सैंतीसवॉं अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
महाभारत: अनुशासनपर्व: सैंतीसवॉं अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
दानपात्रकी परीक्षा
युधिष्ठिरने पूछा- पितामह! दानका पात्र कौन होता हैं? अपरिचित पुरुष या बहुत दिनोंतक अपने साथ रहा पुरुष। अथवा किसी दूर देशसे आया हुआ मनुष्य? इनमेंसे किसको दानका उतम पात्र समझ्ना चाहिये?। भीष्मजीने कहा- युधिष्ठिर ! कितने ही याचकोंका तो यज्ञ, गुरुदक्षिणा या कुटुम्बका भ्ररण-पोषण आदि कार्य ही मनोरथ होता है और किन्हींका उतम मौनव्रतसे रहकर निर्वाह करना प्रयोजन होता हैं। इनमेंसे जो-जो याचक जिस किसी वस्तुकी याचना करे उन सबके लिये यही कहना चाहिये कि ‘हम देंगे’ (किसीको निराश नहीं करना चाहिये)। परंतु हमने सुना है कि ‘जिनके भरण-पोषणका अपने उपर भार है उस समुदायको कष्ट दिये बिना ही दाताको दान करना चाहिये। जो पोष्यवर्गको कष्ट देकर या भूखे मारकर दान करता है वह अपने आपको नीचे गिराता है। इस दृष्टिसे विचार करनेपर जो पहलेसे परिचित नहीं है या जो चिरकालसे साथ रह चुका है, अथवा जो दूर देशसे आया हुआ है- इन तीनोंको ही विद्वान पुरुष दान-पात्र समझते हैं। युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! किसी प्राणीको पीड़ा न दी जाय और धर्ममें भी बाधा न आने पाये, इस प्रकार दान देना उचित हैं; परंतु पात्रकी यर्थाथ पहचान कैसे हो? जिससे दिया हुआ दान पीछे संतापका कारण न बने। भीष्मजीने कहा- बेटा! ॠत्विक्, पुरोहित, आचार्य, शिष्य, सम्बन्धी, विद्वान और दोष-दृष्टिसे रहित पुरुष- ये सभी पूजनीय और माननीय हैं। इनसे भिन्न प्रकारके तथा भिन्न बर्ताववाले जो लोग हैं, वे सब सत्कारके पात्र नहीं हैं, अत: एकाग्रचित होकर प्रतिदिन सुपात्र पुरुषोंकी परीक्षा करनी चाहिये।। भारत! क्रोधका अभाव, सत्य-भाषण, अहिंसा, इन्द्रियसंयम, सरलता, द्रोहहीनता, अभिमानशुन्यता, लज्जा, सहनशीलता, दम और मनोनिग्रह- ये गुण जिनमें स्वभावत: दिखायी दें और धर्मविरुध्द कार्य दृष्टिगोचर न हों,वे ही दानके उतम पात्र और सम्मानके अधिकारी हैं। जो पुरुष बहुत दिनोंतक अपने साथ रहा हो, एवं जो कहींसे तत्काल आया हो, वह पहलेका परिचित हो या अपरिचित, वह दानका पात्र और सम्मानका अधिकारी है। वेदोंको अप्रामाणिक मानना, शास्त्रकी आज्ञाका उल्लघंन करना तथा सर्वत्र अव्यवस्था फैलाना- ये सब अपना ही नाश करनेवाले हैं। जो ब्राहामण अपने पाडित्यका अभिमान करके व्यर्थके तर्कका आश्रय लेकर वेदोंकी निन्दा करता है, आन्वीक्षिकी निरर्थक तर्कविद्यामें अनुराग रखता है, सत्पुरुषोंकी सभामें कोरी तर्ककी बातें कहकर विजयीकी पाता, शास्त्रानुकूल युक्तियोंका प्रतिपादन नहीं करता, जोर-जोरसे हल्ला मचाता और ब्राहाणोंके प्रति सदा अतिवाद (अमर्यादित वचन)- का प्रयोग करता हैं, जो सबपर संदेह करता है, जो बालकों और मुर्खौका-सा व्यवहार करता तथा कटूवचन बोलता हैं, तात! ऐसे मनुष्यको अस्पृश्य समझना चाहिये। विद्वान पुरुषोंने ऐसे पुरुषको कुता माना है। जैसे कुता भूँकने और काटनेके लिये निकट आ जाता है, उसी प्रकार वह बहस करने और शास्त्रोंका खण्डन करनेके लिये इधर-उधर दौड़ता-फिरता है (ऐसा व्यक्ति दानका पात्र नहीं है)। मनुष्यको जगत् के व्यवहारपर दृष्टि डालनी चाहिेये। धर्म और अपने कल्याणके उपायोंपर भी विचार करना चाहिये। ऐसा करनेवाला मनुष्य सदा ही अभ्युदयशील होता है। जो यज्ञ-यागादि करके देवताओं के ॠणसे, वेदोंका स्वाध्याय करके ॠषियोंके ॠण से, श्रेष्ठ पुत्रकी उत्पति तथा श्राध्द करके पितरोंके ॠण से, श्रेष्ठ पुत्रकी उत्पति तथा श्राध्द करके पितरोंके ॠणसे, दान देकर ब्राहामणोंके ॠणसे और आतिथ्य सत्कार करके अतिथियोंके ॠण से मुक्त होता है तथा कमश: विशुध्द और विनययुक्त प्रयत्नसे शास्त्रोक्त अनुष्ठान करता है, वह गृहस्थ कभी धर्मसे भ्रष्ट नहीं होता।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें पात्र की परीक्षाविषयक सैंतीसवॉं अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख