महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 17 श्लोक 1-21

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सत्रहवां अध्‍याय: उद्योगपर्व

महाभारत: उद्योगपर्व: सत्रहवां अध्याय: श्लोक 1- 39 का हिन्दी अनुवाद

कौरव महारथियों का युद्ध के लिये आगे बढ़ना तथा उनके व्‍यूह, वाहन और ध्‍वज आदि का वर्णन संजय कहते है- राजन ! श्रीकृष्‍ण द्वैपायन भगवान व्‍यास ने जैसा कहा था, उसी के अनुसार सब राजा कुरूक्षेत्र में एकत्र हुए थे। उस दिन चन्‍द्रमा मघा नक्षत्र पर था। आकाश में सात महाग्रह अग्नि के समान उद्दीप्‍त दिखायी दे रहे थे। उदयकाल में सूर्य दो भागों में बँटा हुआ सा दिखायी देने लगा। साथ ही वह अपनी प्रचण्‍ड ज्‍वालाओं से अधिकाधिक जाज्‍वल्‍यमान होकर उदित हुआ था। सम्‍पूर्ण दिशाओं में दाह सा हो रहा था और मांस तथा रक्‍त का आहार करने वाले गीदड़ और कौए मनुष्‍यों तथा पशुओं की लाशों की लालसा रखकर अमंगलसूचक शब्‍द कर रहे थे। कुरूकुल के वृद्ध पितामह भीष्‍म तथा भरद्वाजनन्‍दन द्रोणाचार्य- ये दोनों शत्रुदमन महारथी प्रतिदिन सबेरे उठकर मन को संयम में रखते हुए यह आशीर्वाद देते थे कि ‘पाण्‍डवों की जय हो’; परंतु वे जैसी प्रतिज्ञा कर चुके थे उसके अनुसार आपके लिये ही पाण्‍डवों के साथ युद्ध करते थे। उस दिन सम्‍पूर्ण धर्मों के विशेषज्ञ आपके ताऊ देवव्रत भीष्‍मजी सब राजाओं को बुलाकर उनसे इस प्रकार बोले-क्षत्रियों ! यह युद्ध तुम्‍हारे लिये स्‍वर्ग का खुला हुआ विशाल द्वार है तुम लोग इसके द्वारा इन्‍द्र अथवा ब्रह्माजी का सालोक्‍य प्राप्‍त करो। यह तुम्‍हारे पूर्ववर्ती पूर्वजों द्वारा स्‍वीकार किया हुआ सनातन मार्ग हैं तुम सब लोग शान्‍तचित होकर युद्ध में शौर्य का परिचय देते हुए अपने-आपको सुयश और सम्‍मान का भागी बनाओ। नाभागा, यर्यात, मान्‍धाता, नहुष और नृग ऐसे ही कर्मों द्वारा सिद्धि को प्राप्‍त होकर उत्‍कृष्‍ट लोकों में गये हैं। घर में रोगी होकर पडे़-पडे़ प्राण त्‍याग करना क्षत्रिय के लिये अधर्म माना गया है। वह युद्ध में लोहे के अस्‍त्र-शस्‍त्रों द्वारा आहत होकर जो मृत्‍यु को अंगीकार करता है, वही उसका सनातन धर्म है। भरतश्रेष्‍ठ! भीष्‍म के ऐसा कहने पर वे सभी भूपाल श्रेष्‍ठ रथों द्वारा अपनी सेनाओं की शोभा बढाते हुए युद्ध के लिये प्रस्थित हुए। भरतभूषण ! इस युद्ध में भीष्‍म ने मन्त्रियों और बन्‍धुओं सहित कर्ण के अस्‍त्र-शस्‍त्र रखवा दिये थे। इसलिए आपके पुत्र और अन्‍य नरेश बिना कर्ण के ही अपने सिंहनादसे दसों दिशाओं को प्रतिध्‍वनित करते हुए युद्ध के लिये निकले। श्‍वेत छत्रों, पताकाओं, ध्‍वजों, हाथियों, घोड़ों, रथों और पैदल सैनिकों से उन समस्‍त सेनाओं की बड़ी शोभा हो रही थी। मेरी, पणव, दुन्‍दुभि आदि वाद्यों की ध्‍वनियों तथा रथ के पहियों के घर्घर शब्‍दों से वहां की सारी भूमि व्‍याप्‍त हो रही थी। सोने के अंगद और केयूर नामक बाहुभूषण तथा धनुष धारण किये महारथी वीर अग्नियुक्‍त पर्वतों के समान सुशोभित हो रहे थे। कौरव सेना के प्रधान सेनापति भीष्‍म भी ताड़ और पांच तारों के चिह्न से युक्‍त विशाल ध्‍वजा-पताका से सुभोशित रथ पर जा बैठे। उस समय वे निर्मल तेजोमय सूर्यदेव के समान प्रकाशित हो रहे थे। भरतश्रेष्‍ठ ! महाराज ! आपकी सेना के समस्‍त महाधनुर्धर भूपाल सेनापति भीष्‍म की आज्ञा के अनुसार चलते थे। गोवासन देश के स्‍वामी महाराज शैब्‍य अपने अधीन राजाओं के साथ पताका से सुभोभित राजोचित गजराज पर आरूढ़ हो युद्ध के लिये चले। कमल के समान कान्तिमान अश्र्वत्‍‍थामा सिंह को पूँछ के चिहृ से युक्‍त ध्‍वजा-पताका वाले रथ पर आरूढ़ हो समस्‍त सेनाओं के आगे रहकर चलने लगे। श्रुतायुध, चित्रसेन, पुरूमित्र, विविंशति, शल्‍य, भूरिश्रवा तथा महारथी विकर्ण- ये सात महाधनुर्धर वीर रथों पर आरूढ़ हो सुन्‍दर कवच धारण किये द्रोणपुत्र अश्र्वत्‍थामा को अपने आगे रखकर भीष्‍म आगे आगे चल रहे थे। इन सबके जाम्‍बूनद सुवर्ण बने हुए अन्‍यन्‍त उँचे ध्‍वज इनके श्रेष्‍ठ रथों की शोभा बढाते हुए अन्‍यन्‍त प्रकाशित हो रहे थे। आचार्य प्रवर द्रोण की पताका पर कमण्‍डलुविभूषित सुवर्णमयी वेदी और धनुष के चिहृ बने हुए थे। कई लाख सैनिकों की सेना को अपने साथ लेकर चलने वाले दुर्योधन माणेमय महान ध्‍वज नाग चिहृ से विभूषित था। पौरव, कालंगराज श्रुतायुध, काम्‍बोजराज सुदक्षिण, क्षेमधन्‍वा तथा सुमित्र- ये पांच प्रधान रथी दुर्योधन के आगे-आगे चल रहे थे। वृषभचिहिृत ध्‍वजा-पताका से युक्‍त बहुमूल्‍य रथ पर बैठे हुए कृपाचार्य मगध की श्रेष्‍ठ सेना को अपने साथ लिये चल रहे थे। अंगराज तथा मनस्‍वी कृपाचार्य से सुरक्षित पूर्वदेशीय क्षत्रियों की वह विशाल वाहिनी शरद्ऋतुके बादलों के समान शोभा पाती थी। महायशस्‍वी राजा जयद्रथ वराह के चिन्‍ह से युक्‍त रजतमय ध्‍वजा-पताका के साथ रथ पर आरूढ़ हो सेना के अग्रभाग में खडे़ हुए बड़ी शोभा पा रहे थे। उनके अधीन एक लाख रथ, आठ हजार हाथी और साठ हजार घुड़सवार थे। सिन्‍धुराज के द्वारा सुरक्षित अनन्‍त रथ, हा‍थी और घोड़ों से भरी हुई विशाल सेना अद्भुत शोभा पा रही थी। कलिंग देश का राजा श्रुतायुध अपने मित्र केतुमान के साथ साठ हजार रथ और दस हजार हाथियों को साथ लिये युद्ध के लिये चला। यन्‍त्र, तोमर, तूणीर तथा पताकाओं से सुशोभित उसके विशाल गजराज पर्वतों के समान प्रतीत होते थे। कलिंगराज के रथ की ध्‍वजा पर अग्नि का चिन्‍ह बना हुआ था। वह श्‍वेत छत्र और चँवर रूपी पंखे तथा पदक (कण्‍ठहार) से विभूषित हो बडी शोभा पा रहा था। राजन् ! केतुमान भी विचित्र एवं विशाल अंकुश से युक्‍त गजराज पर आरूढ़ हो समर भूमि में खड़ा हुआ मेघों की घटा के ऊपर प्रकाशित होने वाले सूर्यदेव के समान जान पड़ता था। इसी प्रकार श्रेष्‍ठ गजराज पर आरूढ़ हो राजा भगदत्‍त भी वज्रधारी इन्‍द्र के समान अपने तेज से उद्दीप्‍त हो युद्ध के लिये आगे बढ़ गये थे। अवन्तिदेश के राजकुमार बिन्‍द और अनुविन्‍द भी भगदत्‍त के समान ही तेजस्‍वी थे। वे दोनों भाई हाथी की पीठ पर बैठकर केतुमान के पीछे-पीछे चल रहे थे। राजन्‍ ! रथों के समूह से युक्‍त उस सेना का भयंकर व्‍यूह सर्वतोमुखी था। वह हँसता हुआ आक्रमण सा कर रहा था। हाथी उस व्‍यूह अंग थे, राजाओं का समुदाय ही उसका मस्‍तक था और घोडे उसके पंख जान पड़ते थे। द्रोणाचार्य, राजा शान्‍तनुन्‍दन भीष्‍म, आचार्य पुत्र अश्र्वत्‍थामा, बाह्यीक और कृपाचार्य ने उस सैन्‍य व्‍यूह का निर्माण किया था।

इस प्रकारश्रीमहाभारत भीष्‍मपर्व के अन्‍तर्गत श्री मद्भगवद्गगीता पर्व में सैन्‍यवर्णन विषयक सत्रहवां अध्‍याय पूरा हुआ।

 

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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