदेश व्यर्थ नहीं गया है। आपका दर्शन करके ही मैं शोक रहित गया हूँ। ब्रह्मवादी मुने! मैं आपका यह तृत्प नहीं हो रहा हूँ और अमृतपान के समान उससे तृप्त नहीं हा रहा हो रहा हूँ। प्रभो! अपका दर्शन अमोध है। मैं पुत्र शोक के संताप से दग्ध हो रहा हूँ। यदि आप मुझपर कृपा करें तो मेरा पुत्र फिर जीवित हो सकता है और आपके प्रसाद से मुझे पुनः पुत्र-मिलन का सुख सुलभ हो जायेगा।
नारद् जी कहते हैं- राजन् तुम्हारे यहाँ जो यह सुवर्णष्ठीबी नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था और जिसे पर्वत मुनि ने तुम्हें दिया था, वह तो चला गया। अब तो चला गया । अब मे पुनः हिरण्यनाभ नामक नाम एक पुत्र दे रहा हूँ, जिसकी आयु एक हजार वर्षों की होगी। इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में सोलह राजाओं का उपाख्यान विषयक पच्चीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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