महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 340 श्लोक 18-38
तीन सौ चालीसवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (मोक्षधर्मपर्व)
‘व्यक्त भाव को प्राप्त हुए उन्हीं अनिरुद्ध ने पितामह ब्रह्मा की सृष्टि की। वे ब्रह्मा सम्पूर्ण तेजोमय हैं और उन्हीं को समष्टि अहंकार कहा गया है’। ‘पृथ्वी, वायु, आकाश, जल और तेज - ये पाँच सूक्ष्म महाभूत अहंकार से उत्पन्न हुए हैं’। ‘अहंकार स्वरूप ब्रह्मा ने पन्चमहाभूतों की सुष्टि करके फिर उनके शब्द-स्पर्श आदि गुणों का निर्माण किया। उन भूतों से जो मूर्तिमान् प्राणी उत्पन्न हुए उनके नाम सुनो’। ‘मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलत्स्य, पुलह, क्रतु, महात्मा वसिष्ठ और स्वायम्भुव मनु’। ‘इन आठों को प्रकृति जानना चाहिये, जिनमें सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित हैं। लोकपितामह ब्रह्मा ने सम्पूर्ण लोकों के जीवन-निर्वाह के लिये वेद-वेदांग और यज्ञांगों से युक्त यज्ञों की सृष्टि की है। पूर्वोक्त आठ प्रकृतियों से यह सम्पूर्ण जगत् उत्पन्न हुआ है’। ‘ब्रह्माजी के रोष से रुद्र का प्रादुर्भाव हुआ है। उन रुद्र ने स्वयं ही दस अन्य रुद्रों की भी सृष्टि कर ली है। इस प्रकार ये ग्यारह रुद्र हैं, जो विकारपुरुष माने गये हैं’ ‘वे ग्यारह रुद्र, आठ प्रकृति और समस्त देवर्षिगण, जो लोकरक्षा के लिए उत्पन्न हुए थे, ब्रह्माजी की सेवा में उपस्थित हुए। (और इस प्रकार बोले- ) ‘भगवन् ! पितामह ! आप महान् प्रभावशाली हैं। आपने ही हम लोगों की सृष्टि की है। हममें से जिसको जिस अधिकार या कार्य में प्रवृत्त होना हे तथा आपके द्वारा जिस अर्थसाधक अणिकार का निर्देश किया गया है, उसका पालन अहंकारयुक्त कर्ता के द्वारा कैसे हो सकता है ? ‘उस अधिकार और प्रयोजन का चिन्तन करने वाला जो पुरुष है, उसे आप कर्तव्यपालन की शक्ति प्रदान कीजिये।’ उनके ऐसा कहने पर महान् देव ब्रह्माजी ने उन देवताओं से इस प्रकार कहा।
ब्रह्माजी बोले - देवताओं ! तुमने मुझे अच्छी बात सुझायी है। तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारे हृदय में जो चिन्ता उत्पन्न हुई है, वही मेरे हृदय में भी पैदा हुई है।। किस प्रकार तीनों लोकों के अधिकृत कार्य का सम्पादन किया जाय तथा किस तरह तुम्हारी और मेरी शक्ति का भी क्षय न हो। हम सब लोग यहाँ से अव्यक्त लोकसाक्षी महापुरुष नारायणदेव की शरण में चलें। वे हमारे लिये हित की बात बतायेंगे। तदनन्तर वे सब ऋषि और देवता सम्पूर्ण जगत् के हित की भावना लेकर ब्रह्माजी के साथ क्षीरसागर के उत्तर तट पर गये। वहाँ ब्रह्माजी के कथनानुसार उन सबने वेदोक्त रीति से तपस्या आरम्भ की। उनका वह महान् नियम सभी तपस्याओं में कठोर था। उनकी आँखें ऊपर की ओर लगी थीं, भुजाएँ भी ऊपर की ओर ही उठी थीं। मन एकाग्र था। वे सब-के-सब समाहितचित्त हो एक पैर से खड़े हो काष्ठ के समान जान पड़ते थे। एक हजार दिव्य वर्षों तक अत्यन्त कठोर तपस्या करने के पश्चात् उन्हें वेद और वेदांगों से विभूषित मधुर वाणी सुनायी दी।
श्रीभगवान् बोले - हे तपसया के धनी ब्रह्म आदि देवताओं तथा ऋषियों ! मैं स्वागत के द्वारा तुम सबका सत्कार करके तुम्हें यह उत्तम वचन सुनाता हूँ। तुम्हारा प्रसोजन क्या है ? यह मुझे ज्ञात हो गया है। वह सम्पूर्ण जगत् के लिये अत्यन्त हितकर है। तुम्हें प्रवृत्तियुक्त धर्म का पालन करना चाहिये। वह तुम्हारे प्राणों का पोषक तथा शक्ति का संवर्द्धन करने वाला होगा। महान् धैर्यशाली देवताओं ! तुम लोगों ने मेरी आराधना की इच्छा से बड़ी भारी तपस्या की है। उस तपस्या के उत्तम फल का तुम अवश्य उपभोग करोगे। ये सम्पूर्ण जगत् के महान् गुरु लोकपितामह ब्रह्मा और तुम सभी श्रेष्ठ देवगण एकाग्रचित्त हो यज्ञों द्वारा मेरा यजन करो। लोकेश्वर ! तुम सब लोग यज्ञों में सदा मेरे लिये भाग समर्पित करते रहो। ऐसा होने पर में तुम्हें तुम्हारे अधिकार के अनुसार कल्याण मार्ग का उपदेश करता रहूँगा।
वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय ! देवाधिदेव भगवान् नारायण का यह वचन सुनकर उन सबके रोम हर्ष से खिल उठे। तदनन्तर उन सब देवताओं, महर्षियों और ब्रह्माजी ने वेदोक्त विधि से वैष्णव यज्ञ का अनुष्ठान किया। उस यज्ञ में ब्रह्माजी ने स्वयं भगवान् के लिये भाग निश्चित किया। उसी प्रकार देवताओं और देवर्षियों ने भी अपना-अपना भाग भगवान् के लिये निश्चित किया। सत्ययुग के न्यायानुसार निश्चित किये हुए वे उत्तम यज्ञ-भाग सबके द्वारा अत्यन्त सत्कृत हुए। ऋषि कहते हैं कि ‘भगवान् नारायण सूर्य के समान तेजस्वी, अन्तर्यामी पुरुष, अज्ञानान्धकार से परे, सर्वव्यापी, सर्वगामी, ईश्वर, वरदाता और सर्वसमर्थ हैं’। यज्ञभाग निश्चित हो जाने पर उन वरदायक देवता महेश्वर नारायणदेव ने आकाया में बिना शरीर के ही स्थित हो वहाँ खड़े हुए उन समस्त देवताओं से यह बात कही-। देवताओं ! जिसने तो ीााग हमारे लिये निश्चित किया था, वह उसी रूप में मुझे प्राप्त हो गया। इससे प्रसन्न होकर आज मैं तुम्हें पुनरावृत्तिरूप फल प्रदान करता हूँ। ‘देवताओं ! मेरी कृपा से तुम्हारा ऐसा ही लक्षण होगा। तुम प्रत्येक युग में उत्तम दक्षिणाओं से संयुक्त यज्ञों द्वारा यजन करके प्रवृत्तिरूप धर्मफल के भागी होआगे। ‘देवगण ! सम्पूर्ण लोकों में जो मनुष्य यज्ञों द्वारा यजन करेंगे, वे तुम्हारे लिये वेद के कथनानुसार यज्ञभाग निश्चित करेंगे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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