महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 52 श्लोक 1-20

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बावनवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (राजधर्मानुशासनपर्व)

महाभारत: शान्तिपर्व : बावनवाँ अध्याय: श्लोक 1-34 का हिन्दी अनुवाद

भीष्म का अपनी असमर्थता प्रकट करना, भगवान का उन्हें वर देना तथा ऋषियों एवं पाण्डवों का दूसरे दिन आने का संकेत करके वहाँ से विदा होकर अपने अपने स्थानों को जाना

वैशम्पायनजी कहते है- राजन! श्रीकृष्ण का यह धर्म और अर्थ से युक्त हितकर वचन सुनकर शान्तनुनन्दन भीष्म ने दोनों हाथ जोडकर कहा-।

लोकनाथ! महाबाहो! शिव! नारायण! अच्युत! आपका यह वचन सुनकर मैं आनन्द के समुद्र में निमग्र हो गया हूं। भला मैं आपके समीप क्या कह सकूँगा? जब कि वाणी का सारा विषय आपकी वेदमयी वाणी में प्रतिष्ठित है। देव! लोम में कहीं भी जो कुछ कर्तव्य किया जाता है, वह सब आप बुद्धिमान परमेश्वर से ही प्रकट हुआ है। जो मनुष्य देवराज इन्द्र के निकट देवलोक का वृत्तान्त बताने का साहस कर सके, वही आपके सामने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की बात कह सकता है। मधुसूदन! इन बाणों के गडने से जो जलन हो रही है, उसके कारण मेरे मन में बडी व्यथा है। सारा शरीर पीडा के मारे शिथिल हो गया है और बुद्धि कुछ काम नहीं दे रही है। गोविन्द! ये बाण विष और अग्नि के समान मुझे निरन्तर पीडा दे रहे है; अतः मुझमें कुछ भी कहने की शक्ति नहीं रह गयी है। मेरा बल शरीर को छोडता सा जान पडता है। ये प्राण निकलने को उतावले हो रहे है। मेरे मर्मस्थानों में बडी पीडा हो रही है; अतः मेरा चित्त भ्रान्त हो गया है। दुर्बलता के कारण मेरी जीभ तालू में सट जाती है, ऐसी दशा में मैं कैसे बोल सकता हूँ? दशार्हकुल की वृद्धि करने वाले प्रभो! आप मुझपर पूर्णरूप से प्रसन्न हो जाइये। महाबाहो! क्षमा कीजिये। मैं बोल नही सकता। आपके निकट प्रवचन करने में बृहस्पतिजी भी शिथिल हो सकते है; फिर मेरी क्या बिसात है? मधुसूदन! मुझे न तो दिशाओं का ज्ञान है और न आकाश एवं पृथ्वी का ही भान हो रहा है। केवल आपके प्रभाव से ही जी रहा हूँ। इसलिये आप स्वयं ही जिसमें धर्मराज का हित हो, वह बात शीघ्र बताइये; क्योंकि आप शास्त्रों के भी शास्त्र है। श्रीकृष्ण! आप जगत के कर्ता और सनातन पुरूष है। आपके रहते हुए मेरे जैसा कोई भी मनुष्य कैसे उपदेश कर सकता है? क्या गुरू के रहते हुए शिष्य उपदेश देने का अधिकारी है।

भगवान श्रीकृष्ण बोले- भीष्मजी! आप कुरूकुल का भार वहन करने वाले, महापराक्रमी, परम धैर्यवान, स्थिर तथा सर्वार्थदर्शी है; आपका यह कथन सर्वथा युक्तिसंगत है।।गंगानन्दन भीष्म! प्रभो! बाणों के आघात से होने वाली पीडा के विषय में जो आपने कहा है, उसके लिये आप मेरी प्रसन्नता से दिये हुए इस वर को ग्रहण करे। गंगाकुमार !अब आपको न ग्लानि होगी न मूर्छा; न दाह होगा न रोग, भूख और प्यास का कष्ट भी नहीं रहेगा। अनघ! आपके अन्तः करण में सम्पूर्ण ज्ञान प्रकाशित हो उठेंगे। आपकी बुद्धि किसी भी विषय में कुण्ठित नहीं होगी। भीष्म!आपका मन मेघ के आवरण से मुक्त हुए चन्द्रमा की भाँति रजोगुण और तमोगुण से रहित होकर सदा सत्वगुण में स्थित रहेगा। आप जिस जिस धर्मयुक्त या अर्थयुक्त विषय का चिन्तन करेंगे, उसमें आपकी बुद्धि सफलतापूर्वक आगे बढती जायेगी। अमितपराक्रमी नृपश्रेष्ठ! आप दिव्य दृष्टि पाकर स्वेदज, अण्डज, उदिभज्ज और जरायुज इन चारों प्रकार के प्राणियों को देख सकेंगे। भीष्म! ज्ञानदृष्टि से सम्पन्न होकर आप संसारबन्धन में पडनेवाले सम्पूर्ण जीवसमुदाय को उसी तरह यथार्थ रूप से देख सकेंगे, जैसे मत्स्य निर्मल जल में सब कुछ देखता रहता है।

वैशम्पायनजी कहते है- राजन्! तदन्तर व्याससहित सम्पूर्ण महर्षियों ऋक्, यजु और सामवेद के मन्त्रों से भगवान श्रीकृष्ण का पूजन किया। तत्पश्चात जहाँ गंगापुत्र भीष्म और पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर के साथ वृष्णिवंशी भगवान श्रीकृष्ण विराजमान थे, वहाँ आकाश से सभी ऋतुओं में खिलने वाले दिव्य पुष्पों की वर्षा होने लगी। सब प्रकार के बाजे बजने लगे, अप्सराओं के समुदाय गीत गाने लगे। वहाँ कुछ भी ऐसा नहीं देखा जाता था जो अहितकर और अनिष्टकारक हो। शीतल, सुखद, मन्द, पवित्र एवं सर्वथा सुगन्धयुक्त वायु चल रही थीं, सम्पूर्ण दिशाएँ शान्त थीं और उनमें रहने वाले पशु एवं पक्षी शान्तभाव से मनोहर वचन बोल रहे थे। इसी समय दो ही घडी में भगवान सहस्त्रकिरणमाली दिवाकर पश्चिम दिशा के एकान्त प्रदेश में वहाँ के वनप्रान्त को दग्ध करते हुए से दिखायी दिये। तब सभी महर्षियों ने उठकर भगवान श्रीकृष्ण, भीष्म तथा राजा युधिष्ठिर से विदा माँगी। इसके बाद पाण्डवों सहित श्रीकृष्ण, सात्यकि, संजय तथा शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य ने उन सबको प्रणाम किया। उनके द्वारा भलीभाँति पूजित हुए वे धर्मपरायण महर्षि, हमलोग फिर कल सबेरे यहाँ आयेंगे। ऐसा कहकर तुरंत ही अपने अपने अभीष्ट स्थान को चले गये। इसी प्रकार श्रीकृष्ण और पाण्डव भी गंगानन्दन भीष्म जी से जाने की आज्ञा ले उनकी परिक्रमा करके अपने मंगलमय रथों पर जो बैठे। सुवर्णनिर्मित विचित्र कूबरोंवाले रथों, पर्वताकार मतवाले हाथियों, गरूड के समान तीव्रगति से चलने वाले घोडों तथा हाथ में धनुष बाण आदि लिये हुए पैदल सैनिकों से युक्त वह विशाल सेना रथों के आगे और पीछे भी बहुत दूरतक फैलकर वैसी ही शोभा पाने लगी, जैसे ऋक्षवान पर्वत के पास पहुँचकर पूर्व और पश्चिम दिशा में भी प्रवाहित होने वाली महानदी नर्मदा सुशोभित होती है। इसके बाद पूर्व दिशा के आकाश में भगवान चन्द्रदेव का उदय हुआ, जो उस सेना का हर्ष बढा रहे थे और सूर्य ने जिन बडी बडी ओषधियों का रस पी लिया था, उन सबकों अपनी सुधावर्षी किरणों द्वारा पुनः उनके स्वभाविक गुणों से सम्पन्न कर रहे थे। तदनन्तर वे यदुकुल के श्रेष्ठ वीर तथा पाण्डव सुरपुर के समान शोभा पाने वाले हस्तिनापुर में प्रवेश करके यथायोग्य श्रेष्ठ महलों के भीतर चले गये। ठीक उसी तरह, जैसे थके मादे सिंह विश्राम के लिये पर्वत की कन्दराओं में प्रवेश करते है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में युधिष्ठिर आदि का आगमन विषयक बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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