तृचत्वारिंशो अध्याय: आदिपर्व (आस्तीकपर्व)
महाभारत: आदिपर्व: तृचत्वारिंशो अध्याय: श्लोक 1- 36 का हिन्दी अनुवाद
तक्षक बोला—काश्यप ! यदि इस जगत् में मेरे डँसे हुए रोगी की कुछ भी चिकित्सा करने में तुम समर्थ हो तो मेरे डँसे हुए इस वृक्ष को जीवित कर दो। द्विजश्रेष्ठ ! तुम्हारे पास जो उत्तम मन्त्र का बल है, उसे दिखाओ और यत्न करो। लो, तुम्हारे देखते-देखते इस वटवृ़क्ष को मैं भस्म कर देता हूँ। कश्यप ने कहा—नागराज ! यदि तुम्हें इतना अभिमान है तो इस वृक्ष को डँसोे। भुजगम ! तुम्हारे डँसे हुए इस वृक्ष को मैं अभी जीििवत कर दूँगा। उग्रश्रवाजी कहते हैं—महात्मा कश्यप के ऐसा कहने पर सर्पों में श्रेष्ठ नागराज तक्षक ने निकट जाकर वरगद के वृक्ष को डँस लिया। उस महाकाय विषधर सर्प के डँसते ही उसके विष से व्याप्त हो वह वृक्ष सब ओर से जल उठा। इस प्रकार उस वृक्ष को जलाकर नागराज पुनः कश्यप से बोला—‘द्विजश्रेष्ठ ! अब तुम यत्न करो और इस वृ़क्ष को जिला दो’। उग्रश्रवाजी कहते हैं—शौनकजी ! नागराज के तेज से भस्म हुए उस वृ़क्ष की सारी भस्म राशि को एकत्र करके का(कश्यप ने कहा—। ‘नागराज ! इस वनस्पति पर आज मेरी विद्या का बल देखो। भुजगमे ! मैं तुम्हारे देखते-देखते इस वृ़क्ष को जीवित कर देता हूँ’। तदनन्तर सौभाग्यशाली विद्वान द्विजश्रेष्ठ कश्यप ने भस्म राशि के रूप में विद्यमान उस वृ़क्ष को विद्या के बल से जीवित कर दिया। पहले उन्होंने उसमें से अंकुर निकाला, फिर उसे दो पत्ते का कर दिया। इसी प्रकार क्रमशः पल्लव शाखा औ प्रशाखाओं से युक्त उस महान् वृक्ष को पुनः पूर्ववत् खड़ा कर दिया। महात्मा कश्यप द्वारा जलाये हुए उस वृक्ष को देखकर तक्षक ने कहा-‘ब्रहान् ! तुम-जैसे मन्त्रवेत्ता में ऐसे चमत्कार कस होना कोइ अत: बात नहीं हैं। ‘तपस्या के धनी द्विजेन्द्र ! जब तुम मेरे या मेरे जैसे दूसरे सर्प के विष को अपनी विद्या के बल से नष्ट कर सकते हो तो बताओ, तुम कौन सा प्रयोजन सिद्ध करने की इच्छा से वहाँ जा रहे हो। ‘उस श्रेष्ठ राजा से जो फल प्राप्त करना तुम्हें अभीष्ट है, यह अत्यन्त दुर्लभ हो तो भी मैं ही तुम्हें दे दूँगा। ‘विप्रवर ! महाराज परीक्षित् ब्राह्मण के शाप से तिरस्कृत हैं और उनकी आयु भी समाप्त हो चली है। ऐसी दशा में उन्हें जिलाने के लिये चेष्टा करने पर तुम्हें सिद्धि प्राप्त होगी, इसमें संदेह है। ‘यदि तुम सफल न हुए तो तीनों लोकों में विख्यात एवं प्रकाशित तुम्हारा यश किरण रहित सूर्य के मसान इस लोक से अदृष्य हो जायगा। कश्यप ने कहा—नागराज तक्षक ! मैं तो वहाँ धन के लिये ही जाता हूँ, वह तुम्ही तुझे दे दो तो उस धन को लेकर मैं घर लौट जाउँगा। तक्षक बोला—द्विजश्रेष्ठ ! तुम राजा परीक्षित् से जितना धन पाना चाहते हो, उससे अधिक मैं ही दे दूँगा, अतः लौट जाओ। उग्रश्रवाजी कहते हैं—तक्षक की बात सुनकर परम बुद्धिमान् महातेजस्वी विप्रवर कश्यप ने परीक्षित् के विषय में कुछ देर ध्यान लगाकर सोचा। तेजस्वी कश्यप दिव्य ज्ञान से सम्पन्न थैं। उस समय उन्होंने जान लिया कि पाण्डववंशी राजा परीक्षित् की आयु अब समाप्त हो गयी है, अतः वे मुनिश्रेष्ठ तक्षक से अपनी रूचि के अनुसार धन लेकर वहाँ से लौट गये। महात्मा कश्यप के समय रहते लौट जाने पर तक्षक तुरंत हस्तिनापुर नगर में जा पहुँचा। वहाँ जाने पर उसने सुना, राजा परीक्षित् की मन्त्रों तथा विष उतारने वाली ओषधियों द्वारा प्रयत्न पूर्वक रक्षा की जा रही है। उग्रश्रवाजी कहते हैं—शौनकजी ! तब तक्षक ने विचार किया, मुझे माया का आश्रम लेकर राजा को ठग लेना चाहिये; किंतु इसके लिये क्या उपाय हो? तदनन्तर तक्षक नाग ने फल, दर्भ (कुशा) और जल लेकर कुछ नागों को तपस्वी रूप में राजा के पास जाने की आज्ञा दी। तक्षक ने कहा—तुम लोग कार्य की सफलता के लिये राजा के पास जाओ, किंतु तनिक भी व्यग्र न होना। तुम्हारे जाने का उददेश्य है—महाराज को फल,फूल और जल भेंट करना। उग्रश्रवाजी कहते हैं—तक्षक के आदेश देने पर उन नागों ने वैसा ही किया। वे राजा के पास कुश, जल और फल लेकर गये। परम पराक्रमी महाराज परीक्षित् ने उनकी दी हुई वे सब वस्तुएँ ग्रहण कर ली। तदनन्तर उन्हें पारितोषिक देने आदि का कार्य करके कहा—‘अब आप लोग जायँ।’ तपस्वियों के वेष में छिपे हुए उन नागों के चले जाने पर राजा ने अपने मन्त्रियों और सुहृदों से कहा—‘ये सब तपस्वियों द्वारा लाये हुए बड़े स्वादिष्ठ फल हैं। इन्हें मेरे साथ आप लोग भी खायँ।’ ऐसा कहकर मन्त्रियों सहित राजा ने उन फलों को लेने की इच्छा की। विधाता के विधान एवं महर्षि के वचन से प्रेरित होकर राजा ने वही फल स्वयं खाया, जिस पर तक्षक नाग बैठा था। शौनकजी ! खाते समय राजा के हाथ में जो फल था, उससे एक छोटा-सा कीट प्रकट हुआ। देखने में वह अत्यन्त लघु था, उसकी आँखें काली और शरीर का रंग ताँबे के समान था। नृपश्रेष्ठ परीक्षित् ने उस कीडे़ को हाथ में लेकर मन्त्रियों से इस प्रकार कहा—‘अब सूर्य देव अस्ताचल को जा रहे हैं; इसलिये इस समय मुझे सर्प के विष से कोई भय नहीं है। ‘वे मुनि सत्यवादी हों, इसके लिये यह कीट ही तक्षक नाम धारण करके मुझे डँस ले। ऐसा करने से मेरे दोष का परिहार हो जायगा। काल से प्रेरित होकर मन्त्रियों ने भी उनकी हाँ में हाँ मिला दी। मन्त्रियों से पूर्वोक्त बात कहकर राजाधिराज परीक्षित् उस लघु कीट को कंधे पर रखकर जोर-जोर से हँसने लगे। वे तत्काल ही मरने वाले थे; अतः उनकी बुद्धि मारी गयी थी। राजा अभी हँस ही रहे थे कि उन्हें जो निवेदित किया गया था उस फल से निकलकर तक्षक नाग ने अपने शरीर से उनको जकड़ लिया। इस प्रकार वेग पूर्वक उनके शरीर में लिपटकर नागराज तक्षक ने बड़े जोर से गर्जना की और भूपाल परीक्षित् को डँस लिया।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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