महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 48 श्लोक 36-50

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अड़तालीसवॉं अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: अड़तालीसवॉं अध्याय: श्लोक 21-50 का हिन्दी अनुवाद

निषादके वीर्य और मागधसैरन्‍ध्रीके गर्भसे मद्गुर जातिका पुरुष उत्‍पन्‍न होता है, जिसका दूसरा नाम दास भी है। वह नावसे अपनी जीविका चलाता है।चाण्‍डाल और मागधी सैरन्‍ध्रीके संयोगसे श्‍वपाक नामसे प्रसिध्‍द अधम चाण्‍डालकी उत्‍पति होती है। वह मुर्दोकी रखवालीका काम करता है। इस प्रकार मागध जातिकी सैरन्‍ध्री स्‍त्री आयोगव आदि चार जातियोंसे समागम करके मायासे जीविका चलानेवाले पूर्वोक्‍त चार प्रकारके क्रूर पुत्रोंको उत्‍पन्‍न करती है।इनके सिवा दूसरे भी चार प्रकारके क्रुर पुत्रोंको उत्‍पन्‍न करती है। इनके सिवा दूसरे भी चार प्रकारके पुत्र मागधी सैरन्‍ध्री उत्‍पन्‍न होते है। इनके सिवा दूसरे भी चार प्रकारके पुत्र मागधी सैरन्‍ध्रीसे उत्‍पन्‍न होते हैं जो उसके सजातीय अर्थात् मांस, स्‍वादुकर,क्षौद्र और सौगन्‍ध-इन चार नामोंसे प्रसिध्दि होती है।। आयोगव जातिकी पापिष्‍ठा स्‍त्री वैदेह जातिके पुरुषसे समागम करके अत्‍यन्‍त क्रुर, मायाजीवी पुत्र उत्‍पन्‍न करती है।वही निषादके संयोगसे मद्रनाभ नामक जातिको जन्‍म देती है, जो गदहेकी सवारी करनेवाली होती है।वही पापिष्‍ठा स्‍त्री जब चाण्‍डालसे समागम करती है तब पुल्‍कस जातिको जन्‍म देती है। पुल्‍कस गधे,घोड़े और हाथीके मांस खाते हैं।वे मुर्दोपर चढ़े हुए कफन लेकर पहनते और फुटे बर्तनमें भोजन करते हैं। इस प्रकार ये तीन नीच जाति के मनुष्‍य आयोगवीकी संताने हैं। निषाद जातिकी स्‍त्रीका वैदेहक जातिके पुरुषसे संसर्ग हो तो क्षुद्र, अन्‍ध्र और कारावर नामक जातिवाले पुत्रोंकी उत्‍पति होती है। इनमेंसे क्षुद्र और अन्‍ध्र तो गॉंवसे बाहर रहते हैं और जंगली पशुओंकी हिसा करके जीविका चलाते है तथा कारावर मृत पशुओंके चमड़ेका कारोबार करता हैं।इसलिये चर्मकार या चमार कहलाता है। चाण्‍डाल पुरुष और निषादजातिकी स्‍त्रीके संयोगसे पाण्‍डुसौपाक जातिका जन्‍म है।यह जाति बॉसकी डलिया आदि बनाकर जीविका चलाती है।वैदेह जातिकी स्‍त्रीके साथ निषादका सम्‍पर्क होनेपर आहिण्‍डकका जन्‍म होता हैं, किंतु वही स्‍त्री जब चाण्‍डालके साथ सम्‍पर्क करती है तब उससे सौपाककी उत्‍पति होती है। सौपाककी जीविका-वृति चाण्‍डालके ही तुल्‍य है। निषाद जातिकी स्‍त्रीमें चाण्‍डालके वीर्यसे अन्‍तेवसायीका जन्‍म होता है।इस जातिके लोग सदा श्‍मशानमें ही रहते है।निषाद आदि बाह्यजातिके लोग भी उसे बहिष्‍कृत या अछूत समझते हैं। इस प्रकार माता-पिताके व्‍यतिक्रम (वर्णान्‍तरके संयोग)-से ये वर्णसंकर जातियॉं उत्‍पन्‍न होती हैं। इनमेंसे कुछकी जातियॉं तो प्रकट होती हैं और कुछकी गुप्‍त। इन्‍हें इनके कर्मोसे ही पहचानना चाहिये। शास्‍त्रोंमें चारों वर्णोंके धर्मोका निश्‍चय किया गयाहै औरोके नहीं। धर्महीन वर्णंसकर जातियोंमेसे किसीके वर्णसम्‍बन्‍धी भेद और उपभेदोंकी भी यहॉं कोई नियत संख्‍या नहीं है।जो जातिका विचार न करके स्‍वेच्‍छानुसार अन्‍य वर्णकी स्त्रियॉके साथ समागम करते हैं तथा जो यज्ञोंके अधिकार और साधु पुरुषोंसे बहिष्‍कृत हैं, ऐसे वर्णब्रह्य मनुष्‍योंसे ही वर्णसंकर संतानें उत्‍पन्‍न होती है और मनुष्‍योंसे ही अपनी रुचिके अनुकुल कार्य करके भिन्‍न–भिन्‍न प्रकारकी आजीविका तथा आश्रयको अपनाती ह।ऐसे लोग सदा लोहेके आभूषण पहनकर चौराहोंमें, मरघटमें, पहाडोंपर और वृक्षोंके नीचे निवास करते है।इन्‍हें चाहिये कि गहने तथा अन्‍य उपकरणोको बनायें तथा अपने उदयोग-धन्‍धोंसे जीविका चलाते हुए प्रकटरुपसे निवास करे।पुरुषसिंह ! यदि ये गौ और ब्राहामणोंकी सहायता करें, कू्ररतापर्ण कर्मका त्‍याग दें, सबपर दया करें, सत्‍य बोलें, दूसरोंके अपराध क्षमा करें और अपने शरीरको कष्‍टमें डालकर भी दूसरोंकी रक्षा करें तो इन वर्णसंकर मनुष्‍योंको भी पारमार्थिक उन्‍नति हो सकती हैं-इसमें संशय नहीं है।राजन् ! जैसा ॠषि-मुनियोंने उपदेश किया है, उसके अनुसार बतायी हुई वर्ण एवं ब्राह्जातिकी स्त्रियोंमें बुध्दिमान् मनुष्‍यको अपने हिताहितका भलीभॉंती विचार करके ही संतान उत्‍पन्‍न करनी चाहिये, क्‍योंकि नीच योनिमें उत्‍पन्‍न हुआ पुत्र भवसागरसे पार जानेकी इच्‍छावाले पिताको उसी प्रकार डुबोता है, जैसे गलेमें बँधा हुआ पत्‍थर तैरनेवाले मनुष्‍यको पानीके अतलगर्तमें निमग्‍न कर देता है। संसारमें कोई मुर्ख हो या विद्वान, काम और क्रोधके वशीभूत हुए मनुष्‍यको नारियॉं अवश्‍य ही कुमार्गपर पहुँचा देती है। इस जगत् में मनुष्‍योंको कलंकित कर देना नारियोंका स्‍वभाव हैं, अत: विवेकी पुरुष युवती स्त्रियोंमें अधिक आसक्‍त नही होते है। युधिष्ठिरने पूछा-पितामह ! जो चारों वर्णोसे बहिष्‍कृत, वर्णसंकर मनुष्‍यसे उत्‍पन्‍न और अनार्य होकर भी उपरसे देखनेमें आर्य-सा प्रतीत हो रहा हो उसे हमलोग कैसे पहचान सकते है? भीष्‍मजीने कहा-युधिष्ठिर ! जो कलुषित योनिमें उत्‍पन्‍न हुआ है, वह ऐसी नाना प्रकारकी चेष्‍टाओंसे युक्‍त होता है, जो सत्‍पुरुषोंके आचारसे विपरीत है; अत: उसके कर्मोंसे ही उसकी पहचान होती है।इसी प्रकार सज्‍जनोचित आचरणोंसे योनिकी शुध्‍दताका ज्ञान प्राप्‍त करना चाहिये। इस जगत् में अनार्यता, अनाचार, कू्रता और कर्मण्‍यता आदि दोष मनुष्‍यको कलुषित योनिसे उत्‍पन्‍न (वर्णसंकर) सिध्‍द करते हैं। वर्णसंकर पुरुष अपने पिता या माताके अथवा दोनोके ही स्‍वभावका अनुसरण करता है। वह किसी तरह अपनी प्रकृतिको छिपानहीं सकता। जैसे बाघ अपनी चित्र-विचित्र खाल और रुपके द्वारा माता-पिताके समान ही होता है, उसी प्रकार मनुष्‍य भी अपनी योनिका अनुसरण करता है। यद्पि कुल और वीर्य गुप्‍त रहते हैं अर्थात् कौन किस कुल में और किसके वीर्यसे उत्‍पन्‍न हुआ है, यह बात उपरसे प्रकट नहीं होती है तो भी जिसका जन्‍म संकर-योनिसे हुआ है, वह मनुष्‍य थोडा-बहुत अपने पिताके स्‍वभावका आश्रय लेता ही है। जो कृत्रिम मार्गका आश्रय लेकर श्रेष्‍ठ पुरुषोंके अनुरुप आचरण करता है, वह सोना हैया कॉंच-शुध्‍द वर्णका है या संकर वर्णका ?इसका निश्‍चय करते समय उसका स्‍वभाव हीसब कुछ बता देता है। संसारके प्राणी नाना प्रकारके आचार-व्‍यवहारमें लगे हुए हैं, भांति-भांतिके कर्मोमें तत्‍पर है; अत: आचरणके सिवा ऐसी कोई वस्‍तु नहीं हैं जो जन्‍मके रहस्‍य को साफ तौरपर प्रकट कर सके।वर्णसंकरको शास्‍त्रीय बुध्दि प्राप्‍त हो जाय तो भी वह उसके शरीरको स्‍वभावसे नहीं हटा सकती।उतम, मध्‍यम या निकृष्‍ट जिस प्रकारके स्‍वभावसे उसके शरीर का निर्माण हुआ है, वैसा ही स्‍वभाव उसे आनन्‍ददायक जान पड़ता हैं।उंची जातिका मनुष्‍य भी यदि उतम शील अर्थात् आचरणसे हीन हो तो उसका सत्‍कार न करे और शुद्र भी यदि धर्मज्ञ एवं सदाचारी हो तो उसका विशेष आदर करना चाहियें।मनुष्‍य अपने शुभाशुभ कर्म, शील, आचरण और कुलके द्वारा अपना परिचय देता है। यदि उसका कुल नष्‍ट हो गया हो तो भी वह अपने कर्मों द्वारा उसे फिर शीघ्र ही प्रकाशमें ला देता है। इन सभी उपर बतायी हुई नीच योनियोंमे तथा अन्‍य नीच जातियोंमें भी विद्वान् पुरुषको संतानोत्‍पति नहीं करनी चाहिये। उनका सर्वथा परित्‍याग करना ही उचित है।

इसप्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें विवाहधर्मके प्रसंगमें वर्णसंकरकी उत्‍पतिका वर्णनविषयक अड़तालीसवॉं अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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