एकचत्वारिंशो अध्याय: आदिपर्व (आस्तीकपर्व)
महाभारत: आदिपर्व: एकचत्वारिंशो अध्याय: श्लोक 1- 33 का हिन्दी अनुवाद
उग्रश्रवाजी कहते हैं—शौनकजी ! कृश के ऐसा कहने पर तेजस्वी श्रृंगी ऋषि को बड़ा क्रोध हुआ। अपने पिता के कंधे पर मृतक (सर्प) रक्खे जाने की बात सुनकर वह रोष और शोक से संतप्त हो उठा। उसने कृश की ओर देखकर मधुर वाणी में पूछा—‘भैया ! बताओ तो, आज मेरे पिता अपने कंधे पर मृतक कैसे धारण कर रहे हैं?’ कृश ने कहा—तात ! आज राजा परीक्षित् अपने शिकार के पीछे दौड़ते हुए आये थे। उन्होंने तुम्हारे पिता के कंधे पर मृतक साँप रख दिया है। श्रृंगी बोला—कृश ! ठीक-ठीक बताओ, मेरे पिता ने उस दुरात्मा राजा का क्या अपराध किया था? फिर मेरी तपस्या का बल देखना। कृश ने कहा—अभिमन्यु पुत्र राजा परीक्षित् अकेले शिकार खेलने आये थे। उन्होंने एक शीघ्रगामी हिंसक मृग (पशु) को बाण से बींध डाला; किंतु उस विशाल वन में विचरते हुए राजा को वह मृग कहीं दिखायी न दिया। फिर उन्होंने तुम्हारे मौनी पिता को देखकर उसके विषय में पूछा। राजा भूख-प्यास और थकावट से व्याकुल थे। इधर तुम्हारे पिता काठ की भाँति अविचल भाव से बैठे थे। राजा ने बार-बार तुम्हारे पिता से उस भागे हुए मृग के विषय में प्रश्न किया, परंतु मौन-व्रर्तावलम्बी होने के कारण उन्होंने कुछ उत्तर नहीं दिया। तब राजा ने धनुष की नोक से एक मरा हुआ साँप उठाकर उनके कंधे पर डाल दिया। श्रृंगिन् ! संयमपूर्वक व्रत का पालन करने वाले तुम्हारे पिता अभी उस अवस्था में बैठे हैं और वे राजा परीक्षित् अपनी राजधानी हस्तिनापुर को चले गये हैं। उग्रश्रवाजी कहते हैं—शौनकजी ! इस प्रकार अपने पिता के कंधे पर मृतक सर्प के रक्खे जाने का समाचार सुनकर ऋषिकुमार श्रृंगी क्रोध से जल उठा। कोप से उसकी आँखें लाल हो गयी। वह तेजस्वी बालक रोष के आवेश में आकर प्रचण्ड क्रोध के वेग से युक्त हो गया था। उसने जल से आचमन करके हाथ में जल लेकर उस समय राजा परीक्षित् को इस प्रकार शाप दिया। श्रृंगी बोल—जिस पापात्मा नरेश ने वैसे धर्म-संकट में पड़े हुए मेरे बूढ़े पिता के कंधे पर मरा साँप रख दिया है, ब्राह्मणों का अपमान करने वाले उस कुरूकुल कलंक पापी परीक्षित् को आज से सात रात के बाद प्रचण्ड तेजस्वी पन्नगोत्तम तक्षक नामक विषैला नाग अत्यन्त कोप में भरकर मेरे वाक्य बल से प्रेरित हो यमलोक पहुँचा देगा। उग्रश्रवाजी कहते हैं—इस प्रकार अत्यन्त क्रोध पूर्वक शाप देकर श्रृंगी अपने पिता के पास आया, जो उस गोष्ठ में कंधे पर मृतक सर्प धारण किये बैठे थे। कंधे पर रक्खे हुए मुर्दे साँप से संयुक्त पिता को देखकर श्रृंगी पुनः क्रोध से व्याकुल हो उठा। वह दुःख से आँसू वहाने लगा। उसने पिता से कहा—‘तात ! उस दुरात्मा राजा परीक्षित् द्वारा अपने इस अपमान की बात सुनकर मैंने उसे क्रोध पूर्वक जैसा शाप दिया हैं, वह कुरूकुलाधम वैसे ही। भयंकर शाप के योग्य हैं। आज के सातवें दिन नागराज तक्षक उस पापी को अत्यन्त भयंकर यमलोक में पहुँचा देगा।’ब्रह्मन् ! इस प्रकार क्रोध में भरे हुए पुत्र से उसके पिता शमीक ने कहा।। शमीक बोले—वत्स ! तुमने शाप देकर मेरा प्रिय कार्य नहीं किया हैं। यह तपस्वियों का धर्म नहीं है। हम लोग उन महाराज परीक्षित् के राज्य में निवास करते हैं और उनके द्वारा न्याय पूर्वक हमारी रक्षा होती है। अतः उनको शाप देना मुझे पसंद नहीं है। हमारे जैसे साधु पुरूषों को तो वर्तमान राजा परीक्षित् के अपराध को सब प्रकार से क्षमा ही करना चाहिये। बेटा ! यदि धर्म को नष्ट किया जाय तो वह मनुष्य का नाश कर देता है, इसमें संशय नहीं है। यदि राजा रक्षा न करे तो हमें भारी कष्ट पहुँच सकता है। पुत्र. ! हम राजा के बिना सुख पूर्वक धर्म का अनुष्ठान नहीं कर सकते। तात ! धर्म पर दृष्टि रखने वाले राजाओं के द्वारा सुरक्षित होकर हम अधिक से अधिक धर्म का आचरण कर पाते हैं। अतः हमारे पुण्यकर्मो में धर्मतः उनका भी भाग है। इसलिये वर्तमान राजा परीक्षित् के अपराध को तो क्षमा ही कर देना चाहिये। परीक्षित् तो विशेष रूप से अपने प्रपितामह युधिष्ठिर आदि की भाँति हमारी रक्षा करते हैं। शक्तिशाली पुत्र ! प्रत्येक राजा को इस प्रकार प्रजा की रक्षा करनी चाहिये। वे आज भूखे और थके-मांदे यहाँ आये थे। तपस्वी नरेश मेरे इस मौन व्रत को नहीं जानते थे; मैं समझता हूँ इसीलिये उन्होंने मेरे साथ ऐसा बर्ताव कर दिया। जिस देश में राजा न हो वहाँ अनेक प्रकार के दोष (चोर आदि के भय) पैंदा होते हैं। धर्म की मर्यादा त्यागकर उच्छृडंखल वने हुए लोगों को राजा अपने दण्ड के द्वारा शिक्षा देता है। दण्ड से भय होता है, फिर भय से तत्काल शान्ति स्थापित होती है। जो चोर आदि के भय से उद्विग्न है, वह धर्म का अनुष्ठान नहीं कर सकता है। वह उद्विग्न पुरूष यज्ञ, श्राद्व आदि शास्त्रीय कर्म का आचरण भी नहीं कर सकता। राजा से धर्म की स्थापना होती है और धर्म से स्वर्गलोक की प्रतिष्ठा (प्राप्ति) होती है। राजा से सम्पूर्ण यज्ञ कर्म प्रतिष्ठित होते हैं और यज्ञ से देवताओं की प्रतिष्ठा होती है। देवता के प्रसन्न होने से वर्षा होती है, वर्षा से अन्न पैदा होता है और अन्न से निरन्तर मनुष्यों के हित का पोषण करते हुए राज्य का पालन करने वाला राजा मनुष्यों के लिये विधाता (धारण-पोषण करने वाला) है। राजा दस श्रोत्रिय के समान है, ऐसा मनु जी ने कहा है। वे तपस्वी राजा यहाँ भूखे-प्यासे ओर थके-मांदे आये थे। उन्हें मेरे इस मौन-ब्रत का पता नहीं था, इसलिये मेरे न बोलने से रूष्ट होकर उन्होंने ऐसा किया है। तुमने मूर्खतावश बना विचारे क्येां यह दुष्कर्म कर डाला? बेटा ! राजा हम लोगों से शाप पाने योग्य नहीं हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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