महाभारत वन पर्व अध्याय 2 श्लोक 17-35
द्वितीय अध्याय: वनपर्व (अरण्यपर्व)
‘मन के दु:ख का मूल कारण क्या है ? इसका पता लगाने पर ‘स्नेह,(संसार में आसक्ति) की ही उपलब्धि होती है। इसी स्नेह के कारण ही जीव कहीं आसक्त होता है और दु:ख पाता है। ‘दु:ख का मूल कारण है आसक्ति। आसक्ति से ही भय होता है। शोक, हर्ष तथा क्लेश। इन सब की प्राप्ति भी आसक्ति के कारण से होती है। आसक्ति से ही विषयों में भाव और अनुराग होते हैं। ये दोनों ही अमंगलकारी हैं। इनमें भी पहला अर्थात् विषयों के प्रति भाव महान् अनर्थ कारक ताना गया है। ‘ जैसे खोखलों में लगी हुई आग सम्पूर्ण वृक्ष को जड़ मूल-सहित जलाकर भस्म कर देती है, उसी प्रकार विषयों के प्रति थोड़ी- सी भी आसक्ति धर्म और अर्थ दानों का नाश कर देती है। ‘विषयों के प्राप्त न होने पर जो उनका त्याग करता है, वह त्यागी नहीं है; अपितु जो विषयों के प्राप्त होने पर भी उनमें दोष देखकर उनका परित्याग करता है – वही वैराग्य को प्राप्त होता है। उसके मन में किसी के प्रति द्वेष भाव न होने के कारण वह निरवैर तथा बन्धन-मुक्त होताहै। ‘इसलिए मित्रों तथा धनराशि को पाकर इनके प्रति स्नेह (आसक्ति)न करे । अपने शरीर से उत्पन्न हुई आसक्ति को ज्ञान से निवृत्त करे। ‘जो ज्ञानी, योगयुक्त, शास्त्रज्ञ तथा मन को वश में रखने वाले हैं, उन पर आसक्ति का प्रभाव उसी प्रकार नहीं पड़ता, जैसे कमल के पत्ते पर जल नहीं ठहरता। ‘राग के वशीभूत हुए पुरूषों को काम अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है। फिर उसके मन में काम भोग की इच्छा जाग उठती है। तत्पश्चात् तृष्णा बढ़ने लगती है। तृष्णा सबसे बढ़कर पापिष्ठ है (पाप में प्रवृत्ति करने वाली) तथा नित्य उद्वेग करने वाली बतायी गयी है। उसके द्वारा प्राय: अधर्म ही होता है। वह अत्यन्त भयंकर पाप बन्धन में डालने वाली है। ‘खोटी बुद्धि वाले मनुष्यों के लिये जिसे त्यागना अत्यन्त कठिन है,जो शरीर के जरा से जीर्ण हो जाने पर भी स्वयं जार्ण नहीं होती तथा जिसे प्रणनाशक रोग बताया गया है, उस तृष्णा को त्याग देता है, उसी को सुख मिलता है। ‘यह तृष्णा यद्यपि मनुष्यों के शरीर के भीतर ही रहती है, तो भी इसका कहीं आदि-अन्त नहीं है। लाहे के पिण्ड की आग के समान यह तृष्णा प्राणियों का विनाश कर देती है। ‘जैसे काष्ठ अपने से ही उत्पन्न हुई आग से जल कर भस्म हो जाता है, उसी प्रकार जिसका मन वया में नहीं है, वह मनुष्य अपने शरीर के साथ उत्पन्न हुए लोभ के द्वारा स्वयं नष्ट हो जाता है। ‘धनवान मनुष्यों को राजा, जल, अग्नि, चोर, तथा स्वजनों से भी उसी प्रकार भय बना रहता है, संग प्राणियों की मृत्यु से। ‘जैसे मांस के टुकड़े को आकाश में पक्षी, पृथ्वी पर हिंसक जन्तु तथा जल में मछलियाँ खा जाती हैं, उसी प्रकार धनवान पुरूष को सब लोग सर्वत्र नोचते रहते हैं। ‘कितने ही मनुष्यों के लिये अर्थ ही अनर्थ का कारण बन जाता है; क्योंकि अर्थ द्वारा सिद्ध होने वाले श्रेय (सांसारिक भोग ) में आसक्त मनुष्य वास्तविक कल्याण को नहीं प्राप्त होता। ‘इसलिए धन प्राप्ति के सभी उपाय मन में मोह बढ़ाने वाले हैं। कृपणता, घमण्ड, अभिमान,भय और उद्वेग इन्हें विद्वानों देहधारियों के लिए धनजनित दु:ख माना है। धन के उपार्जन, संरक्षण तथा व्यय में मनुष्य महान् दु:ख सहन करते हैं और धन के ही कारण एक दूसरे को मार डालते हैं । धन को त्यागने में महान् दु:ख होता है और यदि उसकी रक्षा की जाय तो वह शत्रु का-सा काम करता है। ‘धन की प्राप्ति भी दु:ख से ही होती है। इसलिये उसका चिन्तन न करे; क्योंकि धन की चिन्ता करना अपना नाश करना है। मूर्ख मनुष्य सदा असंतुष्ट रहते हैं और विद्वान पुरुष संतुष्ट। ‘यौवन, रूप, जीवन,रत्नों का संग्रह, ऐश्वर्य तथा प्रिय जनों का एकत्र निवास—ये सभी अनित्य हैं; अत: विद्वान पुरुष उनकी अभिलाषा न करे। ‘इसलिए धन-संग्रह का त्याग करें और उसके त्याग से जो क्लेश हो, उसे धैर्य पूर्वक सह लें। जिनके पास धन का संग्रह है, ऐसा कोई भी मनुष्य उपद्रव रहित नहीं देखा जाता है। अत: धर्मात्मा पुरूष उसी धन की प्रशंसा करते हैं, जो दैवेच्छा से न्यायपूर्वक स्वत: प्राप्त हो गया हो। ‘जो धर्म करने के लिए धनोपार्जन इच्छा करता है, उसका धन का इच्छा न करना ही अच्छा है। कीचड़ लगा कर धोने की अपेक्षा मनुष्यों के लिये उसका स्पर्श न करना ही श्रेष्ठ है। ‘युधिष्ठिर ! इस प्रकार आप के लिए किसी भी वस्तु की अभिलाषा करना उचित नहीं है। यदि आप को धर्म से ही प्रयोजन हो तो धन की इच्छा का सर्वथा त्याग कर दें।
टीका टिप्पणी और संदर्भसंबंधित लेख
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