महाभारत आदि पर्व अध्याय 2 श्लोक 304-324

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Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०६:१२, ३ जुलाई २०१५ का अवतरण
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द्वितीय अध्‍याय: आदिपर्व (पर्वसंग्रह पर्व)

महाभारत: आदिपर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 316- 346 का हिन्दी अनुवाद

इसी पर्व में शोकाकुल धृतराष्ट्र का अन्तःपुर की स्त्रियों के साथ कौरवों के युद्ध स्थान में जाने का वर्णन है। वहीं वीर पत्नियों के अत्यन्त करूणापूर्ण विलाप का कथन है। वहीं गान्धारी और धृतराष्ट्र के क्रोधावेश तथा मूर्च्छित होने का उल्लेख है। उस समय उन क्षत्राणियों ने युद्ध में पीठ न दिखाने वाले अपने शूरवीर पुत्रों, भाईयों और पिताओं को रणभूमि में मरा हुआ देखा। पुत्रों और पौत्रों के वध से पीड़ित गान्धारी के पास आकर भगवान श्रीकृष्ण ने उनके क्रोध को शान्त किया। इस प्रसंग का भी इसी पर्व में वर्णन किया गया है। वहीं यह भी कहा गया है कि परम बद्धिमान और सम्पूर्ण धर्मात्माओं में श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर ने वहाँ मारे गये समस्त राजाओं के शरीरों का शास्त्र विधि से दाह-संस्कार किया और कराया। तदनन्तर राजाओं को जलांजलिदान के प्रसंग में उन सबके लिये तर्पण का आरम्भ होते ही कुन्ती द्वारा गुप्त रूप से उत्पन्न हुए अपने पुत्र कर्ण का गूढ़ वृत्तान्त प्रकट किया गया, यह प्रसंग आता है। महर्षि व्यास ने ये सब बातें स्त्रीपर्व में कही हैं। शोक और विकलता का संचार करने वाला यह ग्यारहवाँ पर्व श्रेष्ठ पुरुषों के चित्त को भी विह्वल करके उनके नेत्रों से आँसू की धारा प्रवाहित करा देता है। इस पर्व में सत्ताईस अध्याय कहे गये हैं। इसके श्लोकों की संख्या सात सौ पचहत्तर (775) कही गयी है। इस प्रकार परम बुद्धिमान व्यास जी ने महाभारत का यह उपाख्यान कहा है। स्त्रीपर्व के पश्चात बारहवाँ पर्व शान्तिपर्व के नाम से विख्यात है। यह बुद्धि और विवेक को बढ़ाने वाला है। इस पर्व में यह कहा गया है कि अपने पितृतुल्य गुरूजनों, भाईयों, पुत्रों सगे सम्बन्धी एवं मामा आदि को मरवाकर राजा युधिष्ठिर के मन में बड़ा निवेंद (दुःख एवं वैराग्य) हुआ। शान्ति पर्व में बाण शय्यापर शयन करने वाले भीष्म जी के द्वारा उपदेश किये हुए धर्मो का वर्णन है। उत्तम ज्ञान की इच्छा रखने वाले राजाओं का उन्हें भली- भाँति जानना चाहिये। उसी पर्व में काल और कारण की अपेक्षा रखने वाले देश और काल के अनुसार व्यवहार में लाने योग्य आपद्धर्मों का भी निरूपण किया गया है, जिन्हें अच्छी तरह जान लेने पर मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता है। शान्तिपर्व में विविध एवं अद्भत मोक्षधर्मों का भी बडे विस्तार के साथ प्रतिपादन किया गया है। इस प्रकार यह बारहवाँ पर्व कहा गया है, जो ज्ञानीजनो को अत्यन्त प्रिय है। इस पर्व में तीन सौ उन्तालीस (339) अध्याय हैं और तपोधनो ! इसकी श्लोक संख्या चौदह हजार सात सौ बत्तीस (14732) है। इसके बाद उत्तम अनुशासनपर्व है, यह जानना चाहिये। जिसमें कुरूराज युधिष्ठिर गंगानन्दन भीष्मजी से धर्म का निश्चित सिद्धान्त सुनकर प्रकृतिस्थ हुए, यह बात कही गयी है। इसमें धर्म और अर्थ से सम्बन्ध रखने वाले हितकारी आचार- व्यवहार का निरूपण किया गया है। साथ ही नाना प्रकार के दानों के फल भी कहे गये हैं। दान के विशेष पात्र, दान की उत्तम विधि, आचार और उसका विधान, सत्य भाषण की पराक्राष्ठा, गौओं और ब्राह्मणों का माहात्म्य, धर्मों का रहस्य तथा देश और काल (तीर्थ और पर्व) की महिमा-ये सब अनेक वृत्तान्त जिसमें वर्णित हैं, वह उत्तम अनुशासन पर्व है इसी में भीष्म को स्वर्ग की प्राप्ति कही गयी है। ।334-336।। धर्म का निर्णय करने वाला यह पर्व तेरहवाँ है। इसमें एक सौ छियालीस (146) अध्याय हैं। और पूरे आठ हजार (8000) श्लोक कहे गये हैं। तदनन्तर चौदहवें आश्वमेधिक नाम पर्व की कथा है। जिसमें परम उत्तम योगी संवर्त तथा राजा मरुत का उपाख्यान है। युधिष्ठिर को सुवर्ण के खजाने की प्राप्ति और परीक्षित के जन्म का वर्णन है। पहले अश्वत्थामा के अस्‍त्र की अग्नि से दग्ध हुए बालक परीक्षित का पुनः श्रीकृष्ण के अनुग्रह से जीवित होना कहा गया है। सम्पूर्ण राष्ट्रों में घूमने के लिये छोड़े गये अश्वमेध सम्बन्धी अश्व के पीछे पाण्डुनन्दन अर्जुन के जाने और उन-उन देशों में कुपित राजकुमारों के साथ उनके युद्ध करने का वर्णन है। पुत्रि का धर्म के अनुसार उत्पन्न हुए चित्रांग कुमार वभ्रुवाहन ने युद्ध में अर्जुन को प्राण संकट की स्थिति में डाल दिया था; यह कथा भी अश्वमेध पर्व में ही आयी है। वहीं अश्वमेध महायज्ञ में नकुलो उपाख्यान आया है। इस प्रकार यह परम अदभुत अश्वमेधिक पर्व कहा गया है। इसमें एक सौ तीन अध्याय पढ़े गये है। तत्वदर्शी व्यास जी ने इस पर्व में तीन हजार तीन सौ बीस (3320) श्लोकों की रचना की है।तदनन्तर आश्रम वासिक नामक पंद्रहवें पर्व का वर्णन है। जिसमें गान्धारी सहित राजा धृतराष्ट्र और विुदर के राज्य छोड़कर वन के आश्रम में जाने का उल्लेख हुआ है। उस समय धृतराष्ट्र को प्रस्थान करते देख सती साध्वी कुन्ती भी गुरूजनों की सेवा में अनुरक्त हो अपने पुत्र का राज्य छोड़कर उन्हीं के पीछे-पीछे चली गयीं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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