चौवनवॉं अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
महाभारत: अनुशासनपर्व: चौवनवॉं अध्याय: श्लोक 1-42 का हिन्दी अनुवाद
महर्षि च्यवन के प्रभाव से राज कुशिक और उनकी रानीको अनेक आश्चर्यमय दृश्यों का दर्शन एवं च्यवन मुनि का प्रसन्न होकर राजा को वर मांगने के लिये कहना भीष्मजी कहते हैं- राजन।तत्पश्चात् रात्रि व्यतीत होने पर महामना राजा कुशिक जागे और पूर्वान्हकाल के नैत्यिक नियमों से निवृत होकर अपनी रानी के साथ उस तपोवन की ओर चल दिये। वहां पहुंचकर नरेश ने एक सुन्दर महल देखा जो सारा-का-सारा सोने का बना हुआ था। उसमें मणियों के हजारों खम्भे लगे हुए थे और वह अपनी शोभा से गन्दर्भ नगर के समान जान पड़ता था। भारत।उस समय राजा कुशिक ने शिल्पियों के अभिप्राय के अनुसार निर्मित और भी बहुत-से दिव्य पदार्थ देखे। कहीं चांदी के शिखरों से सुशोभित पर्वत, कहीं कमलों से भरे सरोवर, कहीं भांति-भांति की चित्रशालाऐं तथा तोरण शोभा पा रहे थे। भूमि से कहीं सोने से मढा हुआ पक्का फर्स और कहीं हरी-हरी घास की बहार थी। अमराईयों में बौर लगे थे। जहां-तहां केतक, उद्वालक, अशोक, कुन्द, अतिमुक्तक, चम्पा, तिलक, कटहल, बेंत और कनेर आदि के सुन्दर वृक्ष खिले हुए थे। राजा और रानी ने उन सब को देखा।राजा ने विभिन्न स्थानों में निर्मित श्याम तमाल, वारणपुष्प तथा अष्टपदिका लताओं का दर्शन किया । कहीं कमल और उत्पल से भरे हुए रमणीय सरोबर शोभा पाते थे। कहीं पर्वत-सदृश ऊंचे-ऊंचे महल दिखाई देते थे जो विमान के आकार में बने हुए थे। वहां सभी ऋतुओं के फूल खिले हुए थे। भरतनन्दन। कहीं शीतल जल थे तो कहीं उष्ण, उन महलों में विचित्र आसन और उत्तमोत्तम शैय्याऐं विछी हुई थीं। सोने के बने हुए रत्नजड़ित पलंगों पर बहुमूल्य बिछौने विछे हुए थे। विभिन्न स्थानों में अनन्त भक्ष, भोज्य पदार्थ रखे गये थे। राजा ने देखा, मनुष्यों की-सी वाणी बोलने वाले तोते और सारिकाऐं चहक रही हैं। भृंगराज, कोयल, शतपत्र, कायष्टि, कुक्कुभ, मोर, मुर्गे, दात्यूह, जीवजीवक, चकोर, वानर, हंस, सारस और चक्रवाक आदि मनोहर पशु-पक्षी चारों ओर सानन्द विचर रहे हैं। पृथ्वीनाथ। कहीं झुण्ड-की-झुण्ड अप्सराऐं विहार कर रही थीं। कहीं गन्धर्वों के समुदाय अपनी प्रियतमाओं के आलिंगन-पाश में बंधे हुए थे। उन सबको राजा ने देखा। वे कभी उन्हें देख पाते थे और कभी नहीं देख पाते थे। राजा कभी संगीत की मधुर ध्वनि सुनते, कभी वेदों के स्वाध्याय का गम्भीर घोष उनके कानों में पड़ता और कभी हंसों की मीठी वाणी उन्हें सुनाई देती थी। उस अति अद्भुत दृश्य को देखकर राजा मन-ही-मन सोचने लगे- अहो। यह स्वप्न है या मेरे चित्त में भ्रम हो गया है अथवा यह सब कुछ सत्य ही है। अहो क्या मैं इसी शरीर से परम गति को प्राप्त हो गया हूं अथवा पुण्यमय उत्तरकुरू या अमरावती पुरी में आ पहुंचा हूं। ‘यह महान आश्चर्य की बात जो मुझे दिखाई दे रही है, क्या है? इस तरह वे बार-बार विचार करने लगे। राजा इस प्रकार सोच ही रहे थे कि उनकी दृष्टि मुनि प्रवर च्यवन पर पड़ी। मणिमय खंबों से युक्त सुवर्णमय विमान के भीतर बहुमूल्य दिव्य पर्यंक पर वे भृगुनन्दन च्यवन लेटे हुए थे।।उन्हें देखते ही पत्नी सहित महाराज कुशिक बड़े हर्ष के साथ आगे वढे। इतने ही में फिर महर्षि च्यवन अन्तर्धान हो गये। साथ ही उनका वह पलंग भी अदृश्य हो गया। तदनन्तर वन के दूसरे प्रदेश में राजा ने फिर उन्हें देखा, उस समय वे महान व्रतधारी महर्षि कुश की चटाई पर बैठ कर जप कर रहे थे । इस प्रकार ब्रह्मर्षि च्यवन ने अपनी योग शक्ति से राजा कुशिक को मोह में डाल दिया। एक ही क्षण में वह वन, वे अप्सराओं के समुदाय, गन्धर्व और वृक्ष सब-के-सब अदृश्य हो गये। नरेश्वर। गंगा का वह तट पुनः शब्द-रहित हो गया।वहां पलंग के समान कुश और बांबी की अधिकता हो गयी। तत्पश्चातपत्नी सहित राजा कुशिक ऋषि का वह महान अद्भुत प्रभाव देखकर उनके उस कार्य से बड़े विस्मय को प्राप्त हुए। इसके बाद हर्षमग्न हुए कुशिक ने अपनी पत्नी से कहा-‘कल्याणी। देखो, हमने भृगुकुल तिलक च्यवन मुनि की कृपा से कैसे-कैसे अद्भुत और दुलर्भ प्रदार्थ देखे हैं। भला, तपोबल से बढ़कर और कौनसा बल है?‘जिसकी मन के द्वारा कल्पना मात्र की जा सकती है, वह वस्तु तपस्या से साक्षात सुलभ हो जाती है। त्रिलोकी के राज्य से भी तप ही श्रेष्ठ है । ‘अच्छी तरह तपस्या करने पर उसकी शक्ति से मुक्ष तक मिल सकता है। इन ब्रह्मर्षि महात्मा च्यवन का प्रभाव अद्भुत है। ‘ये इच्छा करते ही अपनी तपस्या की शक्ति दूसरे लोकों की सृष्टि कर सकते हैं। इस पृथ्वी पर ब्राह्मणी पवित्रवाक्, पवित्रबुद्वि और पवित्र कर्म वाले होते हैं।‘महर्षि च्यवन कि सिवाय दूसरा कौन है जो ऐसा महान कार्य कर सके? संसार में मनुष्यों को राज्य तो सुलभ हो सकता है, परन्तु वास्तवकि ब्राह्माणत्व परम दुर्लभ है । ‘ब्राह्माणत्व के प्रभाव से ही महर्षि ने हम दोनों को अपने वाहनों की भांति रथ में जोत दिया था’ इस तरह राजा सोच-विचार कर ही रहे थे कि महर्षि च्यवन को उनका आना ज्ञाप हो गया। उन्होंने राजा की ओर देखकर कहा- भूपाल। शीघ्र यहां आओ। उनके इस प्रकार आदेश देने पर पत्नी सहित राजा उनके पास गये तथा उन वन्दनीय महामुनि को उन्होंने मस्तक झुकाकर प्रणाम किया।तब उन पुरूषप्रवर बुद्विमान मुनि ने राजा को आशीर्वाद देकर सान्त्वना प्रदान करते हुए कहा-‘आओ बैठो’। भरतवंशीनरेश। तदनन्तर स्वस्थ होकर भृगुपुत्र च्यवन मुनि अपनी स्निग्ध मधुर वाणी द्वारा राजा को तृप्त करते हुए-से बोले- ‘राजन। तुमने पांच ज्ञानेन्द्रियों, पांच कर्मेन्द्रियों और छठे मन को अच्छी तरह जीत लिया है। इसीलिये तुम महान संकट से मुक्त हुए हो।वक्ताओं में श्रेष्ठ पुत्र। तुमने भलि-भांति मेरी आराधना की है। तुम्हारे द्वारा कोई छोटे-से-छोटा या सूक्ष्म-से-सूक्ष्म अपराध भी नहीं हुआ है। राजन। अब मुझे विदा दो। जैसे मैं आया था, वैसे ही लौट जाऊंगा। राजेन्द्र। मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूं; अतः तुम कोई वर मांगो। कुशिक बोले- भगवन। भृगुश्रेष्ठ। मैं आपके निकट उसी प्रकार रहा हूं जैसे कोई प्रज्वलित अग्नि के बीच में खड़ा हो। उस अवस्था में रहकर भी मैं जलकर भस्म नहीं हुआ, यही मेरे लिये बहुत बड़ी बात है। भृगुनन्दन। यही मैंने महान वर प्राप्त कर लिया।निष्पाप ब्रह्मर्षें। आप जो प्रसन्न हुए हैं तथा आपने जो मेरे कुल को नष्ट होने से बचा दिया, यही मुझ पर आपका भारी अनुग्रह है। और इतने से ही मेरे जीवन का सारा प्रयोजन सफल हो गया। भृगुनन्दन। यही मेरे राज्य का और यही मेरी तपस्या का भी फल है। विप्रवर। यदि आपका मुझ पर प्रेम हो तो मेरे मन में एक संदेह है, उसका समाधान करने की कृपा करें।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्तगर्त दानधर्मपर्वमें च्यवन और कुशिका का संवादविषयक चौवनवॉं अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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