महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 44 श्लोक 50-56

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Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०७:५८, ३ जुलाई २०१५ का अवतरण
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चौवालीसवॉं अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: चौवालीसवॉं अध्याय: श्लोक 42-56 का हिन्दी अनुवाद

महाराज ! मेरे ऐसा कहनेपर धर्मात्‍माओंमें श्रेष्‍ठ मेरे चाचा बाहलीक इस प्रकार बोले- ‘यदि तुम्‍हारे मतमें मूल्‍य देनेमात्रसे ही विवाहका पूर्ण निश्‍चय हो जाता हैं, पाणिग्रहणसे नहीं, तब तो स्‍मृतिका यह कथन ही व्‍यर्थ्र होगा कि कन्‍याका पिता एक वरसे शुल्‍क ले लेनेपर भी दूसरे गुणवान् वरका आश्रय ले सकता है। अर्थात् पहलेको छोड़कर दूसरे गुणवान् वरसे अपनी कन्‍याका विवाह कर सकता हैं।। जिनका यह मत है कि शुल्‍क से ही विवाहका निश्‍चय होता हैं, पाणिग्रहण से नहीं, उनके इस कथनको धर्मज्ञ पुरुष प्रमाण नहीं मानते हैं। ‘कन्‍यादानके विषयमें तो लोगोंका कथन भी प्रसिध्‍द है ‘अर्थात् सब लोग यही कहते हैं कि कन्‍यादान हुआ हैं। अत:जो शुल्‍कसे ही विवाह निश्‍चय मानते हैं उनके कथनकी प्रतीति करानेवाला कोई प्रमाण उपलब्‍ध नहीं होता। जो क्रय और शुल्‍क को मान्‍यता देते हैं वे मनुष्‍य धर्मज्ञ नहीं हैं।‘ऐसे लोगोंको कन्‍या नहीं देनी चाहिये और जो बेची जा रही हो ऐसी कन्‍याके साथ विवाह नहीं करना चाहिये, क्‍योंकि भार्या किसी प्रकार भी खरीदने या विक्रय करनेकी वस्‍तु नहीं है। ‘जो दासियोंको खरीदते और बेचते हैं वे बड़े लोभी और पापात्‍मा हैं। ऐसे ही लोगोंमें पत्‍नीको भी खरीदने-बचेनेकी निष्‍ठा होती है। इस विषयमें पहलेके लोगोंने सत्‍यवान् से पूछा था कि ‘महाप्राज्ञ ! यदि कन्‍याका शुल्‍क देनेके पश्‍चात् शुल्‍क देनेवालेकी मृत्‍यु हो जाय तो उसका पाणिग्रहण दूसरा कोई कर सकता है या नही? इसमें हमें धर्मविषयक संदेह हो गया हैं।आप इसका निवारण कीजिये, क्‍योंकि आप ज्ञानी पुरुषोंद्वारा सम्‍मानित हैं। ‘हमलोग इस विषयमें यथार्थ बात जानना चाहते भीष्‍मजी काशिराजकी तीन कन्‍याओंको हरकर लाये थे, उसमेंसे दोको एक श्रेणीमें रखकर एकवचनका प्रयोगकिया गया हैं, यह मानना चाहिये, तभी आदिपर्व अध्‍याय 102 के वर्णनकी संगति ठीक लग सकती है। आप हमारे लिये पथप्रथर्शक होइये।‘ उन लोगोंके इस प्रकार कहनेपर सत्‍यवान् ने कहा-‘जहॉं उतम पात्र मि㪹ం༌लता हो वहीं कन्या देनी चाहिये। इसके विपरीत कोई विचार मनमें नही लाना चाहिये। मूल्‍य देनेवाला यदि जीवित हो तो भी सुयोग्‍य वरके मि㪹ంलनेपर सज्‍जन पुरुष उसीके साथ कन्‍याका विवाह करते हैं। फिर उसके मर जानेपर अन्‍यत्र करें- इसमें तो संदेह ही नहीं है। ‘शुल्‍क देनेवालेकी मृत्‍यु हो जानेपर उसके छोटे भाईको वह कन्‍या पतिरुपमें ग्रहण करें अथवा जन्‍मान्‍तरमें उसी पतिको पाने की इच्‍छा से उसीका अनुसरण ((चिन्‍तन)करती हुई आजीवन कुमारी रहकर तपस्‍या करे। ‘किन्‍हीं मतमें अक्षतयोनि कन्‍याको स्‍वीकार करनेका अधिकार है। दूसरोंके मतमें यह मन्‍दप्रवृति- अवैध कार्य है। इस प्रकार जो विवाद करते हैं, वे अन्‍तमें इसी निश्‍चयपर पहुँचते हैं कि कन्‍याका पाणिग्रहण होनेसे पहलेका वैवाहिक मंगलाचार और मन्‍त्रप्रयोग हो जानेपर जहॉं अन्‍तर या व्‍यवधान पड़ जाय, अर्थात् अयोग्‍य वरको छोड़कर किसी दूसरे योग्‍य वरके साथ कन्‍या ब्‍याह दी जाय तो दाताको केवल मि㪹ం༌थ्‍याभाषणका पाप लगता है (‍पाणिग्रहणसे पूर्व कन्‍या विवाहित नहीं मानी जाती हैं)। ‘सप्‍तपदीके सातवें पदमें पाणिग्रहणके मन्‍त्रोंकी सफलता होती है (और तभी पति-पत्‍नीभावका निश्‍चय होता है)। जिस पुरुषको जलसे संकल्‍प करके कन्‍याका दान दिया जाता है वही उसका पाणिग्रहीता पति होता है और उसीकी वह पत्‍नी मानी जाती हैं। विद्वान पुरुष इसी प्रकार कन्‍यादानकी विधि बताते हैं। वे इसी निश्‍चयपर पहुँचे हुए है। ‘जो अनुकुल हो, अपने वंशका अनुरुप हो, अपने पिता-माता या भाईके द्वारा दी गयी हो और प्रज्‍वलित अग्निके समीप बैठी हो, ऐसी पत्‍नीको श्रेष्‍ठ द्विज अग्निकी परिक्रमा करके शास्‍त्रविधिके अनुसार ग्रहण करें।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें विवाहधर्मका वर्णनविषयक चौवालीसवॉं अध्‍याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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