महाभारत आदि पर्व अध्याय 42 श्लोक 1-19

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द्विचत्‍वारिंशो अध्‍याय: आदिपर्व (आस्तीकपर्व)

महाभारत: आदिपर्व: द्विचत्‍वारिंशो अध्‍याय: श्लोक 1- 41 का हिन्दी अनुवाद

श्रृंगी बोला—तात ! यदि यह साहस है अथवा यदि मेरे द्वारा दुष्कर्म हो गया है तो हो जाय। आपको यह प्रिय लगे या अप्रिय, किंतु मैंने जो बात कह दी है, वह झूठी नहीं हो सकती। पिताजी ! मैं आपसे सच कहता हूँ, अब यह शाप टल नहीं सकता। मैं हँसी-मजाक में भी झूठ नहीं बोलता, फिर शाप देते समय कैसे झूठी बात कह सकता हूँ। शमीक ने कहा—बेटा ! मैं जानता हूँ तुम्हारा प्रभाव उग्र है, तुम बड़े सत्यवादी हो, तुमने पहले भी कभी झूठी बात नहीं कही है; अतः यह शाप मिथ्या नहीं होगा। तथापि पिता को उचित है कि वह अपने पुत्र को बड़ी अवस्था का हो जाने पर भी सदा सत्कर्मों का उपदेश देता रहे; जिससे वह गुणवान् हो और महान् यश प्राप्त करे। फिर तुम्हे उपदेश देने की तो बात ही क्या है, तुम अभी बालक ही हो। जो योगजनित ऐश्वर्य से सम्पन्न हैं, ऐसे प्रभावशाली तेजस्वी पुरूषों का भी क्रोध बढ़ जाता है; फिर तुम जैसे बालक को क्रोध हो, इसमें कहना ही क्या है। (किंतु यह क्रोध धर्म का नाशक होता है) इसलिये धर्मात्माओं में श्रेष्ठ पुत्र ! तुम्हारे बचपन और दुःसाहसपूर्ण कार्य को देखकर मैं तुम्हें कुछ काल तक उपदेश देने की आवश्यकता समझता हूँ। तुम मन और इन्द्रियों के निग्रह में तत्पर होकर जंगली कन्द, मूल फल का आहार करते हुए इस क्रोध को मिटाकर उत्तम आचरण करो; ऐसा करने से तुम्हारे धर्म की हानि नहीं होगी। क्रोध प्रयत्नशील साधकों के अत्यन्त दुःख से उपार्जित धर्म का नाश कर देता है। फिर धर्महीन मनुष्यों को अभीष्ट गति नहीं मिलती है।शम (मनोनिग्रह) ही क्षमाशील साधकों को सिद्धि की प्राप्ति कराने वाला है। जिसमें क्षमा है, उन्हीं के लिये यह लोक और परलोक दोनों कल्याण कारक हैं। इसलिये तुम सदा इन्द्रियों को वश में रखते हुए क्षमाशील बनो। क्षमा से ही ब्रह्माजी के निकटवर्ती लोकों में जा सकोगे। तात ! मैं तो शान्ति धारण करके अब जो कुछ किया जा सकता है, वह करूँगा। राजा के पास यह संदेश भेज दूँगा कि ‘राजन् ! तुम्हारे द्वारा मुझे जो तिरस्कार प्राप्त हुआ है उसे देखकर अमर्ष में भरे हुए मेरे अल्पबुद्धि एवं मूढ़ पुत्र ने तुम्हें शाप दे दिया है’। उग्रश्रवाजी कहते हैं—उत्तम व्रत का पालन करने वाले दयालु एवं महातपस्वी शमीक मुनि ने अपने गौरमुख नाम वाले एकाग्रचित्त एवं शीलवान् शिष्य को इस प्रकार आदेश दे कुशल-प्रश्न, कार्य एवं वृत्तान्त का संदेश देकर राजा परीक्षित् के पास भेजा। गौरमुख वहाँ से शीघ्र कुरूकुल की वृद्धि करने वाले महाराज परीक्षित् के पास चला गया। राजधानी में पहँचाने पर द्वारपाल ने पहले महाराज को उसके आने की सूचना दी और उनकी आज्ञा मिलने पर गौरमुख ने राज भवन में प्रवेश किया। महाराज परीक्षित् उस समय गौरमुख ब्राह्मण का बड़ा सत्कार किया। जब उसने विश्राम कर लिया, तब शमीक के कहे हुए घोर वचन को मन्त्रियों के समीप राजा के सामने पूर्ण रूप से कह सुनाया। गौरमुख बोला—महाराज ! आपके राज्य में शमीक नाम वाले एक परम धर्मात्मा महर्षि रहते हैं। वे जितेन्द्रिय, मन को वश में रखने वाले और महान् तपस्वी हैं। नरव्याघ्र ! आपने मौन व्रत धारण करने वाले उन महात्मा के कंधे पर धनुष की नोक से उठाकर एक मरा हुआ साँप रख दिया था। महर्षि ने तो उसके लिये आपको क्षमा कर दिया था, किंतु उनके पुत्र को वह सहन नहीं हुआ। राजेन्द्र ! उस ऋषि कुमार ने आज अपने पिता के अनजान में ही आपके लिये यह शाप दिया है कि ‘आज से सात रात के वाह ही तक्षक नाग आपकी मृत्यु का कारण हो जायगा’। इस दशा में आप अपनी रक्षा की व्यवस्था करें। यह मुनि ने बार-बार कहा है। उस शाप को कोई भी टाल नहीं सकता। स्वयं महर्षि भी क्रोध में भरे हुए अपने पुत्र को शान्त नहीं कर पा रहे हैं। अतः राजन् ! आपके हित की इच्छा से उन्होंने मुझे यहाँ भेजा है। उग्रश्रवाजी कहते हैं—यह घोर वचन सुनकर कुरूनन्दन राजा परीक्षित् मुनि का अपराध करने के कारण मन-ही-मन संतप्त हो उठे। वे श्रेष्ठ महर्षि उस समय वन में मौन-व्रत का पालन कर रहे थे, यह सुनकर राजा परीक्षित् का मन और भी शोक एवं संताप में डूब गया। शमीक मुनि की दयालुता और अपने द्वारा उनके प्रति किये हुए उस उपराध का विचार करके वे अधिकाधिक संतप्त होने लगे। देवतुल्य राजा परीक्षित् को अपनी मृत्यु का शाप सुनकर वैसा संताप नहीं हुआ जैसा कि मुनि के प्रति किये हुए अपने उस बर्ताव को याद करके वे शोकमग्न हो रहे थे। तदनन्तर राजा ने यह संदेश देकर उस समय गौरमुख को विदा किया कि ‘भगवान् शमीक मुनि यहाँ पधार कर पुनः मुझ पर कृपा करें’। गौरमुख के चले जाने पर राजा ने उद्विग्नचित्त हो मन्त्रियों के साथ गुप्त मुन्त्रणा की। मन्त्र-तत्व के ज्ञाता महाराज ने मन्त्रियों से सलाह करके एक ऊँचा महल बनवाया; जिसमें एक ही खंभा लगा था। यह भवन सब ओर से सुरक्षित था। राजा ने वहाँ रक्षा के लिये आवश्यक प्रबन्ध किया, उन्होंने सब प्रकार की ओपधियाँ जुटा ली और वैद्यों तथा मन्त्रसिद्ध ब्राह्मणों के सब और नियुक्त कर दिया। वहीं रहकर वे धर्मज्ञ नरेश सब ओर से सुरक्षित हो मन्त्रियों के साथ सम्पूर्ण राज-कार्य की व्यवस्था करने लगे। उस समय महल में बैंठे हुए महाराज से कोई भी मिलने नहीं पाता था। वायु को भी वहाँ से निकल जाने पर पुनः प्रवेश के समय रोका जाता था। सातवाँ दिन आने पर मन्त्रशास्त्र के ज्ञाता द्विजश्रेष्ठ कश्यप राजा की चिकित्सा करने के लिये आ रहे थेा। उन्होंने सुन रक्खा था कि ‘भूपशिरोमणि परीक्षित् को आज नागों में श्रेष्ठ तक्षक यमलोक पहुँचा देगा। अतः उन्होंने सोचा कि नागराज के डँसे हुए महाराज का विष उतारकर मैं उन्हें जीवित कर दूँगा। ऐसा करने से वहाँ मुझे धन तो मिलेगा ही, लोकोपकारी राजा की जिलाने से धर्म भी होगा। मार्ग में नागराज तक्षक ने कश्यप को देखा। वे एकचित्त होकर हस्तिनापुर की ओर बढ़े जा रहे थे। तब नागराज ने बूढ़े ब्राह्मण का वेश बनाकर मुनिवर कश्यप से पूछा-‘आप कहाँ बड़ी उतावली के साथ जा रहे हैं और कौन-सा कार्य करना चाहते है। काश्यप ने कहा—कुरूकुल में उत्पन्न शत्रुदमन महाराज परीक्षित् को आज नागराज तक्षक अपनी विपाग्नि से दग्ध कर देगा। वे राजा पाण्डवों की वंश परम्परा को सुरक्षित रखने वाले तथा अत्यन्त पराक्रमी हैं। अतः सौम्य ! अग्नि के समान तेजस्वी नागराज के डँस लेने पर उन्हें तत्काल विपरहित करके जीवित कर देने के लिये मैं जल्दी-जल्दी जा रहा हूँ। तक्षक बोला—ब्रह्मन् ! मैं ही वह तक्षक हूँ। आज राजा को भस्म कर डालूँगा। आप लोट जाइये। मैं जिसे डँस लूँ, उसकी चिकित्सा आप नहीं कर सकते। कश्यप ने कहा—मैं तुम्हारे डँसे हुए राजा को वहाँ जाकर विष से रहित कर दूँगा्। यह विद्याबल से सम्पन्न मेरी बुद्धि का निश्चय है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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