अड़तालीसवॉं अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
महाभारत: अनुशासनपर्व: अड़तालीसवॉं अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद
वर्णसंकर संतानोंकी उत्पतिका विस्तारसे वर्णन
युधिष्ठिरने पूछा-पितामह ! धन पाकर या धनके लोभमें आकर अथवा कामनाके वशीभुत होकर जब उच्च वर्णकि स्त्री नीच वर्णके पुरुषके साथ सम्बन्ध स्थापित कर लेती है तब वर्णसंकर संतान उत्पन्न होती है। वर्णोंका निश्चय अथवा ज्ञान न होनेसे भी वर्णसंकरकी उत्पति होती है। इस रीतिसे जो वर्णोके मिश्रणद्वारा उत्पन्न हुए मनुष्य हैं, उनका क्या धर्म है? और कौन-कौन-से कर्म हैं? यह मुझे बताइये। भीष्मजीने कहा-बेटा ! पूर्वकालमें प्रजापतिने यज्ञके लिये केवल चार वर्णो और उनके पृथक-पृथक कर्मोकी ही रचना की थी। ब्राहामण की जो चार भार्याऍं बतायी गयी हैं, उनमेंसे दो स्त्रियॉं –ब्राहामणी और क्षत्रियाके गर्भसे ब्राहामण ही उत्पन्न होता हैं और शेष दो वैश्या और शुद्र स्त्रियोंके गर्भसे जो पुत्र उत्पन्न होते हैं, वे ब्राहामणसे हीन क्रमश: माताकी जातिके समझे जाते है। शुद्राके गर्भसे उत्पन्न हुआ ब्राहामणका ही जो पुत्र है, वह शवसे अर्थात् शुद्रसे पर-उत्कृष्ट बताया गया है; इसीलिये ॠषिगण उसे पारशव कहते हैं। उसे अपने कुलकी सेवा करनी चाहिये और अपने इस सेवारुप आचारका कभी परित्याग नहीं करना चाहिये। शुद्रापुत्र सभी उपयोंका विचार करके अपनी कुल-परम्पराका उध्दार करे। वह अवस्थामें ज्येष्ठ होनेपर भी ब्राहामण, क्षत्रिय और वैश्यकी अपेक्षा छोटा ही समझा जाता हैं, अत: उसे त्रैवर्णिकोंकी सेवा करते हुए दानपरायण होना चाहियें।।क्षत्रियकी क्षत्रिया, वैश्या और शुद्रा-ये तीन भार्याऍं होती है।इनमेंसे क्षत्रिया और वैश्याके गर्भसे क्षत्रियके सम्पर्कसे जो पुत्र उत्पन्न होता है, वह क्षत्रिय ही होता है। तीसरी शुद्राके गर्भसे हीन वर्णवाले शुद्र ही उत्पन्न होते है; जिनकी उग्र संज्ञा है। ऐसा धर्मशास्त्रका कथन है।वैश्यकी दो भार्याऍं होती हैं-वैश्या और शुद्रा। उन दोनोंके गर्भसे जो पुत्र उत्पन्न होता है, वह वैश्य ही होता हैं। शु्द्रकी एक ही भार्या होती है शुद्रा, जो शुद्रको ही जन्म देती है। अत: वर्णोमें नीचे दर्जेका शुद्र यदि गुरुजनों-ब्राहामण, क्षत्रिय, और वैश्योंकी स्त्रियोंके साथ समागम करता है तो वह चारों वर्णोद्वारा निन्दित वर्णबहिष्कृत (चाण्डाल आदि) को जन्म देता है।क्षत्रिय ब्राहामणोंके साथ समागम करनेपर उसके गर्भसे ‘सुत’ जातिका पुत्र उत्पन्न करता है, जो वर्णबहिष्कृत और स्तुति-कर्म करनेवाला (एवं रथीका काम करनेवाला) होता है। उसी प्रकार वैश्य यदि ब्राहाणीके साथ समागम करे तो वह संस्कारभ्रष्ट ‘वैदेहक’ जातिवाले पुत्रको उत्पन्न करता है, जिससे अन्त:पुरकी रक्षा आदिका काम लिया जाता है और इसीलिये जिसको ‘मौद्गल्य‘ भी कहते है। इसी तरह शुद्र ब्राहाणीके साथ समागम करके अत्यन्त भयंकर चाण्डालको जन्म देता है, जो गॉंवके बाहर बसता है और वध्यपुरुषोंको प्राणदण्ड आदि देनेका काम करता है।प्रभो! बुध्दिमानोमें श्रेष्ठ युधिष्ठिर ! ब्राहामणीके साथ नीच पुरुषोंका संसर्ग होनेपर ये सभी कुलांगार पुत्र उत्पन्न होता है और वर्णसंकर कहलाते है। वैश्यके द्वारा क्षत्रिय जातिकी स्त्रीके गर्भसे उत्पन्न होनेवाला पुत्र वन्दी और मागध कहलाता है। वह लोगोंकी प्रशसा करके अपनी जीविका चलाता है। इसी प्रकार यदि शूद्र क्षत्रिय जातिकी स्त्रीके साथ प्रतिलोम समागम करता है तो उससे मछली मारनेवाले निषाद जातिकी उत्पति होती है। और शुद्र यदि वैश्य जातिकी स्त्रीके साथ ग्राम्यधर्म (मैथून) का आश्रय लेता है तो उससे ‘आयोगव’ जातिका पुत्र उत्पन्न होता है जो बढ़ईका काम करके अपने कमाये हुए धनसे जीवन का निर्वाह करता है।ब्राहामणों उससे दान नहीं लेना चाहिये। ये वर्णसंकर भी जब अपनी ही जातिकी स्त्रीके साथ समागम करते हैं, तब अपनेही समान वर्णवाले पुत्रोंको जन्म देते है और जब अपनेसे हीन जातिकी स्त्रीसे संसर्ग करते हैं, तब नीच संतानोंकी उत्पति होती है। ये संताने अपनी माताकी जातिकी समझी जाती है।जैसे चार वर्णोमेंसे अपने और अपनेसे एक वर्ण नीचेकी स्त्रियोंसे उत्पन्न किये जानेवाले पुत्र प्रधान वर्णसे ब्राहय-माताकी जातिवाले होते हैं, उसी प्रकार ये नौ-अम्बष्ठ, पारशव, उग्र, सूत, वैदेहक, चाण्डाल, मागध,निषाद और आयोगव-अपनी जातिमें और अपने-से नीचेवाली जातिमें जब संतान उत्पन्न करते हैं, तब वह संतान पिताकी ही जातिवाली होती है और जब एक जातिका अन्तर देकर नीचेकी जातियोंमें संतान उत्पन्न करते हैं, तब वे संताने पिताकी जातिसे हीन माताओंकी जातिवाली होती है। इस प्रकार वर्णसंकर मनुष्य भी समान जातिकी स्त्रियोंमें अपने ही समान वर्णवाले पुत्रोंकी उत्पति करते हैं और यदि परस्पर विभिन्न जातिकी स्त्रियॉंसे उनका संसर्ग होता हैं तो वे अपनी अपेक्षा भी निन्दनीय संतानोंको ही जन्म देते हैं। जैसे शुद्र ब्राहामणीके गर्भसे चाण्डाल नामक बाहय(वर्ण-बहिष्कृत) पुत्र उत्पन्न करता है, उसी प्रकार उस ब्राहय जातिका मनुष्य भी ब्राहामण आदि चारों वर्णोकी एवं बाह्यतर जातिकी स्त्रियोंके साथ संसर्ग करके अपनी अपेक्षा भी नीच जातिवाला पुत्र पैदा करता है। इस तरह ब्राहय और ब्राह्तर जातिकी स्त्रियोंसे समागम करनेपर प्रतिलोम वर्णसंकरोंकी सृष्टि बढ़ती जाती है। क्रमश: हीन-से-हीन जातिके बालक जन्म लेने लगते है। इन संकर जातियोंकी संख्या सामान्यत: पंद्रह है।।अगम्या स्त्रीके साथ समागम करनेपर वर्णसंकर संतानकी उत्पति होती हैं। मागध जातिकी सैरन्ध्री स्त्रियोंसे यदि ब्राहयजातिय पुरुषोंका संसर्ग हो तो उससे जो पुत्र उत्पन्न होता है वह राजा आदि पुरुषोंके श्रृंगार करने तथा उनके शरीरमें अंगराग लगाने आदिकी सेवाओंका जानकार होता है और दास न होकर भी दासवृतिसे जीवन निर्वाह करनेवाला होता है। मागधोंके आवान्तर भेद सैरन्ध्र जातिकी स्त्रीसे यदि आयोगव जातिका पुरुष समागम करे तो वह आयोगव जाति का पुत्र उत्पन्न करता है, जो जंगलों में जाल बिछाकर पशुओंको फॅंसाने का काम करके जीवन निर्वाह करता है। उसी जातिको स्त्रीके साथ यदि वैदेह जातिका पुरुष समागम करता है तो वह मदिरा बनानेवाले मैरेयक जातिके पुत्र को जन्म देता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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