एक सौ उनचासवाँ अध्याय: उद्योगपर्व (सेनोद्योग पर्व)
महाभारत: उद्योगपर्व: एक सौ उनचासवाँ अध्याय: श्लोक 1- 36 का हिन्दी अनुवाद
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—राजन! गान्धारी के ऐसा कहनेपर राजा धृतराष्ट्र ने समस्त राजाओं के बीच दुर्योधन से इस प्रकार कहा-बेटा दुर्योधन ! मेरी यह बात सुन। तेरा कल्याण हो। यदि तेरे मनमें पिता के लिये कुछ भी गौरव है तो तुझसे जो कुछ कहूँ, उसका पालन कर। सबसे पहले प्रजापति सोम हुए, जो कौरववंशकी वृद्धि के कारण हैं। सोमसे छठी पीढीमें नहुषपुत्र ययाति का जन्म हुआ। ययाति के पाँच पुत्र हुए, जो सब-के-सब श्रेष्ठ राजर्ष्िा थे। उनमें महातेजस्वी एवं शक्तिशाली ज्येष्ठ पुत्र यदु थे और सबसे छोटे पुत्रका नाम पुरू हुआ, जिन्होंने हमारे इस वंशकी वृद्धि की है। वे वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठाके गर्भ से उत्पन्न हुए थे।’भरतश्रेष्ठ ! यदु देवयानीके पुत्र थे। तात ! वे अमित तेजस्वी शुक्राचार्य के दौहित्र लगते थे। वे बलवान्, उत्तम पराक्रमसे सम्पन्न एवं यादवों के वंश प्रर्वतक हुए थे। उनकी बुद्धि बड़ी मन्द थी और उन्होंने घमंड में आकर समस्त क्षत्रियों का अपमान किया किया था। ’बल के घमंडसे वे इतने मोहित हो रहे थे कि पिता के आदेश पर चलते ही नहीं थे किसीसे पराजित न होनेवाले यदु अपने भाइयों और पिताका भी अपमान करते थे ।चारों समुद्र जिसके अन्तमें है, उस भूमण्डलमें यदु ही सबसे अधिक बलवान थे। वे समस्त राजाओं को वशमें करके हस्तिनापुरमें निवास करते थे।’गान्धारीपुत्र! यदु के पिता नहुषनन्दन ययातिने अत्यन्त कुपित होकर यदुको शाप दे दिया और उन्हें राज्यसे भी उतार दिया। अपने बलका घमंड रखनेवाले जिन-जिन भाइयों ने यदु का अनुसरण किया, ययाति ने कुपित होकर अपने उन पुत्रों को भी शाप दे दिया। तदन्नतर अपने अधीन रहनेवाले आज्ञापालक छोटे पुत्र पुरूको नृपश्रेष्ठ ययातिने राज्यपर बिठाया। इस प्रकार यह सिद्ध है कि ज्येष्ठ पुत्र भी यदि अहंकारी हो तो उसे राज्यकी प्राप्ति नहीं होती और छोटे पुत्र भी वृद्ध पुरूषों की सेवा करनेसे राज्य पानेके अधिकारी हो जाते हैं। इसी प्रकार मेरे पिताके पितामह राजा प्रतीप सब धर्मों के ज्ञाता एवं तीनों लोकों में विख्यात थे। धर्मपूर्वक राज्यका शासन करते हुए नृपप्रवर प्रतीपके तीन पुत्र उत्पन्न हुए, जो देवताओं के समान तेजस्वी और यशस्वी थे। तात ! उन तीनोंमें सबसे श्रेष्ठ थे देवापि ! उनके बाद वाले राजकुमारका नाम वाह्रीक था तथा प्रतीप के तीसरे पुत्र मेरे धैर्यवान पितामह शान्तुन थे।’नृपश्रेष्ठ देवापि महान तेजस्वी होते हुए भी चर्मरोगसे पीड़ित थे। वे धार्मिक, सत्यवादी, पिताकी सेवामें तत्पर, साधु पुरूषों द्वारा सम्मानित तथा नगर एवं जनपद - निवासियों के लिये आदरणीय थे। देवापिने बालकों से लेकर वृद्धों तक सभीके ह्रदयमें अपना स्थान बना लिया था। वे उदार, सत्यप्रतिज्ञ और समस्त प्राणियों के हित में तत्पर रहनेवाले थे। पिता तथा ब्राह्रमणोंके आदेशके अनुसार चलते थे। वे बाह्रीक तथा महात्मा शान्तनुके प्रिय बन्धु थे। परस्पर संगठित रहनेवाले उन तीनों महामना बन्धुओंका परस्पर अच्छे भाईका-सा स्नेहपूर्ण बर्ताव था। तदन्तर कुछ काल बीतनेपर बूढे नृपश्रेष्ठ प्रतीप ने शास्त्रीय विधि के अनुसार राज्याभिषेक का संग्रह कराया। उन्होंने देवापिके मंगल के लिये सभी आवश्यक कृत्य सम्पन्न कराये; परंतु उस समय सब ब्राह्मणों तथा वृद्ध पुरूषोंने नगर और जनपद के लोगों के साथ आकर देवापि का राज्याभिषेक रोक दिया किंतु राज्याभिषेक रोकनेकी बात सुनकर राजा प्रतीप का गला भर आया और वे अपने पुत्र के लिए शोक करने लगे। इस प्रकार यद्यपि देवापि उदार, धर्मज्ञ, सत्यप्रतिज्ञ तथा प्रजाओंके प्रिय थे, तथापि पूर्वोक्त चर्मरोग के कारण दूषित मान लिये गये। जो किसी अंग से हीन हो उस राजाका देवतालोग अभिनन्दन नहीं करते हैं; इसीलिये उन श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने नृप-प्रवर प्रतीप को देवापि का अभिषेक करने से मना कर दिया था। इससे राजाको बड़ा कष्ट हुआ। वे पुत्रके लिये शोकसग्न हो गये। राजाको रोका गया देखकर देवापि वन में चले गये। बाह्रीक परम समृद्धिशाली राज्य तथा पिता और भाइयों को छोड़कर मामाके घर चले गये। राजन्! तदन्तर पिताकीमृत्यु होने के पश्चात् बाह्रीक की आज्ञा लेकर लोकविख्यात राजा शान्तनुने राज्य का शासन किया। भारत ! इसी प्रकार मैं भी अंगहीन था; इसलिये ज्येष्ठ होनेपर भी बुद्धिमान पाण्डु एवं प्रजाजनोंके द्वारा खूब सोचविचारकर राज्य से वंचित कर दिया गया। पाण्डुने अवस्थामें छोटे होनेपर भी राज्य प्राप्त किया और वे एक अच्छे राजा बनकर रहे हैं। शत्रुदमन दुर्योधन ! पाण्डु की मृत्युके पश्चात् उनके पुत्रोंका ही यह राज्य है। मैं तो राज्यका अधिकारी था ही नहीं, फिर तू कैसे राज्य लेना चाहता है? जो राजाका पुत्र नहीं है, वह उसके राज्यका स्वामी नहीं हो सकता। तू पराये धनका अपहरण करना चाहता है, महात्मा युधिष्ठिर राजाके पुत्र हैं, अत: न्यायत: प्राप्त हुए इस राज्यपर उन्हींका अधिकार है। वे ही इस कौरव-कुलका भरण-पोषण करनेवाले, स्वामी तथा इस राज्यके शासक हैं। उनका प्रभाव महान है। वे सत्यप्रतिज्ञ और प्रमादरहित हैं। शास्त्रकी आज्ञाके युधिष्ठिरपर प्रजावर्गका विशेष प्रेम है। वे अपने सुदृदोंपर कृपा करनेवाले, जितेन्द्रिय तथा सज्जनों का पालन पोषण करनेवाले हैं। क्षमा, सहनशीलता, इन्द्रिसंयम, सरलता, सत्य-परायणता, शास्त्रज्ञान, प्रमादशून्यता, समस्त प्राणियोंपर दयाभाव तथा गुरूजनोंके अनुशासन रहना आदि समस्त राजोचित गुण युधिष्ठिर में विद्यमान हैं। तू राजाका पुत्र नहीं है। तेरा बर्ताव भी दुष्टोंके समान है। तू लोभी तो है ही, बन्धु-बांधवों के प्रति सदा पापपूर्ण है। तू कैसे इसका अपहरण कर सकेगा? नरेन्द्र ! तू मोह छोड़कर वाहनों और अन्यान्य सामग्रियों सहित (कम से कम) आधा राज्य पाण्डवोंको दे दे। सभी अपने छोटे भाइयोंके साथ तेरा जीवन बचा रह सकता है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत भगवद्यानपर्व में धृतराष्ट्रवाक्यविषयक एक सौ उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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