महाभारत आदि पर्व अध्याय 40 श्लोक 1-20

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चत्‍वारिंशो अध्‍याय: आदिपर्व (आस्तीकपर्व)

महाभारत: आदिपर्व: चत्‍वारिंशो अध्‍याय: श्लोक 1- 32 का हिन्दी अनुवाद

शौनकजी ने पूछा—सूतनन्दन ! आपने जिस जरत्कारू ऋषि का नाम लिया है, उन महात्मा मुनि के सम्बन्ध में मैं यह सुनना चाहता हूँ, कि पृथ्वी पर उनका जरत्कारू नाम क्यों प्रसिद्ध हुआ? जरत्कारू शब्द की व्युत्पत्ति क्या है? यह आप ठीक-ठीक बताने की कृपा करें। उग्रश्रवाजी ने कहा—शौनकजी ! जरा कहते हैं क्षय को और कारू शब्द दारूण का वाचक है। पहले उनका शरीर कारू अर्थात् खूब इकटठा-कटठा था। उसे परम बुद्धिमान् महर्षि ने धीरे-धीरे तीव्र पतस्या द्वारा क्षीण बना दिया। ब्रह्मन् इसलिये उनका नाम जरत्कारू पड़ा। वासुकि की बहिन के भी जरत्कारू नाम पड़ने का यही कारण था। उग्रश्रवाजी के ऐसा कहने पर धर्मात्मा शौनक उस समय खिलखिलाकर हँस पड़े और फिर उग्रश्रवाजी को सम्बोधित करके बोले—‘तुम्हारी बात उचित है’। शौनकजी बोले—सूतपुत्र ! आपने पहले जो जरत्कारू नाम की व्युत्पत्ति बतायी है, वह सब मैंने सुन ली। अब मैं यह जानना चाहता हूँ कि आस्तीक मुनि का जन्म किस प्रकार हुआ? शौनक जी का यह वचन सुनकर उग्रश्रवा ने पुराणशास्त्र के अनुसार आस्तीक के जन्म का वृत्तान्त बताया। उग्रश्रवाजी बोले—नागराज वासुकि ने एकाग्रचित्त हो खूब सोच समझकर सब सर्पों को यह संदेश दे दिया—‘मुझे अपनी बहिन का विवाह जरत्कारू मुनि के साथ करना है’। तदनन्तर दीर्घकाल बीत जाने पर भी कठोर व्रत का पालन करने वाले परम बुद्धिमान् जरत्कारू मुनि केवल तप में ही लगे रहे। उन्होंने स्त्रीपंग्रह की इच्छा नहीं की। ऊर्ध्‍वरेता ब्रह्मचारी थे। तपस्या में संलग्न रहते थे। नित्य नियमपूर्वक वेदों का स्वध्याय करते थे। उन्‍हें कहीं से कोई भय नहीं था। वे मन और इन्द्रियों को सदा काबू में रखते थे। महात्मा जरत्कारू सारी पृथ्वी पर घूम आये; किंतु उन्होंने मन से कभी स्त्री की अभिलाषा नहीं की। ब्रह्मन् ! तदनन्तर किसी दूसरे समय में इस पृथ्वी पर कौरव वंशी राजा परीक्षित् राज्य करने लगे। युद्ध में समस्त धनुधारियों में श्रेष्ठ उनके प्रपितामह महाबाहु पाण्डु जिस प्रकार पूर्वकाल में शिकार खेलने के शौकीन हुए थे, उसी प्रकार राजा परीक्षित् भी थे। महाराज परीक्षित् वराह, तरक्षु (व्याघ्रविशेष), महर्षि तथा दूसरे-दूसरे नाना प्रकार के वन के हिंसक पशुओं का शिकार खेलते हुए वन में घूमते रहते थे। एक दिन उन्होंने गहन वन में धनुष लेकर झुकी हुई गाँठ वाले बाण से एक हिंसक पशु को बींध डाला और भागने पर बहुत दूर तक उसका पीछा किया। जैसे भगवान् रूद्र आकाश में मृगशिरा नक्षत्र को बींधकर उसे खोजने के लिये धनुष हाथ में लिये इधर-उधर घूमते फिरे, उसी प्रकार परीक्षित् भी घूम रहे थे। उनके द्वारा घायल किया हुआ मृग कभी वन में जीवित बचकर नहीं जाता था; परंतु आज जो महाराज परीक्षित् का घायल किया हुआ मृग तत्काल अदृश्य हो गया था, वह वास्तव में उनके स्वर्गवास का मूर्तिमान् कारण था। उस मृग के साथ राजा परीक्षित् बहुत दूर तक खिंचे चले गये। उन्हें बड़ी थकावट आ गयी। वे प्यास से व्याकुल हो उठें और इसी दशा में वन में शमीक मुनि के पास आये। वे मुनि गौओं के रहने के स्थान मे आसन पर बैंठे थे और गौओं का दूध पीते समय बछड़ों के मुख से जो बहुत सा फेन निकलता, उसी को खा पीकर तपस्या करते थे। राजा परीक्षित् ने कठोर व्रत का पालन करने वाले उन महर्षि के पास बड़े वेग से आकर पूछा। पूछते समय वे भूख और थकावट से बहुत आतुर हो रहे थे और धनुष को उन्होंने ऊपर उठा रक्खा था। वे बोले—‘ब्रह्मन् ! मैं अभिमन्यु का पुत्र राजा परीक्षित् हूँ। मेरे वाणों से विद्ध होकर एक मृग कहीं भाग निकला है। क्या आपने उसे देखा है?’ मुनि मौन-व्रत का पालन कर रहे थे, अतः उन्होंने राजा को कुछ भी उत्तर नहीं दिया। तब राजा ने कुपित हो धनुष की नोक से एक मरे हुए साँप को उठाकर उनके कंधे पर रख दिया, तो भी मुनि ने उनकी उपेक्षा कर दी। उन्होंने राजा से भला या बुरा कुछ भी नहीं कहा। उन्हें इस अवस्था में देख राजा नरीक्षित् ने क्रोध त्याग दिया और मन-ही-मन व्यथित हो पश्चात्ताप करते हुए वे अपनी राजधानी को चले गये। वे महर्षि ज्यो-के-त्यो बैठे रहे। राजाओं में श्रेष्ठ भूपाल परीक्षित् अपने धर्म के पालन में तत्पर रहते थे, अतः उस समय उनके द्वारा तिरस्कृत होने पर भी क्षमाशील महामुनि ने उन्हें अपमानित नहीं किया। भरतवंश शिरोमणि नृपश्रेष्ठ परीक्षित् उन धर्मपरायण मुनि को यथार्थ रूप में नहीं जानते थे; इसीलिये उन्होंने महर्षि का अपमान किया। मुनि के श्रृंगी नामक एक पुत्र था, जिसकी अभी तरूणावस्था थी। वह महान् तपस्वी, दुःसह तेज से सम्पन्न और महान् व्रतधारी था। उसमें क्रोध की मात्रा बहुत अधिक थी; अतः उसे प्रसन्न करना अत्यन्त कठिन था। वह समय-समय पर मन और इन्द्रियों को संयम में रखकर सम्पूर्ण प्राण्यिों के हित में तत्पर रहने वाले, उत्तम आसन पर विराजमान आचार्य देव की सेवा में उपस्थित हुआ करता था।।26।। श्रृंगी उस दिन आचार्य की आज्ञा लेकर घर को लौट रहा था। रास्ते में उसका मित्र ऋषि कुमार कृश, जो धर्म के लिये कष्ट उठाने के कारण सदा ही कृश (दुर्वल) रहा करता था, खेलता मिला। उसने हँसते-हँसते श्रृंगी ऋषि को उसके पिता के सम्बन्ध में ऐसी बात बतायी, जिसे सुनते ही वह रोष में भर गया द्विजश्रेष्ठ ! मुनिकुमार श्रृंगी क्रोध के आवेश में विनाशकारी हो जाता था। कृश ने कहा—श्रृं‍गिन् ! तुम बड़े तपस्वी और तेजस्वी बनते हो, किंतु तुम्हारे पिता अपने कंधे पर मुर्दा सर्प ढो रहे हैं। अब कभी अपनी तपस्या पर गर्व न करना। हम जैसे सिद्ध, ब्रह्मवेत्ता तथा तपस्वी ऋषि पुत्र जब कभी बातें करते हों, उस समय तुम वहाँ कुछ न बोलना। कहाँ है तुम्हारा पोरूष का अभिमान, कहाँ गयीं तुम्हारी वे दर्पभरी बातें? जब तुम अपने पिता को मुर्दा ढ़ोते चुपचाप देख रहे हों । मुनिजन शिरोमणे ! तुम्हारे पिता के द्वारा कोई अनुचित कर्म नहीं बना था; इसलिये जैसे मेरे ही पिता का अपमान हुआ हो उस प्रकार तुम्हारे पिता के तिरस्कार से में अत्यन्त दुखी हो रहा हूँ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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