महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 57 श्लोक 36-44

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित ११:१७, ३ जुलाई २०१५ का अवतरण ('==सत्तावनवाँ अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)== <div sty...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

सत्तावनवाँ अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: सत्तावनवाँ अध्याय: श्लोक 29-44 का हिन्दी अनुवाद

‘उस गौ के शरीर में जितने रोएं हैं, उतने वर्षों तक मनुष्य गोदान के पुण्य से स्वर्गीय सुख भोगता है। इतना ही नहीं, वह गौर उसके पुत्र-पौत्र आदि सात पीढि़यों तक समस्त कुल का परलोक में उद्वार कर देती है। ‘जो मनुष्य सोने के सुन्दर सींग बनवाकर और द्रव्यमय उत्तरीय देकर कांस्यमय दुग्धपात्र तथा दक्षिणासहित तिल की धेनुका ब्राह्माण को दान करता है, उसे वसुओं के लोक सुलभ होते हैं । ‘जैसे महासागर के बीच में पड़ी हुई नाव वायु का सहारा पाकर पार पहुंचा देती है, उसी प्रकार अपने कर्मों से बंधकर घोर अन्धकारमय नरक में गिरते हुए मनुष्यों को गोदान ही परलोक में पार लगाता है। ‘जो मनुष्य ब्राह्माण विधि से अपनी कन्या का दान करता है, ब्राह्माण को भूमिदान देता है तथा विधिपूर्वक अन्न का दान करता है, उसे इन्द्रलोक की प्राप्ति होती है। ‘जो मनुष्य स्वाध्यायशील और सदाचारी ब्राह्माण को सर्वगुण सम्पन्न गृह और शैय्या आदि गृहस्थी के सामान देता है, उसे उत्तर कुरूदेश में निवास प्राप्त होता है।‘भारत ढोने में समर्थ बैल और गायों का दान करेन से मनुष्य को वसुओं के लोक प्राप्त होते हैं। सुवर्णमय आभूषणों का दान स्वर्गलोक की प्राप्ति कराने वाला बताया गया है और विशुद्व पक्के सोने का दान उससे भी उत्तम फल देता है। ‘छाता देने से उत्तम घर, जूता दान करने से सवारी, वस्त्र देने से सुन्दर रूप और गन्ध दान करने से सुगन्धित शरीर की प्राप्ति होती है ।‘जो ब्राह्माण को फल अथवा फूलों से भरे हुए वृक्ष का दान करता है, वह अनायास ही नाना प्रकार के रत्नों से परिपूर्ण, धनसम्पन्न समृद्विशाली घर प्राप्त कर लेता है । ‘अन्न, जल और रस प्रदान करने वाल पुरूष इच्छानुसार सब प्रकार के रसों को प्राप्त करता है तथा जो रहने के लिये घर और ओढने के लिये वस्त्र देता है, उसे भी इन्हीं वस्तुओं की उपलब्धि होती है। इसमें संशय नहीं है। ‘नरेन्द्र। जो मनुष्य ब्राह्माणों को फूलों की माला, धूप, चन्दन, उबटन, नहाने के लिये जल और पुण्य दान करता है, वह संसार में नीरोग और सुन्दर रूपवाला होता है।‘राजन। जो पुरूष ब्राह्माण को अन्न और शैय्या से सम्पन्न गृहदान करता है, उसे अत्यन्त पवित्र, मनोहर और नान प्रकार के रत्नों से भरा हुआ उत्तम घर प्राप्त होता है।‘जो मनुष्य ब्राह्माण को सुगन्धयुक्त विचित्र बिछौने और तकिये युक्त शैय्या का दान करता है, वह बिना यत्न के ही उत्तम कुल में उत्पन्न अथवा सुन्दर केशपाशवाली, रूपवती एवं मनाहारिणी भार्या प्राप्त कर लेता है । ‘संग्राम भूमि में वीर शैय्या पर शयन करने वाला पुरूष ब्रह्माजी के समान हो जाता है। ब्रह्माजी से बढकर कुछ भी नहीं है- ऐसा महर्षियों का कथन है’। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय। पितामह का यह वचन सुनकर युधिष्ठिर का मन प्रसन्न हो उठा। एवं वीरमार्ग की अभिलाषा उत्पन्न हो जाने के कारण उन्होंने आश्रम में निवास करने की इच्छा का त्याग कर दिया। पुरूषप्रवर। तब शक्तिशाली राजा युधिष्ठिर ने पाण्डवों से कहा- ‘वीरमार्ग के विषय में पितामह का जो कथन है, उसी में तुम सब लोगों की रूचि होनी चाहिये;।।तब समस्त पाण्डवों तथा यशस्विनी द्रौपदी देवी ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर युधिष्ठिर के उस बचन का आदर किया।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें च्‍यवन और कुशिका का संवादविषयक सत्तावनवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख