महाभारत वन पर्व अध्याय 12 श्लोक 100-122

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द्वादश अध्‍याय: वनपर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत वनपर्व द्वादश अध्याय श्लोक 119- 136 का हिन्दी अनुवाद

पापकर्मों में लगे हुए अत्यन्त दुर्बल पापी शत्रुओं को दिये हुए ऐसे-ऐसे दुःख मैं सह रही हूँ और दीर्घ काल से चिन्ता की आग में जल रही हूँ। यह प्रसिद्ध है कि मैं दिव्य विधि से एक महान कुल में उत्पन्न हुई हूँ। पाण्डवों की प्यारी पत्नी और महाराज पाण्डु की पुत्र वधु हूँ। मधुसूदन श्रीकृष्ण ! मैं श्रेष्ठ और सती-साध्वी होती हुए भी इन पाँचों पाण्डवों के देखते-देखते केश पकड़कर घसीटी गयी। ऐसा कहकर मृदुभाषिणी द्रौपदी कमल कोश के समान कान्तिमान एवं कोमल हाथ से अपना मुँह ढककर फूट-फूटकर रोने लगी। पांचाल राजकुमारी कृष्णा अपने कठोर, उभरे हुए, शुभ लक्षण तथा सुन्दर स्तनों पर दुःखजनित अश्रुबिन्दुओं की वर्षा करने लगी। कुपित हुई द्रौपदी बार-बार सिसकती और आँसू पोंछती हुई आँसू भरे कण्ठ से बोली-- ‘मधुसूदन !' मेरे लिये न पति हैं, न पुत्र हैं, न बान्धव हैं, न भाई हैं, न पिता हैं और न आप ही हैं। ‘क्योंकि आप सब लोग, नीच मनुष्यों द्वारा जो मेरा अपमान हुआ था, उसकी उपेक्षा कर रहे हैं, मानो इसके लिये आपके हृदय में तनिक भी दुःख नहीं है। उस समय कर्ण ने जो मेरी हँसी उड़ायी थी, उससे उत्पन्न हुआ दुःख मेरे हृदय से दूर नहीं होता है। ‘श्रीकृष्ण ! चार कारणों से आपको सदा मेरी रक्षा करनी चाहिये। एक तो आप मेरे सम्बन्धी, दूसरे अग्नि कुण्ड में उत्पन्न होने के कारण मैं गौरवशालिनी हूँ, तीसरे आपकी सच्ची सखी हूँ और चौथे आप मेरी रक्षा करने में समर्थ हैं‘।

वैशम्पायनजी कहते हैं -- जनमेजय ! यह सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने वीरों के उस समुदाय में द्रौपदी से इस प्रकार कहा।

श्रीकृष्ण बोले-- भाविनि ! तुम जिन पर क्रुद्ध हुई हो, उनकी स्त्रियाँ भी अपने प्राण प्यारे पतियों को अर्जुन के बाण से छिन्न-भिन्न और खून से लथपथ हो मरकर धरती पर पड़ा देख इस रोयेंगी। पाण्डवों के हित के लिये जो कुछ भी सम्भव है, वह सब करूँगा, शोक न करो। मैं सत्य प्रतिज्ञा पूर्वक कह रहा हूँ कि तुम राज रानी बनोगी। कृष्णे ! आसमान फट पड़े, हिमालय पर्वत विदीर्ण हो जाय, पृथ्वी के टुकड़े- टुकड़े हो जायें और समुद्र सूख जाय, किंतु मेरी यह बात झूठी नहीं हो सकती। द्रौपदी ने अपने बातों के उत्तर में भगवान श्रीकृष्ण के मुख से ऐसी बातें सुनकर तिरछी चितवन से अपने मँझले पति अर्जुन की ओर देखा। महाराज ! तब अर्जुन ने द्रौपदी से कहा- ‘ललिमायुक्त सुन्दर नेत्रोंवाली देवि ! वरवर्णिनि ! रोओ मत ! भगवान मधुसूदन जो कुछ कह रहे हैं, वह अवश्य होकर रहेगा; टल नहीं सकता‘।

धृष्टद्युम्न ने कहा - बहिन ! मैं द्रोण को मार डालूँगा, शिखण्डी भिष्म का वध करेंगे, भीमसेन दुर्योधन को मार गिरायेंगे और अर्जुन कर्ण को यम लोक भेज देंगे। भगवान श्रीकृष्ण और बलराम का आश्रय पाकर हम लोग युद्ध में शत्रुओं के लिये अजेय हैं। इन्द्र भी हमें रण में परास्त नहीं कर सकते। फिर धृतराष्ट्र के पुत्रों की तो बात ही क्या है?

वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय ! धृष्टद्युम्न के ऐसा कहने पर वहाँ बैठे हुए वीर भगवान श्रीकृष्ण की ओर देखने लगे। उनके बीच में बैठे हुए महाबाहु केशव ने उनसे ऐसा कहा।

इस प्रकार श्रीमहाभारत के वनपर्व के अन्‍तर्गत अर्जुनाभिगमन पर्व में द्रौपदी-आश्वासनविषयक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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