महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 54 श्लोक 23-39
चौवनवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (राजधर्मानुशासनपर्व)
जनार्दन! आपके निरन्तर चिन्तन से मेरी शक्ति इतनी बढ गयी है कि मैं जवान सा हो गया हूँ। आपके प्रसाद से अब मैं कल्याणकारी उपदेश देने में समर्थ हूँ। माधव! तो भी मैं यह जानना चाहता हूँ कि आप स्वयं ही पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर को कल्याणकारी उपदेश क्यों नहीं देते है? इस विषय में आप क्या कहना चाहते है? यह शीघ्र बताइये।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- कुरूनन्दन! आप मुझे ही यश और श्रेय का मूल समझें। संसार में जो भी सत् और असत् पदार्थ हैं, वे सब मुझसे ही उत्पन्न हुए है। चन्द्रमा शीतल किरणों से सम्पन्न हैं यह बात कहने पर जगत में किसको आश्चर्य होगा? अर्थात् किसी को नहीं होगा। उसी प्रकार सम्पूर्ण यश से सम्पन्न मुझ परमेश्वर के द्वारा कोई उत्तम उपदेश प्राप्त हो तो उसे सुनकर कौन आश्चर्य करेगा? महातेजस्वी भीष्म! मुझे इस जगत् में आपके महान् यश की प्रतिष्ठा करनी है, अतः मैंने अपनी विशाल बुद्धि आपको समर्पित की है। भूपाल! जब तक यह अचला पृथ्वी स्थिर होगी, तब तक सम्पूर्ण जगत में आपकी अक्षय कीर्ति विख्यात होती रहेगी। भीष्म! आप पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर के प्रश्न करने पर उसके उत्तर में जो कुछ कहेंगे, वह वेद के सिद्धान्त की भाँति इस भूतल पर मान्य होगा। जो मनुष्य आपके इस उपदेश को प्रमाण मानकर उसे अपने जीवन में उतारेगा, वह मृत्यु के बाद सब प्रकार के पुण्यों का फल प्राप्त करेगा। भीष्म! इसीलिये मैंने आपको दिव्य बुद्धि प्रदान की है कि जिस किसी प्रकार से भी आपके महान यश का इस भूतल पर विस्तार हो। जगत में जब तक भूतल पर मनुष्य के यश का विस्तार होता रहता है, तब तक उसकी परलोक में अचल स्थिति बनी रहती है, यह निश्चय है भारत! नरेश्वर! मरने से बचे हुए ये भूपाल आपके पास धर्म की जिज्ञासा से बैठे है। आप इन सबको धर्म का उपदेश करें। आपकी व्यवस्था सबसे बडी है। आप शास्त्रज्ञान तथा सदाचार से सम्पन्न है। साथ ही समस्त राजधर्मों तथा अन्य धर्मों के ज्ञान में भी आप कुशल है। जन्म से लेकर आज तक किसी ने भी आप में कोई भी दोष ( पाप ) नहीं देखा है। सब राजा इस बात को स्वीकार करते हैं कि आप सम्पूर्ण धर्मों के ज्ञाता है। राजन्! आप इन राजाओं को उसी प्रकार उत्तम नीति का उपदेश करें, जैसे पिता अपने पुत्र को सद्धर्म की शिक्षा देता है। आपने देवताओं और ऋषियों की सदा उपासना की है; इसलिये आपको अवश्य ही सम्पूर्ण धर्मों का उपदेश करना चाहिये। मनीषी पुरूषों ने यह धर्म बताया है कि श्रेष्ठ विद्वान पुरूष से जब कुछ पूछा जाय तो उसे उचित है कि वह सुनने की इच्छा वाले लोगों को धर्म का उपदेश दे। प्रभो! जो मनुष्य जानते हुए भी श्रद्धापूर्वक प्रशन करने वाले को उपदेश नहीं देता, उसे अत्यन्त दुःखदायक दोष की प्राप्ति होती है; अतः भरतश्रेष्ठ! धर्म को जानने की इच्छा वाले अपने पुत्रों और पौत्रों के पूछने पर उन्हें सनातन धर्म का उपदेश करें; क्योंकि आप धर्मशास्त्रों के विद्वान है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में श्रीकृष्ण वाक्यविषयक चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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