महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 47 श्लोक 1-16

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सैंतालीसवॉं अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: सैंतालीसवॉं अध्याय: श्लोक 1-30 का हिन्दी अनुवाद

ब्राहामण आदि वर्णोकी दयाभाग-विधिका वर्णन युधिष्ठिरने पूछा- समपूर्ण शास्‍त्रोंके विधानके ज्ञाता तथा राजधर्मके विद्वानोंमे श्रेष्‍ठ पितामह।आप इस भूमण्‍डलमें सम्‍पूर्ण संशयोंका सर्वथा निवारण करनेके लिये प्रसिध्‍द हैं। मेरे हदयमें एक संशय और हैं, उसका मेरे लिये समाधान कीजिये। राजन् ! इस उत्‍पन्‍न हुए संशयके विषयमें मैं दूसरे किसीसे नहीं पूछूँगा। महाबाहो ! धर्ममार्गका अनुसरण करनेवाले मनुष्‍यका इस विषयमे जैसा कर्तव्‍य हो, इस सबकी आप स्‍पष्‍टरुपसे व्‍याख्‍या करें। पितामह ! ब्राहामणके लिये चार स्त्रियॉं शास्‍त्र–विहित हैं-ब्राहाणी, क्षत्रिया, वैश्‍या और शुद्रा। इनमेंसे शुद्रा केवल रतिकी इच्‍छावाले कामी पुरुषके लिये विहित है। कुरुश्रेष्‍ठ ! किस पुत्रको पिताके धममेंसे कौन-सा भाग मिलना चाहिये ?उनके लिये जो विभाग नियत किया गया है, उसका वर्णन मैं आपके मुँहसे सुनना चाहता हूँ। भीष्‍मजीने कहा- युधिष्ठिर ! ब्राहामण, क्षत्रिय और वैश्‍य-ये तीनों वर्ण द्विजाति कहलाते हैं, अत: इन तीन वर्णोमें ही ब्राहामणका विवाह धर्मत: विहित है। परंतप नरेश ! अन्‍यायसे, लोभसे अथवा कामनासे शुद्र जातिकी कन्‍या भी ब्राहामण की भार्या हेाती है, परंतु शास्‍त्रोंमें इसका कहीं विधान नहीं मिलता है। शुद्रजातिकी स्‍त्रीको अपनी शय्‍यापर सुलाकर ब्राहामण अधो‍गतिको प्राप्‍त होता है।साथ ही शास्‍त्रीय विधिके अनुसार वह प्रायश्चितका भागी होता हैं। युधिष्ठिर ! शुद्राके गर्भसे संतान उत्‍पन्‍न करनेपर ब्राहामणको दूना पाप लगता है और उसे दूने प्रायश्चितका भागी होना पड़ता है। भरतनन्‍दन ! अब मैं ब्राहामण आदि वर्णोकी कन्‍याओंके गर्भसे उत्‍पन्‍न होनेवाले पुत्रोंको पैतृक धनका जो भाग प्राप्‍त होता हैं, उसका वर्णन करुगा। ब्राहामणकी ब्राहाणी पत्‍नीसे जो पुत्र उत्‍पन्‍न होता हैं, वह उतम लक्षणोंसे सम्‍पन्‍न गृह आदि, बैल, सवारी तथा अन्‍य जो-जो श्रेष्‍ठतम पदार्थ हों, उन सबको अर्थात् पैतृक धनके प्रधान अंशको पहले ही अपने अधिकारमें कर ले। युधिष्ठिर ! फिर ब्राहामण का जो शेष धन हो, उसके दस भाग करने चाहिये। पिताके उस धनमेंसे पुन: चार भाग ब्राहामणीके पुत्रको ही ले लेने चाहिये। क्षत्रिया का जो पुत्र है, वह भी ब्राहामण ही होता है- इसमें संशय नही हैं। वह माताकी विशिष्‍टताके कारण पैतृक धनका तीन भाग ले लेने का अधिकारी हैं। युधिष्ठिर ! तीसरे वर्णकी कन्‍या वैश्‍यामें जो ब्राहामणसे पुत्र उत्‍पन्‍न होता हैं, उसे ब्राहामण के धनमेंसे दो भाग लेने चाहिये। भारत ! ब्राहामणमे शुद्रामें जो पुत्र उत्‍पन्‍न होता है, उसे तो धन न देने का ही विधान है तो भी शुद्रके पुत्रको पैतृक धनका स्‍वल्‍पतम भाग –एक अंश दे देना चाहिये। भारत ! ब्राहामणसे शुद्रामें जो पुत्र उत्‍पन्‍न होता है, उसे तो धन न देनेका ही विधान है तो भी शुद्रके पुत्रको पैतृक धनका स्‍वल्‍पतम भाग-एक अंश दे देना चाहिये। दस भागोंमें विभक्‍त हुए बँटवारेका यही क्रम होता है। परंतु जो समान वर्णकी स्त्रियोंसे उत्‍पन्‍न हुए पुत्र हैं, उन सबके लिये बराबर भागोंकी कल्‍पना करनी चाहिये। ब्राहामणसे शुद्राके गर्भसे जो पुत्र उत्‍पन्‍न होता है, उसे ब्राहामण नहीं मानते है; क्‍योंकि उसमें ब्राहामणों- चित निपुणता नहीं पायी जाती। शेष तीन वर्णकी स्त्रियोंसे ब्राहामण द्वारा जो पुत्र उत्‍पन्‍न होता है, वह ब्राहामण होता है। चार ही वर्ण बताये हैं, पॉंचवॉं वर्ण नहीं मिलता। शुद्राका पुत्र ब्राहामण पिताके धनसे उसका दसवॉं भाग ले सकता है। वह भी पिताके देनेपर ही उसे लेना चाहिये, बिना दिये उसे लेनेका कोई अधिकार नहीं है। भरतनन्‍दन ! किंतु शुद्राके पुत्रको भी धनका भाग अवश्‍य दे देना चाहिये। दया सबसे बड़ा धर्म है। यह समझकर उसे धनका भाग दिया जाता है। दया जहॉं भी उत्‍पन्‍न हो, वह गुणकारक ही होती है। भारत ! ब्राहामण के अन्‍य वर्णकी स्त्रियोंसे पुत्र हों या न हों, वह शुद्राके पुत्रको दसवें भागसे अधिक धन न दें। जब ब्राहामणके पास तीन वर्षतक निर्वाह होनेसे अधिक धन एकत्र हो जाय तब वह धनसे यज्ञ करे। धनका व्‍यर्थ संग्रह न करे। स्‍त्रीको पतिके धनसे जो हिस्‍सा मिलता हैं, उसका उपभोग ही (उसके लिये) फल माना गया है। पतिके द्वारा दिये हुए स्‍त्रीधनसे पुत्र आदिको कुछ नहीं लेना चाहियें। युधिष्ठिर ! ब्राहामणी को पिताकी ओरसे जो धन मिला हो, उस धनको उसकी पुत्री ले सकती है; क्‍योंकि जैसा पुत्र है, वैसी ही पुत्री भी है। कुरुनन्‍दन ! भरतकुलभूषण नरेश ! पुत्री पुत्रके समान ही है-ऐसा शास्‍त्रका विधान है। इस प्रकार वही धनके विभाजनको धर्मयुक्‍त प्रणाली बतायी गयी है।इस तरह धर्मका चिन्‍तन एवं अनुस्‍मरण करते हुए ही धन का उपार्जन एवं संग्रह करे। परंतु उसे व्‍यर्थ न होने दे-यज्ञ-यागादिके द्वारा सफल कर लें। युधिष्ठिर ने पूछा-दादाजी ! यदि ब्राहामणसे शूद्रामें उत्‍पन्‍न हुए पुत्र को धन न देने योग्‍य बताया गया है तो किस विशेषताके कारण उसको पैतृक धनका दसवॉ भाग भी दिया जाता है? ब्राहामणसे ब्राहामणीमें उत्‍पन्‍न हुआ पुत्र ब्राहामण हो-इसमें कोई संशयही नहीं, वैसे ही क्षत्रिया और वैश्‍याके गर्भसे उत्‍पन्‍न हुए पुत्र भी ब्राहामण ही होते है। नृपश्रेष्‍ठ ! जब आपने ब्राहामण आदि तीनों वर्णोवाली स्त्रियॉसे उत्‍पन्‍न हुए पुत्रोंको ब्राहामण ही बताया है, तब वे पैतृक धनका समान भाग क्‍यों नही पाते है? क्‍यों वे विषम भाग ग्रहण करें? भीष्‍मजीने कहा-शत्रुओंको संताप देनेवाले नरेश ! लोकमें सब स्त्रियॉंका ‘दारा’ इस एक नामसे ही परिचय दिया जाता है। इस तथाकथित नामसे ही चारों वर्णोकी स्त्रियोंसे उत्‍पन्‍न हुए पुत्रोंमें महान् अन्‍तर हो जाता है[१]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. *’दार’ शब्‍दकी व्‍युत्‍पति इस प्रकार है-‘आद्रियन्‍ते त्रिवर्गार्थिभि: इति दारा’।धर्म, अर्थ और कामकी इच्‍छा रखनेवाले पुरुषोंद्वारा आद‍र किया जाता है, वे दारा है, वे दारा है। जहॉतक भोगविषयक आदर है, वह तो सभी स्त्रियोंके साथ समान है, परंतु व्‍यावहारिक जगत् में जो पतिके द्वारा आदर प्राप्‍त होता हैं, वह वर्णक्रमसे यथायोग्‍य न्‍यूनाधिक मात्रामें ही उपलब्‍ध होता है। यही बात उनके पुत्रोंके सम्‍बन्‍ध में भी लागू होती है।इसीलिये उनके पुत्रोंको पैतृक धनके विषयमें कम और अधिक भाग ग्रहण करनेका अधिकार है।

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