महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 43 श्लोक 1-18

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तैतालसवॉं अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: तैतालसवॉं अध्याय: श्लोक 1-27 का हिन्दी अनुवाद

देवशर्माकाविपुलका निर्दोष बताकर समझाना और भीष्‍मका युधिष्ठिरको स्त्रियोंकी रक्षाके लिये आदेश देना भीष्‍मजी कहते हैं-नरेश्‍वर ! अपने शिष्‍य विपुलको आया हुआ देख महातेजस्‍वी देवशर्माने उनसे जो बात कही, वही बताता हूँ, सुनो। देवशर्माने पूछा- मेरे प्रिय शिष्‍य विपुल ! तुमने उस महान् वनमें क्‍या देखा था? वे लोग तुम्‍हें तो जानते हैं। उन्‍हें तुम्‍हारी अन्‍तरात्‍माका तथा मेरी पत्‍नी रुचिका भी पूरा परिचय प्राप्‍त है। विपुलने कहा- ब्रहार्षे ! मैंने जिसे देखा था, वह स्‍त्री-पुरुषका जोड़ा कौन था? तथा वे छ: पुरुष भी कौन थे जो मुझे अच्‍छी तरह जानते थे और जिनके विषयमें आप भी मुझसे पूछ रहे हैं? देवशर्माने कहा- ब्रहान ! तुमने जो स्‍त्री-पुरुषका जोड़ा देखा था उसे दिन और रात्रि समझो। वे दोनों चक्रवत् घूमते रहते हैं, अत: उन्‍हें तुम्‍हारे पापका पता हैं। विप्रवर ! तथा जो अत्‍यन्‍त हर्षमें भरकर जुआ खेलते हुए छ: पुरुष दिये उन्‍हें छ: ॠतु जानो; वे भी तुम्‍हारे पापको जानते हैं। ब्रहान्! पापात्‍मा मनुष्‍य एकान्‍तमें पापकर्म करके ऐसा विश्‍वास न करे कि कोई मुझे इस पापकर्ममें लिप्‍त नहीं जानता हैं। एकान्‍त में पापकर्म करते हुए पुरुषको ॠतुऍं तथा रात-दिन सदा देखते रहते हैं। तुमने मेरी स्‍त्रीकी रक्षा करते समय जिस प्रकार वह पापकर्म किया था,उसे करके भी मुझे नहीं बताया नहीं था, अत: तुम्‍हें वे ही पापाचारियोंके लोक मिल सकते थे। गुरुको अपना पापकर्म न बताकर हर्ष और अभिमानमें भरा देख वे पुरुष तुम्‍हें अपने कर्मकी याद दिलाते हुए वैसी बातें बोल रहे थे, जिन्‍हें तुमने अपनेकानों सुना हैं। पापीमें जो पापकर्म है और शुभकर्मी मनुष्‍यमें जो शुभकर्म है, उन सबको दिन, रात और ॠतुऍं सदा जानती रहती हैं। ब्रहान ! यौवनमदसे उन्‍मत रहनेवाली उस स्‍त्रीकी (उसके शरीरमें प्रवेश किये बिना) रक्षा करना तुम्‍हारे वशकी बात नहीं थी। अत: तुमने अपनी ओरसे कोई पाप नहीं किया; इसलिये मैं प्रसन्‍न हूँ।। जो मानसिक दोषसे रहित हैं उन्‍हें पाप नहीं लगता। यही बात तुम्‍हारे लिये भी हुई हैं। अपनी प्राणवल्‍लभा पत्‍नीका आलिंगन और भावसे किया जाता है और अपनी पुत्रीका और भावसे; अर्थात् उसे वात्‍सल्‍यस्‍नेहसे गले लगाया जाता है। तुम्‍हारे मनमें राग नहीं हैं। तुम सर्वथा विशुध्‍द हो, इसलिये रुचिके शरीरमे प्रवेश करके भी दूषित नहीं हुए हो।। द्विजश्रेष्‍ठ ! यदि मैं इस कर्ममें तुम्‍हारा दुराचार देखता तो कुपित होकर तुम्‍हें शाप दे देता और ऐसा करके मेरे मनमें अन्‍यथा विचार या पश्‍चाताप नहीं होता। स्त्रियॉं पुरुषमें आसक्‍त होती हैं और पुरुषोंका भी इसमें पूर्णत: वैसा ही भाव होता है। यदि तुम्‍हारा भाव उसकी रक्षा करनेके विपरीत होता तो तुम्‍हें शाप अवश्‍य प्राप्‍त होता और मेरा विचार तुम्‍हें शाप देनेका अवश्‍य हो जाता। विपुलसे ऐसा कहकर प्रसन्‍न हुए म‍हर्षि देवशर्मा अपनी पत्‍नी और शिष्‍यके साथ स्‍वर्गमें जाकर वहॉंका सुख भोगने लगे। राजन् ! पूर्वकालमें गंगाके तटपर कथा-वार्ताके बीचमें ही महामुनि मार्कण्‍डेयने मुझे यह आख्‍यान सुनाया था। अत: कुन्‍तीनन्‍दन ! मैं तुमसे कहता हूँ कि तुम्‍हें स्त्रियोंकी सदा रक्षा करनी चाहिये। स्त्रियोंमें भली और बूरी दोनों बातें हमेशा देखी जाती हैं। राजन् ! यदि स्त्रियॉं साध्‍वी एवं पतिव्रता हों तो बड़ी सौभाग्‍यशालिनी होती हैं। संसारमें उनका आदर होता हैं और वे सम्‍पूर्ण जगत् की माता समझी जाती हैं। इतना ही नहीं, वे अपने पातिव्रत्‍यके प्रभावसे वन और काननोंसहित इस सम्‍पूर्ण पृथ्‍वीको धारण करती हैं।। किंतु दुराचारिणी असती स्त्रियॉं कुलका नाश करनेवाली होती हैं, उनके मनमें सदा पाप ही बसता हैं। नरेश्‍वर ! फिर ऐसी स्त्रियोंको उनके शरीरके साथ ही उत्‍पन्‍न हुए लक्षणोंसे पहचाना जा सकता है।। नृपश्रेष्‍ठ ! महामनस्‍वी पुरुषोंद्वारा ही ऐसी स्त्रियॉंकी इस प्रकार रक्षा कीजा सकती है; अन्‍यथा स्त्रियोंकी रक्षा असम्‍भव हैं। पुरुषसिंह ! ये स्त्रियॉं तीखे स्‍वभावकी तथा दुस्‍सह शक्तिशाली होती हैं। कोई भी पुरुष इनका प्रिय नहीं हैं। मैथुनकालमें जो इनका साथ देता है वही उतनेही समयके लिये प्रिय होता हैं। भरतश्रेष्‍ठ ! पाण्‍डुनन्‍दन ! ये स्त्रियॉं कृत्‍याओंके समान मनुष्‍योंके प्राण लेनेवाली होती हैं। उन्‍हें जब पहले पुरुष स्‍वीकार कर लेता हैं तब वे आगे चलकर वे दूसरेके स्‍वीकार करने योग्‍य भी बन जाती हैं, अर्थात् व्‍यभिचारदोषके कारण एक पुरुषको छोड़कर दूसरेपर आसक्‍त हो जाती हैं। किसी एक ही पुरुषमें इनका सदा अनुराग नहीं बना रहता। नरेश्‍वर ! मनुष्‍योंको स्त्रियोंके प्रति न तो विशेष आसक्‍त होना चाहिये और न उनसे ईर्ष्‍या ही करनी चाहिये। वैराग्‍यपूर्वक धर्मका आश्रय लेकर पर्व आदि दोषका त्‍याग करते हुए ॠतुस्‍नानके पश्‍चात् उनका उपभोग करना चाहिये। कौरवनन्‍दन! इसके विपरीत बर्ताव करनेवाला मनुष्‍य विनाशको प्राप्‍त होता है। नृपश्रेष्‍ठ ! सर्वत्र सब प्रकारसे मोक्षका ही सम्‍मान किया जाता है। नरेश्‍वर ! एकमात्र विपुलने ही स्‍त्रीकी रक्षा की थी। इस त्रिलोकीमें दूसरा कोई ऐसा पुरुष नहीं है जो युवती स्त्रियोंकी इस प्रकार रक्षा कर सके।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें विपुलका उपाख्‍यानविषयक तैतालसवॉं अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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