उनचसवॉं अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
महाभारत: अनुशासनपर्व: उनचसवॉं अध्याय: श्लोक 1-28 का हिन्दी अनुवाद
नाना प्रकारके पुत्रोंका वर्णन
युधिष्ठिरने पूछा-तात ! कुरुश्रेष्ठ ! आप वर्णोंके सम्बन्धमें पृथक्-पृथक् यह बताइये कि कैसी स्त्रीके गर्भसे कैसे पुत्र उत्पन्न होते है?और कौन-से पुत्र किसके साथ होते हैं? पुत्रोंके निमित बहुत-सी विभिन्न बातें सुनी जाती हैं।राजन् ! इस विषयमें हम मोहित होनेके कारण कुछ निश्चय नहीं कर पाते, अत: आप हमारे इस संशयका निवारण करे। भीष्मने कहा-जहॉं पति-पत्नी के संयोगमें किसी तीसरेका व्यवधान नही है अर्थात् जो पतिके वीर्यसे ही उत्पन्न हुआ है, उस ‘अनन्तरज’अर्थात् ‘औरस’ पुत्रको अपना आत्मा ही समझना चाहिये। दूसरा पुत्र ‘निरुक्तज’ होता है। तीसरा ‘प्रसृतज’ होता हैं(निरुक्तज और प्रसृतज दोनों क्षेत्रके ही दो भेद हैं)। पतित पुरुषका अपनी स्त्रीके गर्भसे स्वयं ही उत्पन्न किया हुआ पुत्र चौथी श्रेणीका पुत्र हैं। इसके सिवा ‘दतक’ और ‘क्रीत’ पुत्र भी होते हैं। ये कुल मिलाकर छ: हुए। सातवॉं है ‘अध्यूढ़’ पुत्र (जो कुमारी-अवस्थामें ही माताके पेटमें आ गया और विवाह करनेवालेके घरमें आकर जिसका जन्म हुआ)। आठवॉं ‘कानीन’ पुत्र होता हैं।इनके अतिरिक्त छ: ‘अपध्वंसज’ (अनुलोम) पुत्र होते हैं तथा छ: ‘अपसद’ (प्रतिलोम) पुत्र होते हैं।इस तरह इन सबकी संख्या बीस हो जाती है।भारत ! इस प्रकार ये पुत्रोंके भेद बताये गये। तुम्हें इन सबको पुत्रही जानना चाहिये। युधिष्ठिरने पूछा-दादाजी! छ: प्रकारके अपध्वंसज पुत्र कौन-से हैं तथा अपसद किन्हें कहा गया है? यह सब आप मुझे यथार्थयरुपसे बताइये। भीष्मजीने कहा-युधिष्ठिर ! ब्राहामणके क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र-इन तीन वर्णोकी स्त्रियोंसे जो पुत्र उत्पन्न होते हैं वे तीन प्रकारके अपध्वंसज कहे गये हैं। भारत ! क्षत्रियके वैश्य और शुद्र जातिकी स्त्रियोंसे जो पुत्र होते हैं वेदो प्रकारके अपध्वंसज हैं, तथा वैश्यके शुद्र-जातिकी स्त्रीसे जो पुत्र होता है वह भी एक अपध्वंसज है। इन सबका इसी प्रकरणमें दिग्दर्शन कराया गया है। इस प्रकार ये छ: अपध्वंसज अर्थात् अनुलोम पुत्र कहे गये हैं। अब ‘अपसद’ अर्थात् प्रतिलोम’ पुत्रोंका वर्णन सुनो। ब्राहाणी, क्षत्रिया तथा वैश्या-इन वर्णकी स्त्रियोंके गर्भसे शुद्रद्वारा जो पुत्र उत्पन्न किये जाते हैं, वे क्रमश: चाण्डाल, व्रात्य और वैघ् कहलाते हैं। ये अपसदोंके तीन भेद है। ब्राहामणी और क्षत्रियाके द्वारा गर्भसे वैश्यद्वारा जो पुत्र उत्पन्न किये जाते हैं, वे क्रमश: मागध और वामक नामवाले दो प्रकारके अपसद देखे गये हैं। क्षत्रियके एक ही वैसा पुत्र देखा जाता है, जो ब्राहामणीसे उत्पन्न होता है। उसकी सूत संज्ञा है।ये छ: अपसद अर्थात् प्रतिलोम पुत्र माने गये हैं। नरेश्वर ! इन पुत्रोंको मिथ्या नही बताया जा सकता। युधिष्ठिरने पूछा-पितामह ! कुछ लोग अपनी पत्नीके गर्भसे उत्पन्न हुए किसी भी प्रकारके पुत्रको अपना ही पुत्र मानते है और कुछ लोग अपने वीर्यसे उत्पन्न हुए पुत्रको ही सगा पुत्र समझते हैं। क्या वे दोनों समान कोटिके पुत्र है? इनपर किसका अधिकार है? इन्हें जन्म देनेवाली स्त्रीके पतिका या गर्भाधान करनेवाले पुरुषका ?यह मुझे बताइये। भीष्मजीने कहा-राजन् ! अपने वीर्यसे उत्पन्न हुआ पुत्र तो सगा पुत्र है ही, क्षेत्रज पुत्र भी यदि गर्भस्थापन करनेवाले पिताके द्वारा छोड्र दिया गया हो तो वह अपना ही होता है।यही बात समय-भेदन करके अध्यूढ पुत्रके विषयमें भी समझनी चाहिये। तात्पर्य यह कि वीर्य डालनेवाले पुरुषने यदि अपना स्वत्व हटा लिया हो तब वे क्षेत्रज और अध्यूढ पुत्र क्षेत्रपतिके ही माने जाते हैं।अन्यथा उनपर वीर्यदाताका ही स्वत्व है। युधिष्ठिरने पूछा- दादाजी ! हम तो वीर्य उत्पन्न होनेवाले पुत्रको ही पुत्र समझते हैं।वीर्यके बिना क्षेत्रज पुत्र का आगमन कैसे हो सकता है? तथा अध्यूढको हम किस प्रकार समय-भेदन करके पुत्र समझें? भीष्मजीने कहा-बेटा ! जो लोग अपने वीर्यसे पुत्र उत्पन्न करके अन्यान्य कारणोंसे उसका परित्याग कर देते हैं,उनका उसपर वीर्यस्थापनके कारण अधिकार नहीं रह जाता। वह पुत्र उस क्षेत्रके स्वामीका हो जाता है। प्रजानाथ ! पुत्रकी इच्छा रखनेवाला पुरुष पुत्रके लिये ही जिस गर्भवती कन्याको भार्यारुपसे ग्रहण करता है, उसका क्षेत्रज पुत्र उस विवाह करनेवाले पतिका ही माना जाता है।वहॉं गर्भ-स्थापन करनेवालेका अधिकार नहीं रह जाता है। भरतश्रेष्ठ ! दूसरेके क्षेत्रमें उत्पन्न हुआ पुत्र विभिन्न लक्षणोंसे लक्षित हो जाता है कि किसका पुत्र है। कोई भी असलियतको छिपा नहीं सकता, वह स्वत: प्रत्यक्ष हो जाती है। भरतनन्दन ! कहीं-कहीं कृत्रिम पुत्र भी देखा जाता है। वह ग्रहण करने या अपना मान लेने मात्रसेही अपना हो जाता हैं।वहॉं वीर्य या क्षेत्र कोई भी उसके पुत्रत्व-निश्चयमें कारण होता दिखायी नहीं देता। युधिष्ठिरने पूछा-भारत ! जहॉं वीर्य या क्षेत्र पुत्रत्वके निश्चयमें प्रमाण नहीं देखा जाता, जो संग्रह करने मात्रसे ही अपने पुत्रके रुपमें दिखायी देने लगता है वह कृत्रिम पुत्र कैसाहोता है? भीष्मजीने कहा- युधिष्ठिर! माता-पिताने जिसे रास्तेपर त्याग दिया हो और पता लगानेपर भी जिसके माता-पिताका ज्ञान न हो सके, उस बालक का जो पालन करता है, उसीका वह कृत्रिम पुत्र माना जाता है।वर्तमान समय में जो उस अनाथ बच्चेका स्वामी दिखायी देता है और उसका पालन-पोषण करता हैं, उसका जो वर्षा है, वही उस बच्चेका भी वर्ण हो जाता है। युधिष्ठिरने पूछा- पितामह ! ऐसे बालकका संस्कार कैसे और किस जातिके अनुसार करना चाहिये ? तथा वास्तवमें वह किस वर्णका है, यह कैसे जाना जाय? एवं किस तरह और किस जातिकी कन्याके साथ उसका विवाह करना चाहिये?यह मुझे बताइये। भीष्मजीने कहा-बेटा ! जिसको माता-पिताने त्याग दिया है, वह अपने स्वामी (पालक) पिताके वर्णको प्राप्त होता है। इसलिये उसके पालन करनेवालेको चाहिये कि वह अपने ही वर्णके अनुसार उसका संस्कार करे। धर्मसे कभी च्युत न होनेवाला युधिष्ठिर ! पालक पिताके सगोत्र बन्धुओंका जेसा संस्कार होता हो वैसा ही उसका भी करना चाहिये, तथा उसी वर्णकी कन्याके साथ उसका विवाह भी कर देना चाहिए। बेटा ! यदि उसकी माताके वर्ण और गोत्रका निश्चय हो जाय तो उस बालकका संस्कार करनेके लिये माताके ही वर्ण और गोत्रको ग्रहण करना चाहिये। कानीन और अघ्यूढज ये दोंनों प्रकारके पुत्र निकृष्ट श्रेणीके ही समझे जाने योग्य हैं। इन दोनों प्रकारके पुत्रोंको भी अपने ही समान संस्कार करे-ऐसा शास्त्रका निश्चय है। ब्राहामण आदिको चाहिये कि ये क्षेत्रज, अपसद तथा अध्यूढ –इन सभी प्रकारके पुत्रोंका अपने ही समान संस्कार करें। वर्णोके संस्कारके सम्बन्धमें धर्मशास्त्रोंका ऐसा निश्चय देखा जाता है। इस प्रकार मैंने ये सारी बातें तुम्हें बतायी। अब और क्या सुनना चाहते हो?
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तगर्त दानधर्मपर्वमें विवाहधर्मके प्रसंगमें पुत्रप्रतिनिधिकथनविषयक उनचसवॉं अध्याय पुरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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